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‘कल फिर जब सुबह होगी’ आंचलिक साहित्य की नई, ताज़ी और रससिक्त विधा

हमारी दुनिया एक फ़ैसला-कुन तरीके से उलट रही थी जब ये जुमला बहुत आहिस्ता से फूंका गया था हमारे कानों में – ‘थिंक ग्लोबल एक्ट लोकल!’ कमज़ोर, वंचित और निर्णायक भूमिकाओं से बहुत दूर हाशिये पर रहने वाली संस्कृतियों के शुरुआती संशयों के समाधान की गरज से दिया गया ये फ़ॉर्मूला कभी दृश्य तो कभी अदृश्य प्रयासों से जब-तब अपनी उपस्थिति दिखाता रहा है. 

मुझे लगता है कि इस ग्लोबल गाँव के ख़ासा स्पष्ट हो चुके चेहरे को समझने की ईमानदार कोशिश तो होने से रही इस जुमले की ही पड़ताल भी कहाँ संभव है? गो कुछ अच्छे प्रयासों के बावजूद पिछले कुछ सालों में इसका बहुत गिजगिजा रूपांतरण ही देखने को मिला है. एक अजीब सी रंगत में पोत दी गई दुकानें या इस बात से कतई आंख मूंदकर कि ऐपण की चौकियों की आकृति का अनुष्ठान में उसके इस्तेमाल का कोई लोक-स्वीकृत तरीका भी है, उसे कहीं भी कैसे भी बना दिया जाना या फिर किसी वाद्य यंत्र का, आभूषण का, शिरस्त्राण का ‘ओवर द टॉप’ भौंडा प्रदर्शन, जाने क्यों मुझे एक्ट लोकल का एक सरलीकृत और बेहद सपाट तर्जुमा लगता है.

ऐसा क्यों लगता है कि अपनी पहचान के इन प्रतीकों के बेमेल मिक़दार में इस्तेमाल के पीछे एक बेहद कमज़ोर, आत्मबलहीन राजनीति है जिससे सौन्दर्यबोध की अपेक्षा करना बेमानी है. इन लोक के प्रतीकों से सौन्दर्य गायब है क्योंकि लोक गायब है क्योंकि उसकी उस प्रतीक के प्रति लोक की मान्यता गायब है, उसका निहितार्थ गायब है, उसमें सालों साल जमा की गई नमी गायब है.

ऐसे समय में जब इस नमी की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस हो रही है ललित मोहन रयाल इस किताब के साथ हाज़िर हुए हैं. ‘कल फिर जब सुबह होगी! नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों पर एकाग्र.’ किताब से गुजरते हुए पता चलता है कि तहती उनवान भ्रामक है! और ये भ्रम बहुत मोहक है. गीतों पर एकाग्रता से आगे की चीज़ है यहां. किताब गीतों पर है. गीतों की मीमांसा है. गीत पर, ख़ास तौर पर लोक गीत पर, भाषा की जो एक खोल होती है दरअसल उस खोल में ही सारा खेल–खिलंदड़ छुपा होता है. उसके दो तरफा आवाजाही वाले रास्ते समाज-संस्कृति रंग-गंध से होते हुए और जीवन के अनुनाद तक जाते हैं. तो गीत से शुरू होकर ये यात्रा लोक जीवन के दृश्य–अदृश्य, सामान्य–विशिष्ट, प्रचलित–लुप्तप्राय बहुविध तत्वों की मीमांसा तक पहुंच जाती है. लोक का ये संसार इतना विस्तृत, इतना बहुरंगी है कि एक जैसी संस्कृति और जीवन शैली में अभ्यस्त होते जाती हमारी चेतना को एक झटका लगता है और वो चिहुंक कर जाग जाती है.

`ग्यों जौऊकि दौंऊ’ यानी गेहूं-जौ की मड़ाई वाले गीत की बानगी देखिये. लेखक एक गीत को किस तरह से खोलता है –

“परंपरागत तौर पर खेतिहर समाजों में खेत-खलिहानों में फसलों की मंड़ाई को उत्सव के तौर पर लिया जाता था. ये काम सामूहिकता के आधार पर होते थे. संयुक्त परिवारों में, जो व्यक्ति जिस कार्य में दक्ष रहता है, उसी हिसाब से सदस्यों के बीच बाकायदा कार्य-आवंटन होता. हालांकि मशीनीकरण के प्रभाव में अब यह बातें विरल होती जा रही हैं लेकिन इंसान बुनियादी तौर पर नॉस्टेल्जिक होता है. नेगी जी सामूहिक श्रम के समूचे क्रियाकलापों के सामूहिक वेग को ज्यों का त्यों उतारकर रख देते हैं. खलिहान की रसभरी झांकी श्रोताओं के मन को बांध लेती है. यह तभी संभव होता है जब सिरजने वाला स्वयं उस यथार्थ से होकर गुजरा हो. सर-सर हवा बह रही है. गेहूं-जौ की मंड़ाई (दांय) है. इस बरस अनाज से खलिहान भर गए हैं. कष्ट सह लिया अब मौज मनानी है. कितना सुंदर समय है. परले खलिहान में घम्म घमाक, सजीले जवानों के लट्ठों की होड़ (प्रतिस्पर्धा). इस खलिहान में छप्प छपाक. बेटियों-बहुओं के सूपों के (ओसाने) की लय. समूचा गांव रंगमंच बना हुआ है.

