ऋषिकेश मुखर्जी, दिलचस्प और जीवंत सिनेमा के फन मे माहिर सिनेकार रहे हैं. उनकी फिल्मों में बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में सांस्कृतिक विमर्श तो रहता ही था, साथ ही उसमें एक गहरा संदेश भी निहित होता था. चाहे उसमें फिल्म चुपके-चुपके के बैरिस्टर साहब की विशुद्ध हिंदी भाषी ड्राइवर की चाह रही हो या बकौल डॉक्टर मामा, “भवानी शंकर (गोलमाल) के दफ्तर के सारे-के-सारे मुलाजिमान मूँछधारक रहते हैं, सिवाय सेक्रेटरी के, क्योंकि वह एक स्त्री है.”
फिल्म किसी से न कहना की थीम पीढ़ी अंतराल पर आधारित है. कैलाशपति (उत्पल दत्त) इस धारणा को गहरे से पकड़े रहते हैं कि, उन्हें बहू चाहिए, तो ऐसी, जिसे अंग्रेजी बिल्कुल न आती हो, लेकिन परंपरागत मूल्यों में जिसकी गहरी आस्था हो. फिल्मकार ने बड़ी चतुराई से इस बात को स्थापित किया है कि, यह धारणा उनके मन में कैसे विकसित होती चली गई. दो-तीन उदाहरणों से उनके मन में पाश्चात्य जीवनशैली और व्यवहार के प्रति स्थाई रूप से वितृष्णा घर कर जाती है, जिससे वे इस रूढ़ निष्कर्ष पर जा पहुँचते हैं कि, बहू चाहिए तो ठेठ देहातन, लेकिन परंपरागत मूल्यों को गहराई से मानने वाली.
संयोग और छल- छद्म से उनकी बहू बन जाती है- मेडिको गर्ल रमोला शर्मा (दीप्ति नवल).
ससुर के बहू के प्रति अगाध विश्वास को लेकर वह विचलित होकर रह जाती है. वह ससुर से किए जा रहे छल को लेकर अंतर्मन से व्यथित रहती है. यही बात उसकी निश्छलता को दर्शाती है. जब कैलाशपति पर जान की बन आती है, तो वही बहू अनमोल रिश्तो की परवाह किए बिना, सब कुछ दाँव पर लगा देती है. नतीजे की परवाह किए बिना, वह अपनी प्रोफेशनल कैपेसिटी में उनको जीवन दान देती है. अंततोगत्वा कैलाशपति इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, उच्च शिक्षिता, अंग्रेजी में दक्ष बहू भी ऐसी हो सकती है, जो बड़ों का मान भी रखती हो और अपनी संस्कृति से गहरा लगाव भी. वह भी आदर्श बहू हो सकती है. अंग्रेजी बोलने वाली बहू कुसंस्कारी ही होगी, ऐसा जरूरी नहीं. अंत में वे इस रूढ़ धारणा से मुक्त हो जाते हैं.
दूरदर्शन की संकेत धुन से फिल्म का आरंभ होता है. कैलाश पति अपने सेवानिवृत्त बुजुर्ग दोस्तों के साथ पार्क में टहलने जाते हैं. उद्देश्य रहता है, सैर-सपाटा और एकरसता से उबरना.
कैलाशपति, वर्तमान पीढ़ी की जीवन शैली पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, “अजीब पीढ़ी है. जागने के वक्त सोती है, सोने के वक्त जागती है.”
सुबह की सैर से लौटकर वे सीधे डाइनिंग टेबल पर नजर आते हैं. उनका बेटा रमेश (फारुख शेख) महीने की तनख्वाह उनके हाथों में सौंप देता है. वह एक आज्ञाकारी पुत्र है. पिता उससे पूछते हैं, “तुम संतुष्ट तो हो ना रमेश.”
फिर उसे गुरु मंत्र देते हुए कहते हैं, “एंबिशन भी खाने की तरह होती है. ज्यादा खाने की तरह, ज्यादा एंबिशन भी बदहजमी पैदा करती है. असल चीज पेड़ का ऊंचा कद नहीं, असल चीज है उसकी गहरी जड़.”
यहाँ पर कैलाशपति गहरी बात कह जाते हैं.
उधर दफ्तर में रमेश को विंडफॉल तरक्की मिल जाती है. उसके बुजुर्ग बॉस उसे मैनेजर से जनरल मैनेजर बना देते हैं. अपनी तरक्की की खुशखबरी वह फौरन पिता को देता है. “आपके आशीर्वाद से मैं जनरल मैनेजर बन गया हूँ.” पिता उसे इस मौके पर फोन पर ही नसीहत दे डालते हैं,
“लायक कोई आशीर्वाद से नहीं बनता. लायक बनता है, ईमानदारी और मेहनत से.”
आज दफ्तर में स्टेनो-टाइपिस्ट का इंटरव्यू होना है. यह जिम्मा रमेश के ऊपर आ जाता है. तभी बॉस की भानजी रमोला (दीप्ति नवल) अपने मामा से मिलने ऑफिस में आ जाती है. मौके पर उसकी आमद से रमेश उसे कैंडिडेट समझने की भूल कर बैठता है. वह उसे बोलने का कोई मौका दिए बगैर कहता है, “आइए आप ही का इंतजार था.”
फिर वह सीधे सवाल दागने लगता है, “आपकी स्पीड क्या है, यानी रफ्तार.”
