उत्तराखंड के पहाड़ वैसे तो जड़ी-बूटी और पेड़ों से पटे हुए हैं परंतु देवदार के पेड़ों की शान ही निराली है. अगर आप देवदार के जंगलों में पहुंच जाएंगे तो यह पेड़ शीतलता और सुगंध से आपका स्वागत करता है, थकान मिटाने के साथ साथ अद्भुत शांति भी प्रदान करता है.
देवदार का वैज्ञानिक नाम सैंडरस डियोडारा है. यह 6000 से 8000 फुट की ऊंचाई पर मिलता है. इसे कश्मीरी के लोग दिआर और हिमाचल वाले कैलोन कह कर बुलाते हैं. ये अपनी बनावट मे शंकुधारी होते हैं . गोलाकार और ऊपर से नुकीले, इनके पत्ते लंबे और थोड़ा सा गोलाई लिए होते हैं. देवदार के पेड 50से लेकर 80 मीटर तक ऊंचे होते हैं और पत्तियां 2.5 से 8 सेंटीमीटर लंबी.
वृक्ष उत्तराखंड का हो और औषधीय न हो ऐसा कैसे हो सकता है. इसका उपयोग डायबिटीज को कंट्रोल करनेवाले अपनी दवाएं मे तरीक़े-तरीक़े से करते है. देवदार की छाल पतली और हरी होती है जो बाद मे भूरी हो जाती है फिर इसमें दरारें पड़ जाती हैं. गढ़वाल के गाँवों लोग इसे पीस कर माथे पर इसका लेपन करते हैं और कठिन से कठिन सिरदर्द छूमंतर हो जाता है. इसके तेल की दो बूंद नाक में डाल और कान में डालने से भी दर्द में राहत मिलती हैं. पेट में होने वाले अल्सर मे भी इसका प्रयोग किया जाता है.
देवदार के पेड़ की उम्र दो सौ साल तक की होती है, इसकी लकड़ी हल्की खुशबूदार और बेहद मजबूत होती है. इसका प्रयोग इमारती लकड़ी के तौर पर भी होता रहा है. पहाड़ी इलाकों में इसकी लकड़ी के छोटे-छोटे मंदिर, जो कि स्थानीय बढ़इयों द्वारा बनाये जाते हैं, घरों में पूजा के स्थान पर रखे जाते हैं. घर भर इसकी सुगंध से महक उठता है. इसकी लकड़ी आम आदमी को आसानी से हासिल नहीं हो पाती थी अतः भवन निर्माण में इसका प्रयोग मंदिरों में और महलों में ही अधिकतर देखने को मिलता है. मजबूती खुशबू और खूबसूरत दिखने के कारण पुराने जमाने के रसूखदार लोगों ने इसे बहुतायत में प्रयोग किया.
हल्द्वानी के रहने वाले नरेन्द्र कार्की हाल-फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.
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Nice information sir, Thanks