एक समय ऐसा भी था, जब नैनीताल ही नहीं पूरे प्रदेश के विद्यालयों में कला बिष्ट के अनुशासन की मिसाल पेश की जाती. नैनीताल स्थित भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल के संस्थापक प्रताप भैया को यदि कला बिष्ट जैसी संस्थापक प्रधानाचार्य नहीं मिलती तो शायद विद्यालय आज यह मुकाम हासिल नहीं कर पाता. परिवार की परिवरिश में जिस तरह पिता व मां का बराबर का योगदान रहता है, ठीक इसी तरह भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय के शैशवकाल में जहां प्रताप भैय्या ने बाहरी झंझावातों से जूझकर पितातुल्य संरक्षण व मार्गदर्शन दिया, वहीं संस्थापक प्रधानाचार्या के रूप में कला बिष्ट ने अपनी घनी मातृत्व की छाया में इसके पालन-पोषण एवं संस्कारों को गढ़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. वर्तमान में विद्यालय में जिस कार्यसंस्कृति, परम्पराओं व मान्यताओं को देखा जा सकता है, उसके पीछे प्रताप भैया का निर्देशन व कला बिष्ट का कुशलता से उनका अनुपालन साफ झलकता है. विद्यालय में जाति विहीन समाज के निर्माण के लिए जहां छात्र व शिक्षकों को केवल ’पहले नाम’ से ही जाना जाता था, जाति सूचक नाम की सख्त मनाही थी. वहीं शिक्षक व शिक्षिकाऐं परस्पर दीदी और भैया के संबोधन से पुकारते, क्योंकि कला बिष्ट संस्था की संस्थापक प्रधानाचार्य थी, मुखिया होने के नाते उनके लिए ’’बड़ी दीदी’’ का संबोधन होता.
03 जुलाई 1937 को मुक्तेश्वर में जन्मी कला बिष्ट का प्रारंभिक जीवन भी शारीरिक संघर्षों से जूझते हुए गुजरा. पिता प्रताप सिंह नेगी, आईवीआरआई में अधिकारी थे. कला बिष्ट (तब कला नेगी) को धुड़सवारी का शौक था. स्कूली शिक्षा के दौरान ही एक बार घुड़सवारी के दौरान ही गम्भीर रूप से चोटिल हो गयी. चोट माथे की थी, कई महीनों तक उपचार चला. डाक्टरों ने परिजनों को सलाह दी कि सिर की चोट को देखते हुए इन्हें मानसिक कार्य से दूर ही रखा जाय. इसका मतलब था कि उन्हें पढ़ाई छोड़नी होगी. कला जी को यह मंजूर न था और उन्होंने कुछ समय के आराम के बाद पुनः पढ़ाई शुरू कर दी और अध्ययन को अबाध गति से जारी रखते हुए राजनीतिशास्त्र, इतिहास तथा समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर के साथ, उस समय शिक्षकों के लिए होने वाली बीटीसी की ट्रेनिंग भी पूरी कर ली.
सन् 1957 से 1962 तक उ0प्र0 विधान सभा में खटीमा विधानसभा क्षेत्र से प्रतिनिधित्व कर चुके प्रताप सिंह (जो बाद में प्रताप भैया के नाम से जाने जाते थे) ने 1962 के चीन आक्रमण के बाद सीमान्त क्षेत्र-लिपुलेख तक का भ्रमण किया. शहीद परिवारों के आश्रितों की शिक्षा- दीक्षा की समुचित व्यवस्था न होने से आहत होकर उन्होंने एक ऐसा विद्यालय खोलने का संकल्प लिया, जहां शहीद सैनिकों के बच्चे वीरपुत्र एवं वीरपुत्री तथा उनकी पत्नियां वीरपत्नी के रूप में शिक्षा ग्रहण कर स्वावलम्बी बन सकें. इस संकल्प को मूत्र्त रूप देने के लिए गोपाल दत्त बुढलाकोटी, गोपाल सिंह भण्डारी (उत्तर उजाला के संस्थापक) कैलाश चन्दोला एडवोकेट, मोहनसिंह बिष्ट आदि को साथ लेकर एक समिति बनायी गयी और 01 जुलाई 1964 से विद्यालय की शुरूआत करने का संकल्प लिया गया. संसाधनों का नितान्त अभाव था, समिति का पंजीकरण शुल्क जी. एस. भण्डारी जी ने स्वयं भरा. विद्यालय के पास न तो भवन था और नहीं भूमि.