“यही कोई सत्तर-अस्सी. रास्ता साफ हो, तो सौ भी छू जाती है.”
“मैं आपकी टाइपिंग स्पीड पूछ रहा हूँ, ड्राइविंग स्पीड नहीं.”
वह स्पष्ट करते हुए कहती है, “देखिए! मेरे मामा जी..”
वह बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहता है, “मामाजी की धौंस यहाँ मत दीजिए. यहाँ किसी की सिफारिश नहीं चलेगी.”
असली कैंडिडेट के पहुँचते ही स्थिति स्पष्ट हो जाती है.
कैलाश पति के घर पर शतरंज की बिसात बिछी रहती है. बुजुर्ग चाल में खोए रहते हैं, बाजी पर निगाह गड़ाए. लालाजी चुपचाप कमरे में आते हैं. लियाकत मियाँ की उंगलियों में फंसी सिगरेट वे चुपके से निकालकर मजे से कश लगाते हैं. सबको लालाजी के आगमन की खबर हो जाती है. लालाजी, कैलाश पति को बेटे की शादी की सलाह देते हैं. वे कहते हैं “जवान बेटा पतंग की तरह होता है. जरा सी ढील दी, तो सामने वाली छत पर दिखाई देगा. जवानी कोई फिक्स डिपॉजिट में रखने वाली चीज नहीं होती. वो तो खरचने के लिए होती है. उसको ब्याहोगे, तो कायदे से खरचेगा, वरना यूँ बहका, या यूँ बहका.”
इधर रमोला अपने मामा जी से आशंका जताती है, “सात ही महीने पहले तो आए हैं आपके रमेश जी. आपने उन्हें जनरल मैनेजर बना दिया. किसी पर इतना भरोसा करना ठीक बात नहीं है, मामाजी.”
इस पर मामा जी कहते हैं, “उस पर भरोसा नहीं करूँ, तो किसपे करूँ.”
“ऐसी क्या खास बात है, जो आप उनकी इतनी तरफदारी करते हैं.”
“उसमें वो बात है बेटा, जो आजकल के नौजवानों मैं मुश्किल से मिलती है. मेहनती, वफादार, जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स. जानती है, हमारे ऑफिस की सौ साल पुरानी घड़ी एक बार बिगड़ गई. उसकी रिपेयर के लिए कलकत्ते की कंपनी ने हजार रुपए का स्टीमेट दिया. हमारे रमेश ने चौबीस रुपये नब्बे पैसे में घड़ी ठीक कर दी.”
“तो फिर घड़ी रिपेयरिंग की शॉप खोलकर उसका इंचार्ज बना दो उन्हें.”
वह अपनी बात को पुख्ता करते हुए कहती है, “आप तो इंस्टेंट कॉफी की तरह आँख बंद करके भरोसा कर लेते हैं. माफ कीजिए मामा जी, इंटेलिजेंट नहीं मुझे तो बुद्धू राम लगे.”
तभी रमेश ऑफिस के पेपर साइन कराने के लिए शर्मा जी से दरख्वास्त करता है. वह जैसे ही दस्तखत करने को होते हैं, रमेश उन्हें टोक देता है, “पढ़ तो लीजिए सर!” फिर रमोला की ओर देखकर मालिक से कहता है, “आँख बंद करके किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए. क्यों रमोला जी.”
वह इतने में भी चुप नहीं होता. अपने मालिक से कहता है, “मुझे तो समझ नहीं आता, क्या देखकर आपने मुझे जीएम बना दिया. हो सकता है असलियत में मैं बुद्धू राम होऊँ.”
इस बात पर भी वह रमोला की ओर देखकर उसकी सम्मति लेने की चेष्टा करता है. कहने का आशय यह है कि, वह उसे सब कुछ जता देता है.
रमेश के जाने पर रमोला अपने मामा से कहती है, “मामाजी! मैं अपनी राय वापस लेती हूँ. आपका जीएम इतना बुद्धू नहीं.”
घर की सफाई करते हुए रमोला से घड़ी टूट जाती है. घर का पुराना नौकर उसे बताता है कि, यह घड़ी मालिक की शादी की निशानी थी. वे अब खाना-पीना छोड़ देंगे. रमोला घबराहट में रमेश को फोन मिलाती है. वह उसे फौरन आने को कहती है, तो रमेश फोन पर कहता है, “मैं टैक्सी वाले से कहता हूँ, कि बिल्कुल आप की स्पीड से चले.”
वह घड़ी की हालत देखकर कहता है, “ये तो सीरियस सर्जिकल किस्म का केस है. इसे दवा की ही नहीं, दुआ की भी जरूरत पड़ेगी.”
वह घड़ी दुरुस्त कर रहा होता है, तभी मनसुख (देवेन वर्मा) टपक पड़ते हैं. घड़ी की हालत इतनी खराब है कि, वे रमेश से पूछ बैठते हैं, “आप घड़ी जोड़ रहे हैं, तोड़ रहे हैं.”
फिर वह रमेश से मेहनताने के बारे में पूछता है, तो रमेश जवाब देता है “हम तो भरोसे पर काम करते हैं.” इस पर मनसुख उसके लिए एक भविष्यवाणी कर डालता है, “आप डेफिनेटली तरक्की करोगे.”
वह घड़ी दुरुस्त कर देता है, तो रमोला घड़ी को कान से सटाकर उसके चलने की आवाज सुनती है और खुश होकर कहती है, “आप तो सचमुच जीनीयस निकले.” इस पर रमेश कहता है,
“लगता है, अब आपको मुझ पर थोड़ा-थोड़ा यकीन होने लगा है.”
