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(Khatima Goli Kand Interview)
उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान 1 सितम्बर 1994 को जिला उधमसिंह नगर के ग्राम सबौरा, पो. गोझरिया पट्टिया, तहसील खटीमा की बसन्ती चंद को दोनों पाँवों में गोली लगी थी. उस घटना के विषय में जानने के लिए 29 अक्टूबर 2011 को बसन्ती पाठक, पुष्पा दानू, दीपा बिष्ट और उमा भट्ट ने उनके घर में उनसे बातचीत की. उनके पति धनपत चंद तथा बेटी नर्वदा और संजना भी इस बातचीत में शामिल हुईं.
दीदी, सबसे पहले तो यह बताइये कि आपका जन्म कहाँ हुआ?
हम लोग पिथौरागढ़ जिले के चनौली गाँव (अस्कोट के निकट) के हुए. बचपन में वहीं रहते थे. मेरे पिता का नाम श्री भवानी चंद और माँ का नाम काली देवी था. हम दो ही भाई-बहन थे. छोटा भाई महावीर मुझसे पाँच साल छोटा है. मेरी ससुराल भी चनौली में ही है. मायके और ससुराल में आधा किमी. की दूरी है.
आपने बचपन में पढ़ाई भी की?
जब छोटी थी, तब एक-डेढ़ साल तक स्कूल गई थी. वह समय भी ऐसा ही था. स्कूल भी दूर था. साथ की लड़कियाँ भी एक नहीं गयी तो दूसरी भी नहीं गयी; सब खेलने-कूदने में ही रह गये. जब मेरे चाचा का बेटा पैदा हुआ तो उसकी देखभाल के लिए मेरा स्कूल छुड़ा दिया. फिर घर में ही रही. हमारा संयुक्त परिवार था. चाचा, ताऊ आदि सब साथ ही रहते थे. जब मेरा भाई नौ महीने का था, तब मेरी माँ की मृत्यु हो गई थी. तब दादी ने उसको पाला. जब वह ढाई वर्ष का था तब दादी की भी मृत्यु हो गई.
खेती–पाती खूब थी?
हाँ, खूब खेती-पाती थी. बचपन से ही हम काम करने लगते थे. लकड़ी काटना, घास काटना, गुड़ाई करना, गाय-भैंस चराना सभी काम हुए.
शादी कब हुई?
चौदह साल की उम्र में मेरी शादी हुई. तब हम चनौली में ही रहते थे. पति फौज में थे.
यहाँ कब आए आप लोग?
यहाँ आए हुए हमको छब्बीस साल हो गये हैं.
(Khatima Goli Kand Interview)
बच्चे कितने हैं?
हमारी सात बेटियाँ हैं. सभी की अब शादी हो गई है.
लड़कियों को पढ़ाया आपने?
दो बड़ी लड़कियों ने हाईस्कूल तक पढ़ाई की. उनकी शादी जल्दी कर दी थी. फिर जमाई ने कहा, अब क्या पढ़ना है. बाकी लड़कियों ने बी.ए. तक पढ़ाई की है. शादी के बाद भी इन्होंने पढ़ाई की.
यहाँ भी आपकी खेती–पाती है?
हाँ, खेती-पाती, गाय-भैंस सभी कुछ है. यह गाँव ही हुआ. पति के रिटायर होने से पहले ही हम यहाँ आ गए थे. मेरे पिताजी भी मेरे साथ यहीं रहते थे. तीन साल पहले उनकी मृत्यु हो गई है.
(Khatima Goli Kand Interview)
उत्तराखण्ड आन्दोलन में आप लोग गए. उत्तराखण्ड का क्या मतलब है, अलग राज्य बनने से क्या होगा, क्यों बनना चाहिए, इसकी आपको कोई जानकारी थी?
मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं थी. न ही मैं किसी आन्दोलन या बैठक में गयी थी. चलो-चलो कह रहे हैं, इसलिए चले गए. हम तो पढ़े-लिखे भी नहीं थे, सब गँवाड़ी थे. सब जा रहे हैं तो हम भी देख आते हैं.
इस गाँव के लड़के भी थे जेल में?
नहीं, यहाँ के नहीं थे.
जुलूस में जाने के लिए आप लोगों से किसने कहा?
