खुदेड़ गीत उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल में बसंत के मौके पर गाये जाने वाले गीत हैं. यह गीत नवविवाहिताओं के द्वारा गाये जाते हैं. इसमें मायके जाकर माता-पिता एवं भाई-बहनों से मिलने की आकुलता के भाव की अभिव्यक्ति हुआ करती है. यह गीत ख़ास तौर पर उन बहुओं द्वारा गाया जाता है जिनके मायके में बुलाने वाला कोई नहीं होता या फिर परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि वे मायके नहीं जा पातीं. ऐसी नववधुएं पहाड़ों-जंगलों में अपने रोजमर्रा के कामों को निपटाते हुए अकेले ही या फिर अपनी सहेलियों के साथ खुदेड़ गीत गाती हैं. इन गीतों का स्वर बहुत करुण होता है.
बताया जाता है कि इन गीतों की निष्पत्ति आत्मा की खुद (क्षुधा) से हुई है. किसी अपने की स्मृति की क्षुधा को अभिव्यक्त करने वाले गीत खुदेड़ कहे जाते हैं. आत्मा की क्षुधा को स्मृतियों द्वारा हासिल कर लेने की मार्मिक भावव्यंजना का नाम ही खुदेड़ है. इसमें अपने प्रियजनों की क्षुधा (खुद) मिटाने के साथ ही अपने घर (मायके,) नदी, पहाड़, जंगल, पशु-पक्षी और पेड़ पौधों की भी यादें शामिल होती हैं.
खुदेड़ गीत भाव प्रधान होने के साथ ही नृत्य गीत भी हैं. इनमें नृत्य के माध्यम से भावाभिनय भी किया जाता है. खुदेड़ गीत मंद लय व गति के विलंबित गीत हुआ करते हैं. इनकी पदरचना बाजूबन्द (जोड़ों) के रूप में की जाती है. बाजूबन्द गीतों की विषयवस्तु प्रियजन के वियोग में डूबे श्रृंगार रस हुआ करता है. लेकिन खुदेड़ गीतों का लक्ष्य मायके की याद और माता-पिता, भाई-बहन, सखी-सहेलियों से मिलने की आकुलता होती है. इन गीतों में महिलाएं पहाड़, बादल, फूल, वनस्पति व हवाओं को अपना संदेशवाहक मानकर अपनी माँ से मायके बुलाने का अनुरोध करती है. कुमाऊनी लोकगीतों में सामाजिक चित्रण भाग-1
निम्न गीत में माँ को बुलावा भेजने का अनुरोध करती हुई बेटी कहती है—
गौड़ी देली दूद बवै, गौड़ी देली दूद,
मेरी जिकुड़ी लगी बवै, तेरी खूद.
काखड़ी को रैतू बवै, काखड़ी को रैतू,
मैं खुद लागी बवै, तू बुलाई मैतू.
सूपा भरी दैण बवै, सूपा भरी दैण,
आग भभराली बवै भै जी भेजी लैण.
झंगोरा की बाल बवै, झंगोरा की बाल,
मैत को बाटो देखी बवै, आंखी ह्वैन लाल.
बचपन की स्मृतियों को संजोकर रखने वाले मायके को देख पाने के लिए बैचैन वधू ऊँचे पहाड़ों और चीढ़ के पेड़ों से अपनी ऊंचाई कम करने का अनुरोध करती हुई कहती है—
ऊँची-ऊँची डाड् तुम नीची ह्वे जाओ,
घैणी कुलायो तुम छांटी जाओ.
मैकी लगी च खुद मैतुड़ा की,
बाबा जी को देश देखण देवा.
वह घुघुती पक्षी से अनुरोध करती है—
पाणी का पनेरा में घुघुती घुरांदी,
बोई तेरी खुद मेरी जिकुड़ी झुरांदी.
जा प्यारी घुघुती जा तू म्यारा मैत देश,
मेरी बोई से लीजा तू मेरा संदेश.
बसंत आगमन पर चहकने वाले पहाड़ी पक्षी कपुवा (कफू) से वह कहती है—
बासलो कफू मेरो मैत्यूं का देश,
कफू बासलो म्येरा मैत्यू का तिर.
कफू बासलो नई रीत (ऋतु) बौड़ली (आएगी)
कफू बासलो मेरी बोई (माँ) सुणली,
मैंकू कलेऊ भेजली,
जा मेरा कफू बास म्यरा मैतका चौक,
मेरा मैती सुणला ऊ खुद लागली,
जौड़ी जौसडयो बाटुली (हिचकी) लागली.
बसंत आ चुका है लेकिन न तो वह मायके जा सकती है और न ही उसे कोई बुलाने के लिए ही आया है. मायके की याद से व्याकुल होकर वह कहती है—
आई गैन रितु बौड़ी, राई जसो फेरो,
फूली गैन बणू बीच ग्वीराल बुरांश.
गौंकी नौनीस्ये गीत वासंती बुरांश.
जैकि बवे होली मैतुड़ा बुलाली.
मेरी जिकुड़ी मा ल्वे कुएड़ी सी लौंकी.
कुमाऊनी लोकगीतों में सामाजिक चित्रण भाग – 2
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष: डी.डी. शर्मा के आधार पर)
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हमारी सस्कृति हमारी पहचान है इसका मुझे और मेरे पहाड़ी मित्रो को गर्व है और जिन्होंने काफल ट्री बनाया है उनका मै दिल से आभार और सम्मान करता हू