उधर कैलाशपति जी लड़की देखने जाते हैं. जैसे ही वे सोफे पर बैठते हैं, अंदर चल रहे कोलाहल को सुनकर वे उछल पड़ते हैं. वे मेजबान से पूछते हैं, “घर में तोड़-ताड़, सुधार-कार्य का काम चल रहा है क्या.”
मेजबान कहते हैं, “नहीं-नहीं, मेरी बेटी अंदर म्यूजिक सुन रही है. वो म्यूजिक की बहुत शौकीन है.”
तभी लड़की सामने आकर बैठ जाती है. वे उससे उसका नाम पूछते हैं, तो वह अपना नाम बताती है, मौली. इस नाम पर कैलाशपति ताज्जुब जताते हैं, तो लड़की के पिता बताते हैं,
“इसका नाम श्यामली है. हम इसे प्यार से मौली कहते हैं.”
इस पर लड़की कहती है, “कॉलेज में तो मुझे सिर्फ ‘ली’ कहते हैं.” कैलाशपति पूछते हैं, “तुमने रामायण महाभारत पढ़ी है, बेटी.”
लड़की कहती है, “सॉरी आई एम नॉट इंटरेस्टेड इन माइथोलॉजी. आई एम ओनली क्रेज़ी अबाउट म्यूजिक. लिटरली क्रेजी.”
“किस तरह का संगीत पसंद है.”
वह उन्हें एशिया, थर्ड वर्ल्ड जैसे नाम गिनाती है. इतना ही नहीं, यह भी समझाती है कि ये मुल्कों के नहीं, म्यूजिकल ग्रुप्स के नाम हैं. “मुझे रॉक बहुत पसंद है… आइ एम क्रेजी अबाउट दैट…” कैलाशपति वहाँ से उल्टे पैर लौट पड़ते हैं.
बस के रुकने पर उन्हें जोर का धक्का लगता है और वे एक युवती से टकरा जाते हैं. वह उन्हें जली-कटी सुनाती है. ‘डर्टी ओल्ड मैन’ कहकर धिक्कारती है. कैलाशपति बस स्टॉप से उतरकर काफी देर तक बस को देखते रह जाते हैं. वे अंदर तक विचलित होकर रह जाते हैं.
उधर लालाजी रमेश से पूछते हैं, “जवानी कहाँ और कैसे खर्च हो रही है.”
रमेश सकुचाते हुए कहता है, “पहले आप ये पक्का वायदा कीजिए कि, ये बात पिताजी को मालूम नहीं होनी चाहिए.”
“अमा क्या बात कर रहे हो. तुम्हारे पिताजी की बात, मैंने उनके पिताजी को नहीं बताई, तो तुम्हारी बात तुम्हारे पिताजी को कैसे बताऊँ. सवाल ही पैदा नहीं होता.”
रमेश कुछ परेशान सा लगता है. लालाजी पूछते हैं, “समस्या क्या है..”
रमेश हाले दर्द बयाँ करता है. फिर असल मुद्दे पर आ जाता है, “वह भी मुझसे प्यार करती है, कि नहीं, कैसे पता चले.”
लालाजी फौरन उसके फ्रेंड, फिलॉस्फर, गाइड की भूमिका में कूद पड़ते हैं. वे उसे सिचुएशन समझाते हुए कहते हैं, “फर्ज करो कि, शाम का वक्त है. सूरज ढल रहा है और आकाश के गालों में शर्म की लाली सी आ गई है, और हवा हजारों घुँघरुओं के पायल बाँधे धीरे-धीरे चल रही है, छम.. छम.. छम. और खुले दरीचों से…”
इस पर रमेश दरीचे का मतलब पूछता है, तो लाला जी बताते हैं, दरीचे माने खिड़कियाँ..
“तो खुले दरीचों से ताजा गुलाबों की महक आ रही है, और इस शाम के धुँधलके में तुम और वो…”
फिर उसे कंफर्म करने के लिए कहते हैं, “फर्ज कर ली ये सारी बातें…”
नायिका को जकड़ने की बात को लेकर जब रमेश सकुचाने लगता है, तो लाला जी कहते हैं,
“अमा जकड़ोगे नहीं, तो झुकके तस्लीम करोगे…”
लाला जी से ज्ञान पाकर रमेश, रमोला के घर में हाजिर हो जाता है. रमोला अपनी फुलवारी सींच रही होती है. वह एकांत में बड़ा खूबसूरत गाना गाती है- “फूलों तुम्हें पता है.. मन क्यों खिला-खिला है.. मेरा भी दिल.. किसी से ना कहना..”
यह गीत फिल्म का शीर्षक गीत है. तत्पश्चात रमेश लाला जी की बताई हुई सिचुएशन रमोला के सामने रख देता है, याने वह उसे बिल्कुल नौसिखिए तरीके से प्रपोज करता है. दृश्य खासा रोचक है. सीखे-सिखाए तोता मार्का व्यवहार से यह दृश्य दर्शकों को खासा प्रभावित करता है.
लाला जी की नसीहत को दुरुस्त पाते हुए, रमेश उछलकर कहता है “यानी तीर ऐन निशाने पर लगा है.”
यह निष्कर्ष भी वह लालाजी के वक्तव्य से उधार लेता है.