जाहिर है कि ऐसे विद्यालय में अपनी सेवाएं देने का जोखिम उठाना भी आसान न था. संयोगवश इन सब चुनौतियों के बावजूद जब कला बिष्ट के सामने यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने हामी भर दी. प्रताप भैय्या की स्कूल के प्रति दीवानगी और कला बिष्ट की संकल्पशक्ति का मणिकांचन संयोग क्या हुआ मानो सारी बाधाऐं स्वतः दूर होती चली गयी. नवाब छत्तारी के भवन में एक कमरा भी किराये पर उपलब्ध हो गया (जिसमें वर्तमान में विवेकानन्द छात्रावास संचालित होता है,) एक मात्र छात्रा, कु. शान्ति (वर्तमान में पूर्व दर्जा मंत्री शान्ति मेहरा) का प्रवेश भी हो गया.
इस प्रकार एक कमरे व एक छात्र से श्रीमती कला बिष्ट ने अकेले ही विद्यालय की नींव खड़ी की. अपने अध्यवसाय, लगन व निष्ठा से अध्यापन कार्य के फलस्वरूप ज्यों-ज्यों छात्र संख्या बढ़ती गयी, शिक्षक व कर्मचारियों की संख्या में भी उसी अनुपात में बढ़ोत्तरी की गयी.शुरूआती दौर में इस विद्यालय में वे ही छात्र/छात्रा प्रवेश हेतु आते जिनको अन्यत्र कहीं प्रवेश नहीं मिल पाता अथवा वे छात्र होते जो दूसरे विद्यालय से अनुत्तीर्ण होकर यहां प्रवेश लेते. तब छात्रों को प्रवेश के लिए आमंत्रित करना हो अथवा घर-घर जाकर चन्दा वसूलना, कला बिष्ट तथा उनके सहयोगी, स्कूल समय के बाद मुहल्लों में घूमते और कभी कभी प्रताड़ना का भी दंश सहने को मिलता. लेकिन यदि इरादे नेक हों और मेहनत ईमानदारी से की गयी हो तो सफलता अवश्य मिलती है.
1966 में प्राइमरी, 1968 में जूनियर हाईस्कूल तथा 1973 में विद्यालय का स्तर हाईस्कूल तक पहुंच गया. कला बिष्ट के नेतृत्व और प्रताप भैया के मार्ग निर्देशन में अब विद्यालय की नगर में एक पहचान बन गयी. जहां 1965 तथा 1971 के सीमा युद्धों में शहीदों के आश्रितों को निःशुल्क छात्रावास, भोजन, परिधान तथा पठन-पाठन सामग्री की सुविधा मुहैय्या करायी जाने लगी. वर्ष 1979 में विद्यालय को इन्टर की मान्यता मिलने के साथ एक चुनौती भी खड़ी हुई. चुनौती ये थी कि उप्र शासन की नीति के अनुसार बालक विद्यालय में महिला प्रधानाचार्य नहीं हो सकती थी. जिनके अनथक प्रयासों के बूते आज विद्यालय जिस मुकाम पर पहुंचा था. नियम यह था कि बालक विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर महिला की नियुक्ति व पदोन्नति नहीं हो सकती थी. यह स्वयं कला बिष्ट के साथ ही विद्यालय के उज्जवल भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह था. जिनकी कर्मठता के बदौलत विद्यालय यहां तक पहुंचा था, भविष्य में यदि कोई नया प्रधानाचार्य आये तो जरूरी नहीं था, कि वह इतना समर्पित हो.