इसी गाँव के के.सी. चंद थे, वे सब जगह जाते थे. उन्होंने कहा चलने के लिए.
क्या कहा उन्होंने?
कहा कि आजकल हमारे बच्चों को स्कूलों में एडमिशन नहीं दे रहे हैं. बच्चों ने हल्ला-गुल्ला किया तो सबको हल्द्वानी जेल में बन्द कर रखा है. बच्चों को जेल से छुड़ाने के लिए ज्यादा-से ज्यादा जनता इकट्ठी करनी है. पहले भी खटीमा में जुलूस निकले थे पर तब हम लोग नहीं गये. पर आज बहुत बड़ा जुलूस निकालना है, इसलिए हम भी गए. हम लोग सुबह ही गाँव से चले गये थे. दस बजे जुलूस निकला. बहुत बड़ा जुलूस था. अपने गाँव से हम पन्द्रह-बीस महिलाएँ गयीं. मर्द भी जो घरों में थे, गए.
(Khatima Goli Kand Interview)
लड़कियाँ नहीं गयीं?
नहीं, औरतें और मर्द गए. मर्द कम थे औरतें ज्यादा.
पैदल ही गए?
हाँ, यहाँ से तो झनकट तक पैदल ही गए. कह रहे थे कि लेने के लिए ट्रक आयेंगे. पर ट्रक नहीं आये तो हम पैदल गए. झनकट में हम लोगों ने एक ट्रक रुकवाया और उसमें बैठकर खटीमा तक गए.
कहाँ पर गए?
खटीमा तहसील में गए. वहाँ से जुलूस निकालकर चौराहे तक आये. किच्छा जाने वाली सड़क पर लाल चौराहा कहते हैं, वहाँ से फिर वापस तहसील तक गए. पर चौराहे से ही मारपीट होने लग गयी थी. आदमी भागने लग गए थे. पथराव भी होने लगा. पुलिस वाले फायर करने लगे. गाड़ियों में आग लगने लगी.
किसने किया यह सब?
यह तो हमें पता ही नहीं चला. कौन होगा, किसने किया यही सोचते रहे. हमें पहले से भी कुछ जानकारी नहीं थी. हम तो पहली बार गए थे. हम तो गाँव के लोग हुए. सरकारी चीजों में क्या होता है, यह भी हमें पता नहीं था. जिसको जहाँ को रास्ता मिला, सब भाग गये. कोई नाले की ओर गया, कोई गधेरे की ओर और कोई खेतों की ओर. पुलिस थाने के पास ही डिग्री कॉलेज है. हमारे गाँव की कुछ औरतें वहाँ छिप गयीं. वहाँ वालों ने भी डरा दिया कि तुम यहाँ क्यों छिप रहे हो, यह तो हमारे लिए भी खतरा हो जायेगा. खिड़की से उनको बाहर निकालकर धान के खेतों में भगा दिया.
(Khatima Goli Kand Interview)
आपके गाँव की महिलाएँ कहाँ गयीं?
मेरी देवरानी-जेठानी साथ में थीं पर हम सब अलग-अलग हो गए. कोई कहीं भागा, कोई कहीं. मैं अपने पति के साथ थी. चार औरतें और थी हमारे साथ- गोमती देवी, हीरा देवी, रेवती देवी और आशा देवी. हम एक जगह छिपकर बैठ गए. मेरे पति ने फौज में यह सब देखा ठहरा. उन्होंने हमसे कहा, कहाँ भाग रहे हो. ये हवाई फायर कर रहे होंगे. यहीं पर बैठ जाते हैं. बहुत तेज धूप लग रही थी. वहाँ पर एक पेड़ था, हम वहीं पर जमीन में बैठ गए. एक मास्साब भी थे- ईश्वरी चंद, वे भी हमारे साथ आ गए.
यह कहाँ पर की बात है?