कैलाशपति, बहू की खोज में एड़ी- चोटी का जोर लगाए रहते हैं. कन्या के घर का दृश्य दिखाई पड़ता है. उसकी माँ कहती है, “कैलाशपति जी तुमको साड़ी में देखना पसंद करेंगे.”
वह माँ को दो टूक जवाब देती है. फिर ड्रेन पाइप से ऊपर पहुँचे प्रेमी को बताती है, ‘देखो मैं उसकी क्या हालत बनाती हूँ.‘
कैलाशपति लाठी टेकते हुए ड्राइंग रुम तक पहुँचते हैं. माँ, बेटी को पुकारती है, तो ‘मॉम’ शब्द का उद्घोष सुनते ही कैलाशपति के कान खड़े हो जाते हैं. चौकन्ने होकर आँखें चमकाना उनका सिग्नेचर स्टाइल था, जो दर्शकों को खूब भाता था. तो कन्या उनके सामने हाजिर होती है. उसका कुछ ज्यादा ही स्पष्टवादी बर्ताव देखकर, कैलाशपति अचंभित होकर रह जाते हैं.
वे वहाँ से घर पहुँचते ही रमेश को अल्टीमेटम दे देते हैं, “बहुत सोच- समझकर मैंने तय किया है कि, तुम्हारे लिए मैं अपनी सभ्यता और संस्कृति को जानने वाली लड़की लाऊँगा, जो बड़े-बूढ़ों का सम्मान करना जानती हो, मगर… मगर जिसे अंग्रेजी का एक लफ्ज़ भी ना मालूम हो.”
“तुम्हें कोई एतराज तो नहीं.” फिर उसे फरमान सुनाते हुए कहते हैं, “तुम अपनी मर्जी से शादी करते हो, तो मैं इस घर में नहीं रहूँगा.”
रमेश धर्मसंकट में फँस जाता है. वह फौरन लाला जी की शरण में जा पहुँचता है. वे पोशीदा मामलों में राय देने के एवज में रमेश से सिगरेट वसूलते हैं. चिंताजनक मुद्रा ओढ़कर कहते हैं, “समस्या बड़ी गंभीर है. ऐसी लड़की शहर में तो मिलने से रही. ऐसी लड़की तो गाँव में ही मिलेगी.”
यह संभावना सोचते ही रमेश के होश गुम हो जाते हैं.
फिर लालाजी, रमा और उसके मामा जी के बारे में जानकारी हासिल करते हैं. उनके बारे में जानकर वे कहते हैं, “मामा-भानजी, बस दो ही हैं. छोटा परिवार, सुखी परिवार.”
वे भावी कार्यक्रम की भूमिका बनाना शुरू कर देते हैं. वे मामाजी का हुलिया सोचते हुए कहते हैं, “उनके बदन पर नामावली, नकली बाल, चुटिया और चुटिया पर गेंदे का फूल.”
रमेश के आश्चर्य जताने पर लालाजी कहते हैं, “अरे मेरे गाँव में रहने वाले पंडित जी.”
संक्षेप में वे रमा को अपने गाँव के पंडिज्जी की भानजी के रूप में ‘इम्पर्सनेट’ करने की योजना बनाते हैं.
उधर कैलाशपति अपने बुजुर्ग दोस्तों के साथ ज्वलंत समस्या यानी बहू की खोज पर विचार करते हुए नजर आते हैं. वे लड़की खोजते- खोजते परेशान हो चुके हैं. कहते हैं, “बंबई शहर में ऐसी कोई लड़की नहीं, जिसने स्कूल फाइनल न पास किया हो.”
उनके मन में ऐसी बहू की कामना है, जिसे संस्कृति का पूरा ज्ञान हो. उन्हें तो बस बहू चाहिए, अंग्रेजी की डिग्री नहीं.
इधर लाला जी और रमेश, रमोला के मामा के घर पर आ धमकते हैं. लालाजी उन्हें कन्वींस करते हुए कहते हैं, “कैलाशपति त्रिवेदी है, तो आप चतुर्वेदी बन जाइए.”
इस प्रस्ताव पर मामा संकोच करते हैं. रमोला तो नैतिक सवाल ही खड़ा कर देती है. लालाजी, ‘एव्रीथिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर’ का तर्क देते हैं. वे व्यावहारिक नीति स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, इसमे कोई हर्ज नहीं. वे मामा जी का नामकरण करते हुए कहते हैं, “आप हैं, पंडित राम प्रसाद चतुर्वेदी.”
इस पर मामा सवाल खड़ा करते हैं, “लेकिन पंडित को तो संस्कृत बोलना चाहिए. मुझे संस्कृत बिल्कुल आती नहीं.”
इस समस्या का फौरी समाधान देते हुए लाला जी कहते हैं, “तो आप बहरे बन जाइए, मगर अंग्रेजी मत बोलना.”
आदतवश मामा कह बैठते हैं, “नेवर, नेवर.” फिर ताकीद याद आते ही बोल बैठते हैं, “सॉरी! सॉरी.”
वे इस योजना पर नैतिक सवाल खड़ा करते हैं, “ऐसा करना क्या ठीक होगा.”
रमोला भी चिंतित हो जाती है. वह लालाजी से पूछती है, “क्या ये झूठ का सहारा लेना ठीक है.”
लाला जी दोनों को किसी तरह कन्वींस कर लेते हैं.
फिर रमोला को भावी भेंट के लिए तैयार करते हुए सवाल पूछते हैं, “संजय के बारे में क्या जानती हो.”
