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अनोखी शख्सियत थे कैलाश साह यानी कैलाश दाज्यू

एक अनोखी शख़्शियत थे कैलाश साह यानी कैलाश दाज्यू. एक में अनेक थे वे, किसी के लिए पत्रकार, किसी के लिए समर्पित विज्ञान लेखक, किसी के लिए गजब के किस्सागो, किसी के लिए हमदर्द दोस्त, तो किसी के लिए एक मददगार इंसान. (Kailash Sah Kailash Dajyu)

याद आते हैं तो अब भी लगता है कि अभी भी कहीं मौजूद हैं वे, किसी-न-किसी काम में डूबे हुए. अगर मिल गए तो कहेंगे, देवेन, कुछ दिन एकांत में रह कर कुछ जोरदार चीज लिखना चाहता हूं, कुछ अलग-सी चीज. मन में बहुत कुछ है, लेकिन समय? समय ही नहीं मिल रहा है लिखने को. ना, अब कुछ दिन एकांत में रह कर लिखूंगा.

उन्हें याद करता हूं तो लगता है कि कहीं एकांत में बैठे, सिगरेट का कश लेते या पाइप मुंह में दबाए होंठों की कोर से धीरे-धीरे धुवां छोड़ते कैलाश दाज्यू माथे पर बल देकर, हवा में न जाने कहां देखते-सोचते हुए लगातार लिख रहे होंगे. हां, लगातार क्योंकि जिन्होंने मुफ़लिसी के दिनों में उन्हें काम करते देखा, वे जानते हैं कि काम करना किसे कहते हैं. कंधे पर टेपरिकार्डर लटकाए दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, सफदरजंग अस्पताल से लेकर मौलाना आजाद मेडिकल कालेज और न जाने कहां-कहां डॉक्टरों के पास जा-जा कर, उनके इंटरव्यू लेकर अकेले ही ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का पूरा स्वास्थ्य विशेषांक लिखने की कूव्वत रखते थे वे!

लेकिन, पहले चलिए, चलते हैं नैनीताल. लिखने का शौक मुझे ‘पर्वतीय’ के कार्यालय तक खींच ले गया था जिसके संपादक, प्रकाशक विष्णु दत्त उनियाल जी थे. जब भी मौका मिलता मैं और बटरोही ‘पर्वतीय’ चले जाते. मालरोड के ठीक ऊपर. सामने खुली खिड़की के पास मेज पर कुहनी टिकाए कैलाश दाज्यू की बड़ी-बड़ी आंखें दूर अयारपाटा या कैमिल बैक की ओर आसमान में खोई रहतीं. हमें देखते ही खुश होकर अपनी रूक-रूक कर आती विशेष हंसी हंसते. बैठाते. कांच के गिलासों में कड़क चाय मंगवाते. और, दोनों हथेलियों में गिलास की गरमाहट लेते हम लोगों के साथ बातें करते. देश-दुनिया की, नैनीताल के चप्पे-चप्पे की, बदलते समय और समाज की.

वे दमखम के साथ ‘पर्वतीय’ के लिए खबरें लिखते थे, जो उनकी मेज से कंपोजिंग के लिए भीतर जाती रहती थीं. महेश (कुकरेती) भाई उनके शागिर्द होते थे और शायद कृष्णानंद चीफ कंपोजिटर. बगल में सेक्लेज की शानदार पेस्ट्रियां मिलती थीं. वहीं दूसरी ओर चौधरी कॉफी हाउस की मलाईदार कॉफी का चस्का लगा. कैलाश दाज्यू मुख्य रिपोर्टर थे. उनका ‘ट्रंककाल’ कॉलम काफी लोकप्रिय था जिसमें वे नारद के साथ बातचीत के बहाने स्थानीय समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते थे. मेरे बड़े भाई साहब दीवान सिंह मेवाड़ी जी ओखलकांडा कालेज में पढ़ाते थे. वे ‘ट्रंककाल’ के पाठक और प्रशंसक थे. उन्हीं दिनों उन्होंने एक नया कॉलम शुरू किया ‘लो, फिर बहारें आईं.’ वह कॉलम नैनीताल के पर्यटन सीजन के साथ शुरू हुआ था और उसमें कैलाश दाज्यू प्रशासन, नगरपालिका, पर्यटकों और स्थानीय समस्याओं के बारे में प्यार से तीखी टिप्पणियां लिखते थे.