तहसील में जो पेड़ है वहीं पर. पुलिस वालों ने इन दो मर्दों को मारते हैं करके गोली चलाई होगी. औरतों पर थोड़े ही मार रहे होंगे. मैंने उन्हें देखा, दीवार के उधर से उन्होंने गोली चलाई. एक पुलिसवाले ने ऐसे (इशारा करते हुए) मुझे देखा, ऐसा मैंने देखा. मुझे गोली लगी तो उसके बाद क्या हुआ, मुझे पता नहीं. मैं वहीं पर गिर गई. बेहोश तो मैं उस समय नहीं हुई थी. जब तक मुझे पुलिस थाने पहुँचाया गया तब तक मैं होश में थी (बसन्ती चंद ने बताया कि कैसे बाईं जाँघ पर पहले गोली लगी. उससे पार होकर दाईं जाँघ में गोली घुसी और उससे भी पार निकल गई). इन लोगों ने कहा अस्पताल ले जाते हैं. चार महिलाएँ थीं. इन्होंने मुझे साइकिल पर बिठाया. साइकिल पर बिठाकर मुझे पकड़कर अस्पताल को ले जाने लगे तो पुलिसवालों ने देख लिया. उन्होंने इन सबकी डंडों से पिटाई कर दी और मुझे दोनों पैरों से पकड़कर घसीटकर थाने ले गए. पहले बरामदे में डाल दिया, फिर हम पाँचों औरतों को एक कमरे में बंद कर दिया. औरतों को भी डंडे मारे थे पुलिस ने.
अस्पताल नहीं ले गए?
नहीं, पहले थाने ले गए. थाने पहुँचकर मेरी आँखें बंद हो गईं. मैं सबकी बातें सुनती तो थी पर आँखें खोल नहीं पाती थी. दस दिन तक मेरी आँखें यूँ ही बंद रहीं. बहुत खून बह गया था. पता नहीं, फिर क्या-क्या हुआ. इन लोगों ने बाद में बताया कि अस्पताल की गाड़ी आई थी. तब अस्पताल ले गये. वहाँ उन्होंने ग्लूकोज चढ़ाया. घाव में पट्टी भरी और फिर पीलीभीत ले गए.
साथ की महिलाएँ कहाँ गयी?
थाने के पुलिसवालों ने उनसे कहा कि बाद में तुमको और परेशान करेंगे. तुम अपने नाम लिखा दो और घर को चले जाओ. इन्हें हम अस्पताल भेज देंगे. कोई पहाड़ी पुलिसवाला था. ये लोग छिपकर घर को चले गए. रेवती देवी के पति लक्ष्मण पाल को भी गोली लगी थी. कंजाबाग का एक लड़का था, उसकी आँख में गोली लगी थी. कितने ही थे वहाँ थाने में. गोली बाहर की पुलिस (पी.ए.सी.) ने मारी थी. अस्पताल यहाँ की पुलिस ने पहुँचाया. पीलीभीत से फिर मुझे बरेली भेजा गया.
(Khatima Goli Kand Interview)
घर का कोई सदस्य साथ में था?
नहीं-नहीं, कोई नहीं था. बाद में रात तक भागते-दौड़ते लोग गाँव में पहुँचने लगे. तब हमारी बेटियों को पता चला. पहले जिला अस्पताल में ले गए. वहाँ सब नेता लोग आ गए. कांग्रेस पार्टी के भी आए.
और घायलों को भी वहाँ लाए?
हाँ, और भी बहुत लोग लाए गए. दूसरे दिन सुबह मेरे दो देवर और एक भतीजा सितारगंज, किच्छा से जैसे-तैसे निकलकर बरेली पहुँच गए. मेरे पति फौजी हुए तो इनके मिलिट्री अस्पताल के लिए कागजात बने हुए थे. उनको कागजात नहीं मिले. तब मैंने बताया कि कहाँ रखे हैं. तब एक देवर फिर घर आए. घर से इनके सरकारी कागजात ले गए तब बड़ी मुश्किल से सेना की गाड़ी आई और फिर मुझे मिलिट्री अस्पताल में भर्ती किया गया.
वहाँ इलाज हुआ आपका?