वह प्रतिप्रश्न करती है, “कौन संजय! संजय गांधी या संजय दत्त.”
हालांकि यहाँ पर लालाजी का आशय महाभारत के संजय उवाच वाले संजय से रहता है.
“कौरवों की बहन और बहनोई का नाम क्या था.”
वह चौंकते हुए पूछती है, “कौरवों की कोई बहन भी थी क्या.”
लाला जी अगला सवाल पूछते हैं, “जब पांडव महाप्रस्थान के रास्ते पर थे, तो द्रौपदी क्यों गिर गई थी.”
वह अनुमान लगाते हुए जवाब देती है, “फिसल गई होगी. वे तो पहाड़ी रास्ते पर चल रहे थे ना.”
ऐसे जवाब सुनकर लाला जी परेशान हो जाते हैं.
फिर समाधान निकालते हुए कहते हैं, “मैं तुम्हें सात सवाल और उनके जवाब दे देता हूँ. उन्हें रट लेना, तोते की तरह.”
इस योजना पर रमेश को आशंका होती है, “पिताजी ने आठवाँ सवाल पूछ लिया तो. इमरजेंसी बताकर तो आती नहीं.”
लालाजी उसे टोक देते हैं. कहते हैं, “मुझे इमरजेंसी शब्द पसंद नहीं आया. संकट कहो! संकट.” कैलाशपति दोस्तों के साथ उसी समस्या से जूझ रहे होते हैं. वे इस बात को लेकर व्यथित हैं कि ‘लड़कियाँ पैदा तो हो रही हैं, लेकिन उनकी आत्मा मेड इन इंग्लैंड है.‘
यह सुनते ही लाला जी कहते हैं “अमा कैलाशपति, ये कहो न कि, तुम्हें रमेश के लिए रमा चाहिए.”
“कौन रमा?”
“अरे, अपने चतुर्वेदी जी की भानजी. सारा महाभारत रटा हुआ है. अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं जानती.”
ऐसे गुण सुनकर कैलाशपति को यकायक यकीन नहीं होता. वे आश्चर्य से एक नहीं, बल्कि दो-दो बार चौंकते हैं. फिर उतावली में लाला जी के पास जाकर जिज्ञासा जाहिर करते हैं, “क्या मैं इस लड़की को देख सकता हूँ.”
वे अभी जाने की जिद करते हैं, तो लाला जी कहते हैं “गाँव के लिए एक ही ट्रेन जाती है, वो भी सुबह.”
बहू को देखने के लिए की गई यात्रा का दृश्य अद्भुत है. संस्कृति प्रेमी व्यक्ति इस हद तक समझौता कर सकता है, यह मनोविज्ञान इस दृश्य में खूबसूरती से दिखाया गया है. दोनों बैलगाड़ी में बैठे हुए नजर आते हैं. धचके खाते हुए. लालाजी और कैलाशपति पगडण्डी पर बैलगाड़ी में उछल रहे होते हैं. पहिए के नीचे बड़े-बड़े पत्थर आते हैं. उछलने से पहले ही दोनों उछलने की भंगिमा बना लेते हैं. कैलाशपति लाला जी को दूसरी नजरों से देखने लगते हैं, तो लालाजी कहते हैं, “तुम मुझे क्यों घूर रहे हो. ये सड़के मैंने थोड़ी ही बनाई है.”
तभी जोर का धक्का खाते हुए कैलाशपति कराहते हुए कहते हैं, “अंजर-पंजर ढीला हो गया.”
लालाजी इस यात्रा का औचित्य स्थापित करते हुए कहते हैं, “पंडित, स्वर्ग और देसी बहू के यहाँ जाने वाली सड़कें ऐसी ही होती हैं.”
एक जोरदार धक्का खाते ही कैलाशपति बैलगाड़ी रोक लेते हैं और जिद करते हैं कि, अब मैं पैदल ही चलूँगा.
लाला जी कोचवान से गुजारिश करते हैं, “मियाँ गाड़ी वाले, जरा बैलों से कहना कि, बुरा ना मानें. हमारे पीछे-पीछे चलें.”
उधर रमा उन सात सवालों के जवाब स्कूली बच्चों की तरह रट रही होती है.
वे नदी-नाले पार करते हैं. जूते उतारकर लकड़ी की बल्लियों से बनी हुई पुलिया को पार करते हैं. पुलिया पार करने का दृश्य इतना लाजवाब है कि, कैलाशपति के अभिनय को देखकर दर्शक उछल पड़ते हैं. वे वास्तविक रूप से घबराए हुए से लगते हैं. तभी तो गोविंद हरे… राखो शरण… भजन बुदबुदाते हुए पुलिया को पार करते हैं. उस पर तुर्रा यह कि बीच पुलिया में उनकी धोती फँस जाती है. वहाँ से उतरकर वे घुटने-घुटने पानी में नदी को पार करते हैं.
रमेश, रमा का मददगार बना हुआ है. वह पूरनमल हलवाई की दुकान से कचौड़ियाँ और गुलाब जामुन लाकर उसे थमा देता है. इस छद्म अभिनय पर कुढते हुए रमा कहती है, “मुझे तो चाय और अंडे उबालने के सिवा कुछ भी नहीं आता.”
जब रमेश पूछता है मामा जी कहाँ है, तो वह बताती है कि, “वे धोती की लाँग बाँधने की प्रैक्टिस कर रहे हैं.”