उनका घर भवाली (नैनीताल) में था जहां 11 दिसंबर 1937 को उनका जन्म हुआ था. अपने परिचय में वे कहते थे, “शिक्षा नैनीताल में, दीक्षा नैनीताल, लखनऊ, बंबई और दिल्ली में.” हम पढ़ते थे. वे नौकरी कर रहे थे, बड़े ओर बड़े भाई की तरह थे. इसलिए हम उनकी नसीहतों को बहुत ध्यान से सुनते और उन पर अमल करते थे. वे लिखने के लिए जोर देकर कहते रहते थे. कहते बहुत दिन हो गए, तुमने ‘पर्वतीय’ के लिए कुछ लिखा नहीं. कहानी, कविता, लेख कुछ भी दो. मेरी विज्ञान कथा ‘शैवाल’, कुछ अन्य कहानियां और कविताएं छपीं. वैज्ञानिक विषयों पर लेख भी लिखे. फिर सुना कैलाश दाज्यू कानपुर या लखनऊ चले गए. ‘नेशनल हेरल्ड’ में रिपोर्टर रहे. उन्हीं से सुना था, बदनाम बस्तियों की उनकी रिपोर्टें बहुत चर्चित हुई थीं. सीजन के दिन थे. उनके जाने के बाद ‘पर्वतीय’ में ‘लो, फिर बहारें आईं’ लिखने की जिम्मेदारी मुझे मिल गई. मैं थोड़ा घबराया. कहां उनकी रिपोर्टें और कहां मैं नौसिखिया स्तंभ लेखक. लेकिन, उनकी रिपोर्टों ने दिशा दिखाई और फिर बहारें आईं.

एम.एस.सी. करने के तुरंत बाद भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान यानि पूसा इंस्टीट्यूट में नौकरी लगी तो मैं दिल्ली आ गया. पता लगा, कैलाश दाज्यू भी दिल्ली में ही संघर्ष कर रहे हैं. पूछते-पाछते मालूम हुआ कि समाचार एजेंसी ‘समाचार भारती’ में हैं. भेंट हुई. पता लगा बंगाली मार्केट में कहीं कमरा लेकर रहते हैं. कहते थे, देवेन, कमरे में चलते, लेकिन वहां कुछ है नहीं. बस रैन बसेरा है. चलो यहीं कहीं चाय पीते हैं. जब भी भेंट होती, पत्रकारिता क्षेत्र की खींचातानियों पर दोस्तों से जम कर चर्चा हो रही होती थी. संघर्ष करने, जूझने की बातें कर रहे होते. मुझे छोटे भाई के समान मानते और हर विषय पर चर्चा करते. दिल्ली में जीवन की आपाधापी और एक-दूसरे से आगे दौड़ने की चूहा दौड़ के बारे में बताते.

उन्होंने कई नौकरियां कीं और कई तरह के अनुभव बटोरे. लेकिन, पत्रकारिता उनका पहला प्यार था. उनके भीतर का पत्रकार सदा सजग और सतर्क रहता था. ‘हिंदी-अंग्रेजी के लगभग दर्जन भर अखबारों में नौकरी’ भी उनके परिचय का हिस्सा था. उनकी सभी नौकरियों की जानकारी मुझे नहीं थी, न जानने की जरूरत पड़ी क्योंकि वे जब जिस नौकरी में होते- उसी से संबंधित इतनी बातें होतीं कि पिछली बातें उप कथाओं के रूप में चलती रहतीं.