हाँ, जिला अस्पताल वालों ने घाव सिल दिया था. लेकिन सैनिक अस्पताल में फिर से घाव खोल दिया गया. घाव की सफाई की पर सिला नहीं. उन्होंने कहा, एक सप्ताह तक देखेंगे. घाव भीतर से भरने लगेगा तो फिर सिलेंगे नहीं. यदि मांस नहीं बनेगा तो सिलना पडे़गा. घाव की सफाई करते थे तो मैं सिस्टर से कहती थी, मुझे बेहोश कर दो पर वे कहती थीं क्या बेहोश करें तुमको, वैसे ही बेहोश पड़ी हो. बेहोश करके तो होश में नहीं आ पाओगी. एक हफ्ते बाद बड़े डाक्टर आये देखने. उन्होंने कहा, इसमें मांस बनने लग गया है. सफाई करते रहो और दवा लगाते रहो. सिलने की जरूरत नहीं है. एक महीना पूरा मैं वहाँ रही.
घर से कोई रहा आपके साथ?
देवर लोग दो-तीन दिन रहे. बाद में उन्होंने कहा किसी बच्ची को बुलाओ. वह तुम्हारी सहायता करेगी. दस दिन बाद मेरी बेटी नर्वदा आयी. उसे भी वहाँ भर्ती कर दिया तो बैड और राशन मिलने लगा. यह मुझे खिलाती-पिलाती थी, चलाती थी. डॉक्टर हाथ पकड़कर चलाओ कहते थे. हड्डी या नस में चोट नहीं थी लेकिन मैं चलने में थक जाती थी.
(Khatima Goli Kand Interview)
घाव ठीक होने पर ही छुट्टी मिली?
नहीं, पहले ही खटीमा आ गई थी. खटीमा में भी सरकारी डॉक्टर इस ओर ड्यूटी पर कहीं आते-जाते थे तो रास्ते में मेरी पट्टी बदलकर दवा लगा जाते थे. लगभग एक महीने तक ऐसा चला. फिर हम खुद ही पट्टी कर लेते थे.
चलने कब से लगीं?
छ: महीने तक तो बिल्कुल नहीं चल पाई फिर धीरे-धीरे चलना शुरू किया. पूरी तरह ठीक होने में मुझे साल भर लग गया था. बैठ नहीं पाती थी. कुर्सी में ही बैठ पाती थी. शौच और नहाने-धोने में बड़ी परेशानी होती थी.
घर के काम काज का भी हर्जा हुआ होगा?
लड़कियाँ थीं घर में. ये घर का काम भी करती थीं और स्कूल भी जाती थीं.
आपको अपने पति की खोज-खबर कैसे मिली?
जब मुझे गोली लगी और ये लोग साइकिल में मुझे ले जा रहे थे तो पुलिस इनको रायफल के कुन्दे से पीट-पीटकर ले जा रही थी, यह मैंने देखा. बाद में मैंने सोचा, अब ये जिन्दा कहाँ होंगे. उन्होंने सोचा कि मैं उसी समय बेहोश हो गई थी, उतना खून बह रहा था, अब कहाँ होगी जिन्दा. एक ने एक का भरोसा छोड़ दिया, एक ने एक का. पाँचवें दिन मेरे देवर गये तो अस्पताल में लिस्ट टंगी थी कि इस-इस नाम के व्यक्ति बनारस में जेल में हैं तो उन्होंने कहा, हमारे भाई का नाम भी इसमें है. तब पता लगा कि जिन्दा हैं. फिर मेरे भाई के ससुर और हमारे समधी बनारस जाकर उनसे मिल आये. मेरी खबर भी पति को दे आये. फिर बरेली आकर मुझे उनकी सूचना दी. तब दोनों को एक-दूसरे के जिन्दा होने की खबर मिली. चौबीस दिन में ये जेल से छूटे. पच्चीसवें दिन मिलने के लिए बरेली आये.
(Khatima Goli Kand Interview)
यह बेटी कितनी छोटी थी तब?
यह छोटी संजना तो चार साल की थी. नर्वदा कक्षा चार में पढ़ती थी.
आपके बिना रह गयी यह?
रहना पड़ा, कैसे नहीं रहती. जिन्दा थे तो आ जायेंगे, इस आशा में रह गये. मर जाते तब चिन्ता थी. उन दिनों देवर भी साथ में ही थे और मेरी सास भी जिन्दा थी.
1 सितम्बर से पहले भी ऐसा कोई बड़ा जुलूस निकला था?