ध्वन्यात्मकता लोक से जुड़ाव में खासी सहायक सिद्ध होती है. सुरसुर्या बथाँऊंचा – फसल संवारने, ओसाने के लिए नियंत्रित हवा की जरूरत होती है. हवा न इतनी तेज हो कि अनाज के दाने उड़ा ले जाय और न इतनी धीमी कि भूसी-धूल को भी न उड़ा सके.

धम्म घमाक : सधे हाथों से अनाज की मंड़ाई अथवा कुटाई करते समय जो ध्वनि आती है.

छप्प छपाक: अनाज को सूप से संवारते समय जो आवाज आती है. पानी की एकमुश्त बौछारें भी ऐसा प्रभाव पैदा करती हैं. जब मन तृप्त हो जाता है, तसल्ली हो जाती है तब भी ‘छप्प छपाक’ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है.

छलनी, बड़े छन्ने की सरसराहट, ओसानेवालियों की फरफराहट नई बहुओं की फिड़फिड़ि (नई सदस्य होने के नाते नवविवाहिता परिवार की कार्यप्रणाली से अभ्यस्त नहीं है. फिर स्वयं को जिम्दार साबित करने का पहला अवसर भी तो है) सास-जेठानियों की आरामतलबी, पसीने से तरबतर.

चळा: अनाज छानने की छोटी छलनी.

पटेलां: चालना, अनाज छानने का बड़ा छन्ना.

अस्योउ-पस्योऊ: शारीरिक श्रम से शरीर स्वेदसिक्त हो जाता है. गढ़वाली का पस्यो शब्द संभवतः प्रस्वेद से निकला है.”

क्या शानदार मीमांसा है. शब्दों और ध्वनियों से होते हुए लोक जीवन के व्यवहार और वहां से मान्यताओं तक की यात्रा. मज़े की बात है कि लेखक यहीं नहीं रुकता वो सामाजिक मान्यताओं से एक कदम और आगे जाकर मनोविज्ञान की पड़ताल तक भी पहुंचता है. ये गीत बस एक यादृच्छिक सा उदाहरण है, पूरी किताब ऐसे बहुस्तरीय अवलोकन से भरी हुई है.

ऐसे शानदार विषय पर हिंदी में किताबों के उदाहरण कम ही हैं. मुझे राम नरेश त्रिपाठी की `कविता कौमुदी’ याद आती है. लेकिन यहां इस बात से ये किताब एक पायदान अलग हो जाती है कि यहाँ किसी एक गीतकार-गायक-संगीतकार के अकेले सृजित रचनाकर्म पर बात हो रही है. ऐसा रचनाकर्म जो श्रृंगार, प्रकृति, पर्व-त्यौहार, लोरी-आह्वाहन, परम्परा, परिवेश, संस्कृति, सामाजिक समस्याओं से गुज़रते हुए न जाने कहाँ-कहाँ तक जा पहुँचता है. ये विषय विस्तार और समझ की गहराई ही किसी गीतकार को इतना बहुश्रुत और प्रिय बनाती है.    

क्या मुझे लोकल पाठक समाज पर भरोसा करना चाहिए कि जैसे लोक ने गढ़रत्न को सिर आंखों पर बिठाया है वैसे ही इस किताब को भी हमेशा अपने दिल के करीब रखेगा? क्या मुझे वृहद्तर हिन्दी भाषी पाठक समाज पर भरोसा करना चाहिए कि आंचलिक साहित्य की इस बिल्कुल नई, ताज़ी और रससिक्त विधा का स्वागत बाहें खोलकर करेगा? 

जवाब तो तब ही मिलेगा – कल फिर जब सुबह होगी!

अमित श्रीवास्तव

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक प्राचीन शहर जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव भूमंडलीकृत भारत की उस पीढ़ी के लेखकों में शुमार हैं जो साहित्य की विधागत तोड़-फोड़ एवं नव-निर्माण में रचनारत है. गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में समान दख़ल रखने वाले अमित की अब तक छः किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- बाहर मैं, मैं अंदर (कविता संग्रह), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अंधकारा (उपन्यास) , कोतवाल का हुक्का (कहानी संग्रह), कोविड ब्लूज और सिराज- ए-दिल जौनपुर. सम सामयिक राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, समाज, खेल, संगीत, इतिहास जैसे विषयों पर अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं/ ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हैं. भाषा की रवानी, चुटीलेपन एवं साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं. भारतीय पुलिस सेवा में हैं और फ़िलहाल उत्तराखंड के देहरादून में रहते हैं. taravamitsrivastava@gmail.com

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