एक दिन पता लगा, कैलाश दाज्यू सोवियत सूचना केंद्र में काम करने लगे हैं. मैं भीष्म (साहनी) जी के घर पर प्रायः जाया करता था. उनकी श्रीमती शीला जी भी रेडियो छोड़ कर सोवियत सूचना केंद्र में ‘बाल स्पुतनिक’ पत्रिका का संपादन करने लगी थीं. कैलाश दाज्यू से मिलने गया तो उन्होंने वहां के पी.आर.ओ. गोरे-चिट्टे स्मार्ट दयानंद जी से मिलाया. यानी दयानंद अनंत-चर्चित कहानी ‘गुइयां गले न गले’ के लेखक. पांच बजे बाद वे नीचे रेस्त्रां-कम-बार में आए और वहां चाय पी. वहीं सामने की टेबिल पर ख्वाजा अहमद अब्बास कुछ मित्रों के साथ बैठे थे. चाय पीते-पीते कैलाश दाज्यू ने कहा, “देवेन, तुम्हें यहां अनुवाद का काम नहीं करना है. पूसा इंस्टीट्यूट की नौकरी में हो. तुम पर किसी विचारधारा या एम्बेसी की मुहर नहीं लगनी चाहिए. सईद थोड़ा-बहुत अनुवाद का काम करता है. वह फ्रीलांसर है और उसे पैसे की जरूरत है. तुम मौलिक वैज्ञानिक लेख लिखो.” दयानंद भाई साब ने कहा, “रूसी वैज्ञानिकों के इंटरव्यू कर सकते हो. यह अच्छा रहेगा.” उन्हीं दिनों संयोग से दो प्रसिद्ध सोवियत वैज्ञानिक भारत के दौरे पर आए थे. मैंने जनपथ होटल में अकादमीशियन प्रोफेसर निकोलाई पी. दुबनिन का इंटरव्यू लिया. वह सोवियत सूचना केंद्र से सिंडिकेट होकर देश भर के अखबारों को भेजा गया था. कैलाश दाज्यू ने पांडे जी से भी मिलवाया. वे प्रसिद्ध समाचार वाचक देवकीनंदन पांडे जी के भाई थे और स्वयं भी रेडियो में अपनी आवाज देते थे. कैलाश दाज्यू कहते, “पांडे जी गजब का ‘मीट दो प्याजा’ बनाते हैं.” फिर बताते, “मीट, बीच से दो भागों में कटे प्याज और एक मक्खन की टिकिया. स्वाद के लिए बस नमक. कुकर में बनाते हैं और वाह क्या चीज बनाते हैं!” मीट के बहुत शौकीन थे कैलाश दाज्यू.

बाद में उन्होंने राजेंद्र नगर में दो कमरों का घर किराए पर ले लिया था. भुवाली से परिवार ले आए थे. मैं अक्सर वहां जाया करता था. बच्चे देवेन कक्का को बहुत अच्छा मानते थे. एक बिटिया तो मेरी ही गोद में रहने को मचलती थी. गंगा भाभी जी सूजी के अद्भुत स्वादिष्ट चीले बनाती थीं. घर में घंटों बातें होतीं. कैलाश दाज्यू ऑफिस से आते. प्रायः मीट लाते और खाना खाने तक जाने नहीं देते थे. छुट्टियों के दिनों में मीट घोटने के साथ-साथ लिखने में डूबे रहते थे. कभी इंटरव्यू, कभी लेख. वे कुछ भी लिख सकते थे. एक बार उन्हें बाल घुटाए, माथे पर बल डाले, धुवां उड़ाते गंभीर मुद्रा में हवा में ताक-ताक कर भूतों की कहानी लिखते हुए देखा गया. हंस कर बोले, “जोशी जी (मनोहरश्याम जोशी) से मिला. पूछा क्या लिखूं? वे बोले- अगला अंक ‘भूत-प्रेत विशेषांक’ है. उसके लिए भूतों पर कोई कहानी लिख सकते हो? मैं कह आया- हां.” सा’जी ने वह चुनौती स्वीकार की और एक जबर्दस्त भूत-कथा लिख डाली. वह ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के उस विशेषांक में छपी थी और कितनी विश्वसनीय बन पड़ी थी, उसका सुबूत यह है कि अंक छपने के बाद तो पाठकों के तमाम पत्र मिले ही, तीन-चार साल बाद भी पुराने अंक में पता देखकर पाठक पूछते थे कि अगर वे अल्मोड़ा की उस कोठी में अब भी जाएं तो क्या उस भूत से भेंट होगी! मैं नैनीताल की चौगढ़ पट्टी से हूं जो कभी शेरों के आतंक के लिए प्रसिद्ध रही है. वह जिम कार्बेट की भी कर्मभूमि रही है. मैं गांव के लोगों की शेर-बाघों से मुठभेड़ के तमाम किस्से सुनाता था. कैलाश दाज्यू का पत्रकार जाग उठा. वह किसी ऐसे आदमी से मिलने को बेसब्र हो उठा जो निहत्थे शेर से भिड़ा हो. ओखलकांडा में मेरे ददा से भी संपर्क किया. और, आखिर दूर कड़ाइजर गांव के बुजुर्ग रूवाली जी का इंटरव्यू लेकर ही दम लिया.