शायद नहीं. उस दिन भी किसने सोचा कि ऐसा होगा. उसके बाद तो लोग बहुत डर गये. पुलिस को बयान देने में भी घबरा रहे थे. कई औरतों ने अपने बयान में यह भी कहा कि हम तो अपने काम से जा रहे थे.
आपके भी बयान हुए?
हाँ, लौटने के बाद हुए. खटीमा से आगे मझौला एक जगह है, वहाँ सी.बी.आई. ने बयान लिये. घर ही में रिक्शा लाये. रिक्शे में बैठकर गयी और आई. हम दोनों साथ गए. मुझको उन दिनों बहुत हिचकियाँ आती थीं. ठीक से बैठ भी नहीं पाती थी. बैठने में दर्द होता था. उन दिनों बहुत तेज दवाइयाँ खानी पड़ती थी तो सीबीआई वालों ने कहा, आप कुछ-कुछ बातें बताओ बाकी आपके पति बता देंगे. उन दिनों ऐसी भी बातें चली कि जो लोग घायल हैं उनको दोबारा हल्द्वानी की जेल में डालेंगे. पुलिस वाले आये, बयान ले गये, वे ही कह गये कि सबको हल्द्वानी जेल ले जायेंगे. बाद में जब हाईकोर्ट का फैसला आ गया, तब यह बात आई कि अब किसी को कुछ नहीं होगा.
आपको अभी तक तकलीफ है?
हाँ, उठने-बैठने में अभी भी दर्द होता है. अब मैं ज्यादा काम नहीं कर पाती. घाव पर हाथ लगाने में अभी भी दर्द होता है.
राज्य आन्दोलनकारियों को जो सुविधाएँ मिल रही हैं, उसमें आप लोगों को कुछ मिला?
कार्ड मिला है, आन्दोलनकारी होने का. मेरे पति को तीन हजार रुपया प्रतिमाह पेंशन मिल रही है पर मुझे अभी तक नहीं मिली. मुझे र्आिथक सहायता भी नहीं मिली. पति को हाईकोर्ट के फैसले के बाद पचास हजार रुपया मिल गया था.
(Khatima Goli Kand Interview)
आपको क्यों नहीं मिला?
शुरू में कह रहे थे कि उस दिन अस्पताल में जो-जो लोग घायल पड़े थे, उन 72 लोगों की सूची अलग बनी है. उसमें मेरा भी नाम था. कइयों को उनमें से अभी तक कार्ड भी नहीं मिला है. 16 व्यक्तियों को, जो जेल में थे सुना कि अठारह हजार प्रति व्यक्ति मिला है. फिर एक सूची हम पाँच महिलाओं की थी जिसमें पहला नाम मेरा था; ऐसा भी मैंने सुना. उनमें से भी गोमती देवी और हीरा देवी को तीन हजार रुपया प्रतिमाह मिलने लग गया है पर मुझे अभी तक कुछ नहीं मिला. जेल जाने वालों में से आठ-दस आदमियों को पैसा मिला है. जिन्हें चोट लगी थी, उन्हें भी पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये मिले ऐसा कह रहे थे. पर हम दोनों को नहीं मिला. हमारी ओर से कोई ठीक से पूछताछ करने वाला भी नहीं हुआ.
आपके पति को भी मार पड़ने से तकलीफ थी?
हाँ, बहुत बाद तक भी तकलीफ थी. जेल में डॉक्टर ने गोलियाँ दे दी थीं. बहुत दिन तक तो ठीक से चल नहीं पाते थे. हाथ-पाँव टेक कर चलते थे. जगह-जगह शरीर में नील पड़ी थी. जेल से घर आकर दवाएँ खाई, इंजेक्शन लगाए और मालिश की तब धीरे-धीरे ठीक हो गए.
आप ऐसा सोचती हैं कि राज्य बनने से हमें कुछ फायदा हुआ?
क्यों नहीं, अलग राज्य बनने से सुविधाएँ तो बढ़ी ही हैं. हमें कोई व्यक्तिगत फायदा होगा, इसके लिए तो हम जुलूस में नहीं गए थे. वैसे हम इतना जानने-सुनने वाले भी नहीं हुए कि क्या फायदा हुआ, क्या नहीं.
(Khatima Goli Kand Interview)
उत्तरा महिला पत्रिका से साभार.
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