उनके बड़े भाई बताते थे कि आभास को बचपन में बड़ी बुरी चोट लग गयी थी पैर में.घाव से बेइंतहा दर्द हुआ. तीन चार दिन तक वो मुसलसल रोते ही रहे. मौजिज़ा कहिए या जो आप चाहें मगर इसका नतीजा ये हुआ कि बच्चे की आवाज़ खुल गयी और ऐसी खुली कि एक दिन दुनिया पे यूँ छा गयी कि उनके गानों की तो छोड़िए उनकी ली हुई बेहद सीधा आलाप भी लोगों के ज़हन से आज तक नहीं उतरा. शुरुआती दौर में कुन्दन लाल सहगल की कॉपी करते करते फ़िल्म आशा और न्यू दिल्ली फ़िल्म में सचिन दा की हिदायत पे उन्होंने अपनी आवाज़ ढूँढ ली.वो फ़िल्मों में हीरो भी बन गए थे मगर अपने लिए ही गाते थे. अपने अलावा बस देव आनंद के लिए गाया था और कई साल तक बस ये ही करते रहे. आभास को हम सब किशोर कुमार के नाम से जानते हैं. वो जो एक बेहद अच्छे एक्टर, डायरेक्टर, प्रोडूसर, राइटर, लिरिक्सट और सिंगर बने और करोड़ों दिलों पे छा गए.
शुरुआती दौर में हर जगह वो ख़ारिज कर दिए गए. ये तकलीफ़ उन्हें कभी भूली नहीं और शायद इसी तकलीफ़ ने उनसे फ़िल्म गायिकी में एक अनोखा अध्याय लिखने के लिए प्रेरणा दी.
दीवाने थे वो क़सम से. जब कोई फ़िल्म नहीं करनी होती थी तो प्रोडूसर से अजीब शर्त रखते थे. मसलन एक प्रोडूसर को उन्होंने कहा कि धोती कुर्ता पहन के और तिलक चावल लगा के हम दोनों दो कश्ती पे एक-एक पैर रख के खड़े होंगे तब कॉन्ट्रैक्ट साइन करूँगा. लोग कहते थे या समझते थे कि वो पागल हैं मगर शायद इस दिखावटी पागलपन के बातिन उनकी कभी न ख़त्म होने वाली तन्हाई थी. इस परदे के पीछे एक अकेला इंसान था जो बहुत चोटिल था. उसे दुनिया ने बड़ा सताया था और कामयाब होने के बाद भी वो ये भूल नहीं सके थे. मज़ाक़िया चेहरे के पीछे असली किशोर तो बेहद संजीदा इंसान थे मगर वो अपने आप को दुनिया से छुपा के रखते थे. ‘दूर गगन को छांव में’ या ‘दूर का राही’ जैसी फ़िल्में कोई संजीदा आदमी ही बना सकता है.
आप लोग ताज्जुब करेंगे कि उनके लिए रफ़ी साहब ने प्लेबैक दिया है. किशोर दा एक्टिंग के साथ कोई आठ दस गाने साल में गा लेते थे मगर सिर्फ़ ख़ुद के लिए और देव साहब के लिए. फिर जब उनकी फ़िल्में फ्लॉप होने लगी तो उन्हें लगा कि अब तो गाना ही पड़ेगा. ज़िंदगी ने ऐसा मजबूर किया उन्हें कि वो जो असल में बनने आए थे वो बने. तब तक एक गायक की हैसियत से वो अपनी ख़ास पहचान नहीं बना पाए थे. शायद ये झिझक होगी उन्हें कि वो एक ट्रेंड सिंगर नहीं हैं या न जाने क्या बात होगी मगर एक झिझक तो थी. बर्मन दा ऐसे वक़्त उनकी मदद को आए. बर्मन दा ने उनसे एक लगभग न्यूकमर एक्टर के गाने गाने के लिए कहा. वो गाने जो इस फ़िल्म में उन्होंने गाए, वो न्यूकमर, अनसेटल्ड एक्टर और वो फ़िल्म इतिहास में दर्ज हो गयी.
फ़िल्म थी आराधना और वो मुस्कुराता हुआ न्यूकमर था राजेश खन्ना. इस फ़िल्म से किशोर दा प्लेबैक की दुनिया में बक़ायदा स्टेब्लिश हुए और राजेश खन्ना सुपर स्टार हो गए. वो दौर कि जिसमें 90% गाने रफ़ी साहब गाते थे, वो किशोर दा की तरफ़ मुड़ चला. एक बार एक बहस छिड़ गयी थी किसी मैगज़ीन में कि किशोर अच्छे हैं या रफ़ी. दोनों तरफ़ से लैटर टू एडिटर लिखे जाने लगे. एक आध एडिसन बाद एक ख़त छपा जो किशोर दा ने ख़ुद लिखा और उसमें ये कहा था कि ये बहस बंद कीजिए. उन्होंने कहा वो रफ़ी जैसे अच्छे नहीं और एक फ़िहरिस्त पेश की रफ़ी साहब के गानों की और कहा कि वो रफ़ी साहब के ये गाने कभी गा ही नहीं सकते. इतनी इज़्ज़त वो रफ़ी साहब की करते थे.
उनके बारे में लिखने के लिए एक उम्र कम है. मेरी उनसे मुलाक़ात लखनऊ के उस घर में हुई जहाँ मेरा बचपन बीता. बाथरूम के बग़ल में एक गैलरी थी जिसकी दूसरी जानिब वर्मा अंकल का घर था और उनकी बैठक के रेडियो में किशोर दा के बजने वाले गानों ने हमसे उनका तआर्रुफ़ करवाया. बस फिर उनको सुन-सुन के या कभी उनके साथ हम भी नहाते वक़्त या बर्तन धोते हुए गाने लगे. उनके गाने उनकी आवाज़ इससे अच्छा मुझे कुछ लगता नहीं म्यूजिक की दुनिया में.
उनके तमाम गानों के साथ ये गाना मुझे बेहद पसंद है
“पंथी हूँ मैं उस पथ का
अंत नहीं जिसका
आस मेरी है जिसकी दिशा
आधार मेरे मन का”
–रणवीर सिंह चौहान
5 जून 1970 को देहरादून में चकराता तहसील के कुवानू गांव में जन्मे रणवीर सिंह चौहान की संगीत में विशेष रुचि है. संगीत से उनके गहरे लगाव की झलक उनके लेखन में भी झलकती है. उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रणवीर सिंह चौहान वर्तमान में अपर सचिव परिवहन, प्रबंध निदेशक उत्तराखंड परिवहन निगम, अपार सचिव भाषा, निदेशक भाषा संस्थान एवं सचिव हिंदी अकादमी के पद पर तैनात हैं. भाषा के धनी रणवीर के बेहतरीन लेख काफल ट्री में नियमित प्रकाशित होते रहेंगे.
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