तभी दरवाजे पर उनके पहुँचने की खबर आती है. रमेश, रमोला को यह याद दिलाना नहीं भूलता, कि पैर धोना मत भूलना. दोनों अतिथि आँगन में हाजिर होते हैं. रमोला उनके पैर धोने के लिए जाती है, तो कैलाशपति कहते हैं, “हमारे पैर कीचड़ से सने हुए हैं.”
इस पर रमा उनका सत्कार करते हुए कहती है, “तो क्या हुआ. अतिथि के पाँव तो भगवान के पाँव होते हैं. मैं अभी साफ किए देती हूँ.”
ऐसा मर्मस्पर्शी जवाब सुनकर कैलाशपति दूसरे ही भाव लोक में पहुँच जाते हैं. वह गमछा लेने के लिए अंदर दौड़ लगाती है, तो कैलाशपति मौका देखकर लाला जी से पूछते हैं, “लाला भगवान अभी भी ऐसी लड़की बनाते हैं.”
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में यह संवाद गोलमाल में भी आया है और नरम-गरम मे भी. यह राही मासूम रजा की कलम का कमाल था कि, वे फिल्म को दर्शकों के ज्यादा करीब ले जाते हैं. मँझे हुए लेखक की यही खूबी होती है, वे दर्शकों के हृदय को स्पर्श करना बखूबी जानते हैं.
लड़की के गुणवान होने का श्रेय किसको जाता है, बताते हुए लालाजी कहते हैं, “इसमें कुछ भगवान का हाथ है. कुछ उसके माता-पिता का और कुछ उस सरकार का, जो आस-पास अंग्रेजी स्कूल खोलना भूल गई.”
जब वह लाला जी के पैर पोंछ रही होती है, उस समय कैलाशपति हाथ में पानी से भरा लोटा लिए रहते हैं.
ऐसी सेवा-सुश्रूषा करने वाली लड़की को देखकर वे होश खो बैठते हैं. पानी की धार पैर के बजाय जमीन पर गिराते हुए नजर आते हैं.
लालाजी चतुर्वेदी जी से पूछते हैं, “तार मिल गया था.”
चतुर्वेदी जी बहरे होने का घनघोर अभिनय करते हुए कहते हैं, “अचार तो रमोला बेटी घर में ही बना लेती है.”
प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्. लाला जी कैलाश पति को इंगित करते हुए बताते हैं, “चतुर्वेदी जी, बिल्कुल बहरे हैं.”
वे पंडित जी से कहते हैं, “कैलाशपति जी पधारे हैं.”
तो मामा बज्र बहरे बनकर कहते हैं, “अहोभाग्य हमारे, विलास पति जी हमारे घर पधारे.”
लालाजी स्पष्ट करने के लिए हाथों से कैलाश पर्वत बनाते हुए कहते हैं, “हिमालय वाले कैलाश, कैलाश.”
तो मामा नहले पर दहला मारते हुए कहते हैं, “उपवास, आप हमारे घर पधारे है. ये कैसे हो सकता है.”
वे अगवानी करते हुए कहते हैं, “आइए-आइए, बिलासपतिजी.”
लालाजी कहते हैं, “फिर विलासपति.”
कैलाशपति कन्या के गुणों पर इतने मुग्ध हैं कि, उन्हें आज सब कुछ गवारा हो जाता है, “कहने दो, कहने दो. ये जितना कम बोले, उतना ठीक है.”
रमोला, अतिथियों को कचौड़ी, गुलाब जामुन पेश करती है. कैलाशपति जीमते हुए कहते हैं,
“इतनी अच्छी कचौरियाँ तो पूरणमल हलवाई भी नहीं बना सकता.”
फिर वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि इसके हाथ की बनी हुई कचौड़ी खाने के लिए भगवान मुझे लंबी उम्र दे.
लालाजी कैलाशपति को उकसाते हैं, “पूछो ना बच्ची से सवाल.”
जैसे ही कैलाशपति सवाल पूछना शुरू कर करते हैं, “बेटी क्या तुम ये बता सकती हो…”
तभी लालाजी बीच में कूद पड़ते हैं, “संजय कौन थे.”
रमोला रटा-रटाया जवाब झोंक देती है, “संजय, रणभूमि में धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाते थे. श्रीमद्भगवत गीता संजय उवाच से शुरू होती है.”
ऐसा जवाब सुनकर कैलाशपति भावविभोर हो जाते हैं, “वाह वाह, क्या पवित्र त्रिवेणी के जल से धुली भाषा बोलती है.”
कैलाशपति, दूसरा सवाल पूछने की भूमिका बना रहे होते हैं, तभी लालाजी झट से सवाल दाग
देते हैं, “कौरवों की बहन और बहनोई का क्या नाम था.”
रमा तत्परता से जवाब देती है, “दुःशीला और जयद्रथ.”
इस बार कैलाशपति सवाल पूछने की ठान लेते हैं. वे अपने हाथों लाला का मुँह बंद करते हुए सवाल पूछते हैं, “महाप्रस्थान के समय नकुल क्यों गिर गए थे.”
इस प्रश्न पर लाचारी जताते हुए वह जवाब देती है, “द्रौपदी क्यों गिर गई थी, ये तो बता सकती हूँ. नकुल क्यों गिरे ये मैं नहीं जानती.”
कचौड़ी का लुत्फ उठाते हुए कैलाशपति डिक्लेअर कर देते हैं, “लाला रिश्ता पक्का.”