1967-68 के दौरान विद्यालय संस्थापक प्रताप भैया उप्र सरकार में एक प्रभावशाली कैबिनेट मंत्री रह चुके थे तथा शासन उनके अकाट्य तर्कों को नजरअन्दाज भी नहीं करता था. जब निदेशालय से इस तरह की आपत्ति हुई कि महिला होने के नाते कला बिष्ट इन्टर कालेज के प्रधानाचार्य के रूप में प्रोन्नत नहीं हो सकती, तो प्रताप भैया ने निदेशालय व शासन को तार्किक सवाल किया कि यदि देश की प्रधानमंत्री (उस समय श्रीमती इन्दिरा गान्धी प्रधानमंत्री थी) यदि महिला हो सकती हैं तो एक इन्टर कालेज की प्रधानाचार्य, महिला क्यों नही हो सकती. खैर – शासन व निदेशालय से लम्बी लड़ाई के बाद अन्ततः कला बिष्ट को इन्टर कालेज के प्रधानाचार्य के रूप में प्रोन्नति मिल ही गयी.
प्रधानाचार्य को एक अकादमिक प्रधान के साथ प्रशासक का दायित्व का निर्वहन भी करना होता है और प्रबन्धतंत्र और विद्यालय प्रशासन के बीच एक कड़ी के रूप में भी. जब विद्यालय में छात्रावास भी संचालित होता हो तो जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं, लेकिन यदि प्रशासक आत्मानुशासित हों तो अनुशासन थोपना नहीं पड़ता, वह अधीनस्थ के आचरण में शामिल हो जाता है. प्रशासन के गुर सीखने के लिए अन्य प्रशासकों की तरह उन्होंने कोई औपचारिक प्रशिक्षण तो नहीं लिया, लेकिन अच्छे-अच्छे प्रशासक उनकी प्रशासनिक क्षमता की दाद देते नहीं थकते थे. वे अपने संबोधन में अक्सर कहा करती, “जीभ ससुरी का क्या वह तो बोलकर मुंह के अन्दर चली जाती हैं, जूते तो चांद पर पड़ते हैं.’’ मितभाषिता का उनका यही गुण उन्हें एक कुशल प्रशासक के रूप में कामयाबी दिलाने की शायद एक वजह यह भी रही. उनके मन के अन्दर क्या चल रहा है, यह जानना किसी के बूते की बात नहीं थी. अपने अधीनस्थ स्टाफ को अनुशासित रखने की उनकी अपनी विचित्र कला थी. जब भी उन्हें लगता कि अधीनस्थ अपने विद्यालय के प्रति कर्तव्यों से विमुख हो रहा है, तो वे एक छोटी सी स्लिप पर एक लाइन लिखकर और उसे मोड़ने के बाद स्टेपल कर अपने वफादार कर्मचारी के हाथों संबंधित को भिजवा देती. गंगा सिंह तथा त्रिलोक सिंह जैसे कर्मचारियों से बात इतनी गोपनीय रहती कि जिस अधनीस्थ को स्लिप लिखी होती, बात उसी तक सीमित रहती. गलती करने वाला अधीनस्थ स्टाफ में अपमानित होने से तो बचता, लेकिन मन ही मन अपनी गलती पर अफसोस व्यक्त कर दोबारा ऐसी गल्ती देाहराने का दुस्साहस भी नहीं कर पाता. कभी-कभी किसी के गुमशुम रहने पर यह चर्चा आम हो जाती कि आज प्रधानाचार्य से उनको कोई स्लिप अवश्य मिली है.
परीक्षा केन्द्र के केन्द्र निदेशक के रूप कला बिष्ट का इतना खौफ था कि नकल तो दूर की बात, क्या मजाल कोई परीक्षार्थी अपने दायें-बाऐं झांकने का भी दुस्साहस कर सके. उस समय बोर्ड परीक्षा में स्वकेन्द्र व्यवस्था थी. अपने विद्यालय के छात्रों को तो परीक्षा में उस केन्द्र पर सम्मिलित होना ही होता था, लेकिन व्यक्तिगत् दूसरे विद्यालयों से पंजीकृत परीक्षार्थी होते. परीक्षार्थी बोर्ड परीक्षा का फार्म भरते समय काफी तहकीकात के बाद उस केन्द्र से ही पंजीकरण कराते, जहां से उनका परीक्षा केन्द्र भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में ना पड़े. विद्यालय पहाड़ी ढलान पर होने से एक बार बोर्ड परीक्षा के दौरान कुछ शरारती तत्वों ने विद्यालय के पीछे ऊपरी ढलान पर चढ़कर पथराव शुरू कर दिया और कला विष्ट अपनी जान की परवाह किये बिना पुलिस बल के साथ डटकर मुकाबला करते रही.
