पिछले सात दिनों से यहां हूं खुद के साथ. उत्तराखंड के इस स्वर्गिक स्थान के बारे में एक साल पहले ही पता चला – मुन्नी देवी भास्कर से. जिन्हें हम भास्कर मैम कहते हैं. उत्तराखंड मुझे अपना दूसरा मायका लगता है. शायद इसके ही एक स्थान देहरादून में पढ़ने के कारण. यहां आने को एक साल से बेचैन थी और आखिर आ ही गई अपने इस चिर अभिलषित एकांत में.
(Kalimath Travelogue by Smita Vajpayee)
काली मंदिर के पीछे, ऊपर की ओर कमरा मिला है एक जुगाड़ू रसोई के साथ. तीन कमरे हैं कतार से. जिनमें सिर्फ मैं हूं बीच वाले कमरे में और कोई नहीं है. पतला सा बरामदा और वहां से दिखते पहाड़. ऊपर की ओर नजर करो तो उस पर बसा गांव ब्यूखी. एक सड़क, जो कबीठा गाँव जाती है. जिसे कवि कालीदास का गाँव बताते हैं स्थानीय लोग. जहाँ कालीदास मंदिर भी है. पहाड़ और मेरे कमरे, बरामदे और एक घर के बीच में एक नदी है पतली सी. जिसे कोई काली तो कोई सरस्वती कहता है. जो केदारनाथ के बगल से निकली बताई जाती है. बता दूँ कि केदारनाथ यहाँ से सत्तावन किलोमीटर ऊपर है.
कुछ खेत दिखते हैं. खूब सारे पेड़, उन पर खूब सारी चिड़ियाँ और अपने पूरे जोश खरोश के साथ बहती नदी. सुबह होती है नदी के प्रवाहमय संगीत, चिड़ियों की आवाज और मंदिर के घंटों के साथ. कमरा बंद करने के बाद भी नदी का संगीत (जो हर प्रहर में अलग-अलग लगता है) सुनाई देता रहता है!
(Kalimath Travelogue by Smita Vajpayee)
आठ बजे के करीब अगर मौसम बढ़िया है तो बरामदे में धूप आती है. गुनगुनी धूप में स्वेटर डाले शॉल लपेटे इस अप्रैल के महीने में बैठना बहुत ही सुखद लगता है. सुबह की कॉफ़ी ले कर बैठी हूं धूप में. मेरे साथ है गाती उछलती, नाचती सी नदी. ढेर सारी चिड़ियाँ कुछ बंदर.
कॉफी पीते हुए नदी , चिड़िया को सुनना मेरे इस एकांत का ऐश्वर्य है. यहां कोई नहीं आता कोई भी नहीं. बस मैं हूँ खुद के साथ, सिर्फ मैं. यहाँ मौसम तेजी से बदलता है. तेज धूप, कभी तेज हवाएं, कभी हल्की, कभी तेज बारिश तो कभी बहुत ज्यादा ठंड. इस बदलते मौसम से अब तालमेल हो गया है मेरा.
आज यहां आए चौथा दिन है. रात के साढ़े तीन बज रहे हैं. नींद नहीं आ रही है. बाहर हवा में रात की आवाजें हैं, जो कभी नदी के साथ तो कभी उससे अलग सुनाई दे रही हैं. रह-रहकर बदल रही है नदी की आवाज. कुछ आवाज यहाँ की नहीं है. वह कहीं दूर से आ रही है. जैसे पिछले किसी जनम से… जैसे किसी अतीत से उठती हुई आवाज़… पुकारती हुई सी… व्याकुल सी… बुलाती हुई आवाज…
चार बजे तो जगना ही है, सोचते हुए बिस्तर छोड़ देती हूं. फ्रेश होकर ब्रश करती हूं और कपड़े बदल कर नीचे उतरती हूँ. वही खड़ी, संकरी गुफा नुमा सीढियां. गली में अंधेरा है. मोबाइल का टॉर्च जला कर गली, फिर मंदिर और फिर दुकानें पार कर घंटियों वाले पुल की ओर से नीचे उतरती हूं नदी के पास जाने के लिए. नीचे नदी के किनारे कोई बल्ब नहीं है. ऊपर मंदिर के किनारे के बल्ब से ही नीचे भी रोशनी है. हवा में बहुत ठंड है. नदी के किनारे आते-आते तो अब काँप रही हूँ. मैंने सूती चुन्नी से कान माथा बांध रखा है. शॉल को और भी कस के लपेटती हूं. नदी की ओर बढ़ते हुए एक लंबी आकृति दिखाई देती है मुझसे थोड़ी दूर पर. उसे गौर से देख पाती कि लाइट चली जाती है. अंधकार, पूरा मंदिर परिसर, पूरा कालीमठ, सारे पहाड़, नदी सब एकदम काले.