लाला रंग जमाने के लिए कहते हैं, “अब कुछ भजन हो जाए बेटी.”
कैलाशपति चौंकते हुए कहते हैं, “अच्छा गाना भी गाती है.”
लाला उसकी प्रशंसा के स्वर में कहते हैं, “ऐसा गाती है कि, सीधे वृंदावन पहुँचाएगी.”
वह ‘ढूँढे यशोदा चहुँओर…’ भजन गाती हैं.
शीघ्र ही यह विवाह संपन्न हो जाता है. अपने गुणशील और सेवा से वह शीघ्र ही ससुर का हृदय जीत लेती है.
कैलाश पति स्वर्गीय पत्नी के चित्र को एकटक देख रहे होते हैं. तभी बहू दूध लेकर आती है. वे बहू से कहते हैं, “सास का आशीर्वाद ले ले बेटी. इस घर की लाज अब तेरे साथ में है. कभी झूठ का सहारा मत लेना. सदा सुखी रहो बेटी.”
वहाँ से निकलकर वह रुआँसी हो जाती है. वह पति से कहती है, “अब ये सब नहीं सहा जाता मुझसे. मेरी बर्दाश्त के बाहर हो गया है. हर रोज, हर पल मेरी आत्मा मुझे कोसती है. कब तक ये पाप का बोझ उठाऊँगी. मैं इतने भरोसे के लायक नहीं रही.”
रमेश उसे विश्वास दिलाता है. समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. तुम अपनी सेवा और लगन से उनका मन जीत लोगी.
कैलाशपति बहू को मायके भेजना चाहते हैं. कहते हैं, “शादी के बाद बहू को मायका याद आता होगा. पंडित जी से दो-चार दिन हँस-बोल लेगी. उनका भी मन प्रसन्न हो जाएगा. मैंने पंचांग देख लिया है.”
नव दंपत्ति हैरत में पड़कर रह जाता है. दुल्हन पति से कहती है, “ उस बीहड़ गाँव में फिर से जाना पड़ेगा?”
रमेश समाधान देते हुए कहता है, “किसी स्टेशन पे उतर जायेंगे. होटल में दो-चार दिन रहके लौट आएंगे.”
उधर मामा को रमोला की याद आती है. वे सेवक से कहते हैं, “जब से रम्मू बिटिया ससुराल गई है, ये घर काटने को दौड़ता है.” फिर बिटिया की ससुराल कैसे जाएँ का प्रश्न, उठ खड़ा होता है. इस पर सेवक शास्त्रीय समाधान देता है, “भानजी के घर जाने में कोई हर्ज नहीं.”
जैसे ही रमेश- रमा विदा होते हैं, मामाजी पंडित के भेष में कैलाश पति घर पर हाजिर हो जाते हैं. उनके गाँव जाने की खबर जानकर वे फौरन वहाँ से निकलना चाहते हैं, लेकिन कैलाश पति उन्हें जबरन रोक लेते हैं और योजना बनाते हैं कि, “हम दोनों अचानक गाँव पहुँचकर उन दोनों को चौंका देंगे.”
उधर दंपत्ति, रेलवे स्टेशन पर उतरकर किसी नामचीन होटल को खोजते हैं. जब रमेश ताँगेवाले को पाँच रुपया देता है, तो रमा कहती है, ये तो बहुत ज्यादा है. इस पर रमेश कहता है, “पाँच रुपया सन सत्तर के सत्तर पैसों से ज्यादा नहीं है.”
होटल का साइनेज पढ़कर रमा कहती है, “ये तो हनुमान होटल है.”
रमेश इस कलाकारी को लक्षित कर लेता है, “ई को मिटाकर और ऊ को बदलकर हनुमान होटल कर दिया गया है.”
वह होटल मैनेजर (युनूस परवेज) को अपना और रमा का नाम बदलकर बताता है, तो मैनेजर पति के त्रिवेदी और पत्नी के भोंसले होने पर संदेह जताता है. इस पर रमेश उसे होटल के नाम- परिवर्तन का तर्क देकर चुप करा देता है.
होटल मैनेजर को पक्का यकीन है कि, यह जोड़ा भागकर आया है. वह चुपके से थाने में शिकायत कर देता है. थानेदार तफ्तीश के लिए आता है, संयोगवश वह रमेश का दोस्त निकलता है.
उधर कैलाशपति और मामा की बैलगाड़ी रास्ते में खराब हो जाती है. मामा के छद्म बहरेपन से कैलाशपति लाचार नजर आते हैं. चिड़चिड़े तो वे पहले से ही हैं. मामा के बहरेपन से खिन्न होकर वे प्रकट में कहते हैं, “अगर बहू का मामा नहीं होता, तो जान से मार डाला डालता.”
रमेश-रमा को लालाजी का संदेश मिल जाता है. वे पिताजी से पहले गाँव पहुँचने के लिए थानेदार से लिफ्ट लेते हैं.
उधर रास्ते में कैलाशपति उसी जीप को रोकने की कोशिश करते हैं. दंपत्ति सिर झुकाकर, बमुश्किल छुपते हैं.
थानेदार वापसी में आकर उन्हें भी लिफ्ट देता है. जैसे ही कैलाशपति घर के आँगन में पहुँचते हैं, सुलक्षणा बहू को देखकर परम प्रसन्न हो उठते हैं. रमा सिर पर पल्लू ओढ़े हुए नजर आती है. कैलाशपति के मुख से बरबस ही निकल पड़ता है, “यह दृश्य देखकर रास्ते का सारा कष्ट मिट गया.”