अकादमिक व प्रशासनिक कार्यों के अतिरिक्त विद्यालय की हर गतिविधि में उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित रहती. विद्यालय में आयोजित होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोकनृत्य, लोकगीतों तथा नाटकों के मंचन की तैयारी से लेकर छात्रावासी छात्रों के डायनिंग रूम में जाकर नियमित रूप से ममतामयी मां की तरह पुचकार कर स्वयं अपने हाथों खाना परोसना, बीमार छात्रावासी बच्चों की तिमारदारी, अपने निर्धारित वादनों के अध्यापन के बाद अनुपस्थित शिक्षकों की कक्षाओं में स्वयं अध्यापन, प्रार्थनासभा में नियमित उपस्थिति व नैतिक पाठ, रात्रि में छात्रावास का राउन्ड, इस नियमित दिनचर्या के बाद अपनी गृहस्थी का भार. इतनी व्यस्तता के बावजूद, वे एक सेवाभावी पत्नी व दो बच्चों की वात्सल्यमयी मां का दायित्व भी बखूबी निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती. यह इसलिए संभव हो पाता कि प्रशासनिक भवन के ही दूसरे कोने पर उनका आवास हुआ करता.
सुबह काम याद आते ही 7 बजे स्वयं आफिस खोल लेती और काम में जुट जाती. यह सिलसिला कभी रात के 9 बजे तक भी जारी रहता. विद्यालय के लिए तो वह समय निकाल ही लेती, लेकिन अपने व्यक्तिगत् कार्यों के लिए समय नहीं रहता. न खाने का नियमित समय और न नाश्ते का. कभी-कभी तो उनके पति बिष्ट जी को दिन के खाने के लिए कई-कई बार उन्हें बुलाने आना पड़ता. यहां तक कि ढंग से अपने कपड़े पहनने का तक उनका समय नहीं रहता. एक बार हुआ ये कि प्रार्थना सभा में जब वह पहुंची तो उनकी साड़ी का फॉल बाहर की ओर उल्टा लटका था. बाद में किसी शिक्षिका ने इस ओर उनका ध्यान दिलाया.
कला बिष्ट, एक प्रधानाचार्य होने के साथ-साथ ऐसी आदर्श शिक्षक थी कि विषय कितना भी गम्भीर हो, वह बहुत सरल तरीके और रोचक उदाहरणों के माध्यम से छात्रों को इस तरह समझाती थी कि उनकी बात हमेशा- हमेशा के लिए उनके जेहन में जगह बना लेती.उनकी वक्तृता शैली भी गजब की थी. सीमित शब्दों में सारगर्भित संबोधन. विद्यालय के समारोहों में अपने संबोधनों में वे अतिथियों को आश्वस्त करते हुए अक्सर कहा करती – “श्रीमन्! हम ये तो वादा नहीं कर सकते कि इस विद्यालय के सैंनिक सीमाओं पर जाकर देश की कितनी सुरक्षा कर पायेंगे, लेकिन इतना विश्वास आपको अवश्य दिलाते हैं कि इस विद्यालय के छात्र जीवन के जिस क्षेत्र में भी जायेंगे, उन्हें आसानी उन्हें उनके कर्तव्यपथ से कोई डिगा नहीं पायेगा.’’
अपने छात्रों के लिए दिया गया एक सुन्दर दृष्टान्त मुझे अभी याद है. वे बताती – “भगवान ने जब सृष्टि की रचना की तो हर जीव को कुछ न कुछ विशेष दिया, जैसे शेर को अत्यधिक बल तो हिरन को तेज भागने की गति, हाथी को विशालकाय शरीर दिया तो सबसे छोटे जीव चींटी को हाथी को तक मारने की क्षमता, इसी तरह हर जीव को अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए कुछ न कुछ विशेष दिया गया. जब इन्सान की बारी आई तो भगवान बोले मैं सब कुछ तो दे चुका हॅू, लेकिन तू मेरी इस दुनिया में सबसे प्यारी कृति है, इसलिए तुझे मैं बुद्धि व विवेक देता हॅू, जिससे तू इन सब प्राणियों पर राज करेगा.’’ अपने छात्रों से वह इसी बुद्धि व विवेक का सम्यक उपयोग करने की बात कहती.