(Kalimath Travelogue by Smita Vajpayee)
एकाएक नदी की आवाज बहुत तेज लगी कि जैसे ऊंचे स्वर में ॐ गूँज रहा हो. थोड़ी देर में आंखें अंधेरे की अभ्यस्त हुईं कि सामने वाले पहाड़ के ब्यूखि गांव में लाइट आ गई. वह काली लंबी आकृति मेरी ओर आ रही है. मैंने उसे ध्यान से देखा. पास आने पर स्पष्ट हुआ कोई महिला है. और पास आई तो हमारे ऊपर के बल्ब भी जल गये .
कोई विदेशी महिला हैं. उसने अपना हाथ बढ़ाया. मैंने बिना कुछ कहे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया. अब हम दोनों साथ खड़े थे. उसका चेहरा भी भीगा हुआ था. मैं कांप रही थी. उसका हाथ भी मेरे हाथ में थरथरा रहा था.
हम खड़े रहे वहां ऐसे ही चुपचाप. नदी ओंकार के साथ हमारे किनारे से बह रही थी. कुछ देर बाद वह जोर-जोर से रोने लगी. रोते-रोते लिपट गयी. जिससे लिपटी उसे भी रोना आ गया. नदी की आवाज में, उसकी गति में, उसके जल में, यह रुदन बहता रहा.
(Kalimath Travelogue by Smita Vajpayee)
थोड़ी देर बाद दोनों ऊपर थीं. नदी के बर्फीले पानी से चेहरे का खारापन धो कर. मंदिर के पास दोनों ने हाथ जोड़े. सर झुकाया और अपने-अपने ठिकानों पर लौट गयीं. पांचवे दिन की शाम को आरती में दिखी वह स्कॉटलैंड की महिला. मुस्कानें…
आरती के बाद फिर एक जगह बैठ के नाम, पता, सोशल अकाउंट सब साझा हुए. उसे ‘इंडियन वुमन’ का डेयरिंग होना ताज्जुब में डाल रहा था और उससे भी ज्यादा ये कि रात में नदी के किनारे वूमन ने उसे कैसे जान लिया. संभाल लिया. इंडियन वूमन ने उसे बताया कि वह (विदेशी महिला) खुद भी तो बहुत साहसी है. और भला डरने की क्या बात है यहां! उसको समझना, उसके दुख को समझना मुश्किल है ही नहीं.
“कैसे??”
क्योंकि हम सब मनुष्य हैं! हम सब एक जैसे ही तो हैं! हमारे सुख-दुख एक जैसे हैं! समझना कोई मुश्किल नहीं. उसे एक मामूली इंडियन वूमेन बहुत पावरफुल और स्प्रिचुअल लगी. वह शांति ढूंढ रही है.
“और तुम?”
” खुद को!”
इस उत्तर पर वह चौंकी और साधारण भारतीय महिला उसके चेहरे को देख कर जोर से हँस पड़ी.
सुंदर वैभवशाली एकांत में उस दिन दो स्टील के गिलास में गर्म कॉफी थी. घर से लाया चिवड़ा था. और ढेर सारी हंसी के साथ प्यार था. भाषा अपने टूटे-फूटे रूप में भी कतई बाधक नहीं थी इस प्यार में. टूटी-फूटी इंग्लिश में उसके ‘कैसे जान लिया’ कौतुक को शांत किया गया निदा फाजली का शेर बताकर –
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार…
उसने बढ़कर हाथ थाम लिया. मुस्कुराते होठों के पास अनदेखे स्पर्श की लकीर झिलमिला रही थी. कॉफी से उठती भाप चेहरे और दृश्य को धुंधला कर रही थी, दिव्य भी!
या देवी सर्वभूतेषु माया रुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमःबिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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