थानेदार जल्दी में है. वह बताता है कि, “कोई लड़का मिनिस्टर की एमए पास लड़की को लेकर भाग गया, वो भी अंग्रेजी में एमए.”
यह खबर सुनकर कैलाशपति की भावनाएँ भड़क उठती हैं. वे फौरन अपना निष्कर्ष थानेदार को बताते हैं, “तब तो लड़के ने लड़की को नहीं भगाया होगा. लड़की ने लड़के को भगाया होगा.”
वे थानेदार को खास हिदायत देना नहीं भूलते, “अगर दोनों मिल जाएँ, तो लड़के को छोड़ देना, मगर अंग्रेजी में एम. ए. लड़की को हरगिज़ मत छोड़ना.”
कैलाश पति के घर पर ससुर-बहू-संवाद अच्छे-खासे फलसफाना अंदाज में होता है. बहू ससुर का मन टटोलते हुए कहती है, “पिताजी, अगर मैं अंग्रेजी जानती होती, तो क्या आप तब भी मुझे ऐसा ही स्नेह करते.”
कैलाशपति समझ बैठते हैं कि, अंग्रेजी पढ़ी-लिखी ना होने के कारण बहू के मन में कोई हीन भावना ना आ जाए, इसलिए तर्क देकर कहते हैं, “शंकराचार्य, तुलसीदास, कबीर, नानक, मीर और ग़ालिब ने अंग्रेजी नहीं पढी थी, तो क्या वे अनपढ़ थे.”
वे भाषा के मामले में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते हैं, “कोई भी भाषा बुरी नहीं होती. दुनिया की हर भाषा गंगा की तरह पवित्र है.” लेकिन उन्हें इस बात का मलाल रहता है कि, अंग्रेजी भाषा केवल कुसंस्कारों को ही नहीं, वरन् सारे संस्कारों को तोड़ रही है.”
रमोला अपने कमरे में टाइम मैगजीन पढ़ रही होती है. मैगजीन की कवर स्टोरी एसिड रेन पर है. ससुर दबे पाँव उसके कक्ष में पहुँच जाते हैं, यह जानने कि आखिर वह अंग्रेजी मैगजीन कैसे पढ़ सकती है. सामने पड़ते ही वह स्थिति संभालते हुए कहती है, “मैं तो घड़ी का चित्र देख रही थी.”
कैलाश पति के जाने पर वह लंबी साँस लेती है. लाला जी की ट्रिक के मुताबिक, रमेश पुणे ट्रांसफर करवा लेता है. श्वसुर-सेवा, पति-सेवा के विमर्श के बाद ससुर के आदेश पर रमा वहाँ जाने को राजी होती है.
पुणे में रमा फिर से अपनी व्यथा कहती है, “मुझे एक ही दुख खाए जाता है. देवता जैसे पिता से झूठ बोलती हूँ.”
तभी बाहर टैक्सी आकर रुकती है और कैलाशपति घर पर आ टपकते हैं. वे मामा को बाथरूम में छुपा देते हैं.
कैलाश पति को सीने में दर्द की शिकायत होती है. कार्डियक इंसफिशिएंसी की बात वे बहू को बताते हैं, लेकिन ये भी यह जता देते हैं कि तुम अंग्रेजी कहाँ जानती हो.
उसका सेवा-भाव देखकर कैलाशपति एकांत में कहते हैं, “पिछले जन्म में यह जरूर मेरी माँ रही होगी.”
कैलाशपति को गंभीर रूप से हृदयाघात होता है. यहाँ पर रमोला का अंतर्द्वंद उभरता है. वह घर की बहू ही नहीं, एक डॉक्टर भी है. उसका प्रोफेशनलिज्म प्रकट होकर बोलता है. वह सब कुछ दाँव पर लगाकर ससुर को लाइफ सेविंग ड्रग्स का इंजेक्शन दे देती है. उनकी जान तो बच जाती है, लेकिन कैलाशपति उससे मुँह मोड़ लेते हैं. वे कहते है कि वे झूठे को कभी माफ नहीं करते. झूठ का सहारा लेने वाले से कोई रिश्ता नहीं रखते और उसके हाथ का पानी तक नहीं पीते. एक तरह से वे बहू को घर से निकाल देते हैं. बहू घर छोड़ने की तैयारी करती है. काफी मार्मिक दृश्य है.
लालाजी कैलाशपति को आड़े हाथों लेते हैं, “लानत है, उस सच पर, जो हँसते- खेलते घर को उजाड़ दे. पढ़ी-लिखी लड़कियों के बारे में तुम जो सोचते थे, क्या वो झूठ नहीं था. जब तुम्हारी जान पर बन आई, तो उसने असलियत जाहिर कर दी, ये जानते हुए भी कि, ऐसा करने से उसका बना-बनाया घर उजड़ जाएगा.”
फिल्म का सुखांत समापन होता है.
उत्पल दत्त अपने सिग्नेचर स्टाइल में नजर आए. सईद जाफरी पूरी फिल्म में छाए रहे. वे पीढ़ी-अंतराल को पाटने वाले एक बुजुर्ग के रूप में दिखाई देते हैं. एसएन बनर्जी, फिल्म में बिल्कुल नेचुरल से लगे. राही मासूम रजा के लिखे संवाद, इतने जीवंत और चुटीले हैं कि, फिल्म की गति अंत तक भी मंद नहीं होने पाती.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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