इन्टर कालेज की प्रधानाचार्य का पद हासिल करना तथा विद्यालय को उसकी मंजिल दिलाना भर उनका उद्देश्य नहीं था, वे नारी सशक्तिकरण को समय की जरूरत मानती रही. अपने सेवाकाल के अन्तिम दस वर्षों में उन्होंने आल इण्डिया वीमेन्स कांफ्रेंस की नैनीताल ईकाई की शुरूआत की, जिसकी पदेन अध्यक्ष कमिश्नर कुमाऊं की धर्मपत्नी हुआ करती थी तथा सचिव कला बिष्ट स्वयं थी. इसी संगठन की बदौलत श्रीमती सरिता आर्या (पूर्व विधायक) तथा श्रीमती शान्ति मेहरा (पूर्व दर्जा राज्यमंत्री) ने सार्वजनिक जीवन में पदार्पण कर राजनैतिक सोपान चढ़े. इसी संगठन की सचिव की हैसियत से कला बिष्ट ने एथेन्स (यूनान) में भी देश का प्रतिनिधित्व किया. निराश्रित तथा बेरोजगार महिलाओं को मसाला उद्योग जैसे कुटीर उद्योग धन्धों के माध्यम से आजीविका का अवसर तो दिया ही, महिला जागृति के माध्यम से नारी शक्ति को संगठित होने व देश व समाज में भागीदारी की ओर भी उन्मुख किया. उनके द्वारा रोपित आल इण्डिया वीमेन्स कान्फ्रेन्स की नैनीताल ईकाई आज भी महिला सशक्तीकरण की दिशा में क्रियाशील है.
वर्ष 1986 में नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत नवोदय विद्यालयों की शुरूआत देश में हुई और कला बिष्ट की सेवाऐं जवाहर नवोदय विद्यालय रूद्रपुर की संस्थापक प्रधानाचार्य के रूप में ली गयी. 24 अक्टूबर 1986 को उन्होंने जवाहर नवोदय विद्यालय की प्रधानाचार्य का पद भार संभाला, लेकिन अपने द्वारा रोपित विद्यालय की यादें उन्हें पुनः अपने विद्यालय खींच लाई और 21 जुलाई 1988 को प्रतिनियुक्ति अवधि में ही नवोदय विद्यालय से त्यागपत्र देकर वापस लौट आई तथा 02 वर्ष के सेवा विस्तार के उपरान्त 30 जून 2000 को विद्यालय से सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त हुई.
कला बिष्ट की शिक्षा के क्षेत्र में देश व समाज के प्रति की गयी सेवाओं के फलस्वरूप वर्ष 1984 का अध्यापक राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें प्रदान किया गया, जिसे 05 सितम्बर 1985 को तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के करकमलों से प्रदान किया गया.
आज उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये इस विद्यालय के छात्र गूगल से लेकर देश व विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों, प्रशासनिक, अभियात्रिंकी, सैन्य सेवा तथा इसरो जैसे संगठनों में अपनी सेवाऐं दे रहे हैं. पिछले माह जब भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल की एन एस एस विंग को स्वच्छता के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार से गौरवान्वित होने का अवसर मिला है, तो प्रताप भैया व कला बिष्ट की दिवंगत आत्मा अपने प्रयास की सार्थकता पर अवश्य प्रफुल्लित हुई होगी. दुर्गा के स्वरूप का अपने जीवन में अनुशीलन को समर्पित शारदीय नवरात्रि की अष्टमी तिथि 07 अक्टूबर 2008 को कला बिष्ट की यह भौतिक देह सदा-सदा के पंचतत्व में विलीन हो गयी.
उनकी बारहवीं पुण्यतिथि पर हृदय की अतल गहराइयों से शत-शत नमन् के साथ हार्दिक श्रद्धांजलि.
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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आदरणीय कला दी का जितना भी व्याख्यान किया जाए कम ही होगा। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूं जिन्हें उनके साक्षात्कार का और मार्गदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं इस लेख के लेखक को हृदय से धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने इतने जटिल चरित्र को सहजता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया।
आदरणीय कला दी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि। 🙏