वे नैनीताल के उस अतीत पर भी एक उपन्यास लिखना चाहते थे जो ब्रिटिश राज में था. उन्हें उस नैनीताल और उसके धनी साह समाज के बारे में बहुत कुछ ज्ञात था. वे उस काल के नैनीताल को अपने उपन्यास में जीवंत बनाने का सपना देखते थे. उन्होंने कई पृष्ठ लिखे और मुझे सुनाए थे. उनमें उस समाज का वारिस एक पत्रकार दिल्ली की एक छोटी-सी बरसाती में रहता है और अतीत को याद करता है. वे पृष्ठ भी कहीं होंगे. एक बार कैलाश दाज्यू बोले, “यहां पंकज आता है जो हू-ब-हू तुम्हारी तरह दिखाई देता है. तुम दोनों डुप्लिकेट लगते हो.” भाभी जी ने भी यही कहा. कई बार ऐसा संयोग हुआ कि एक आया तभी दूसरा चला गया. बहरहाल, एक दिन उनके घर पर मेरी ही तरह के दुबले-पतले, दाढ़ी वाले प्रताप सिंद बिष्ट यानी पंकज बिष्ट से मेरी भेंट हुई. उस उम्र में हम लोग शायद एक जैसे दिखाई देते थे.

अपने भाइयों से बहुत प्यार था उन्हें. वे उन्हें उनके काम में जमाना चाहते थे. शंकर घर की जिम्मेदारियां संभाले हुए थे. निरंजन को चार्टर्ड एकाउंटेंसी पढ़ा रहे थे और उसे लंदन भेजने का सपना देखते थे. छोटे भाई को वे पत्रकार देखना चाहते थे. भुवाली से बहुत प्रेम था उन्हें. 

मनोहरश्याम जोशी जी से उनकी अच्छी बनती थी. प्रायः उनसे मिलने जाते और लौट कर उनके साथ हुई चर्चा के बारे में बताते. कहते थे, “देवेन, कई चीजें पढ़नी हैं. ऐसे-ऐसे विषयों पर जोशी जी चर्चा करने लगते हैं जैसे मैंने तो वे पढ़े ही होंगे. आज तो काम चला लिया, लेकिन इनके साथ बातें करने के लिए कई चीजें पढ़नी पड़ेंगी.” फिर आश्चर्य से कहते, “जाने कितना पढ़ते हैं ये जोशी जी. इनके साथ बात करने के लिए तो पहले से ही पूरी तैयारी करनी चाहिए.” लेकिन, सच यह है कि सा’जी खुद बहुत पढ़ते रहते थे. तमाम विषयों की तमाम किताबें. वे भी लगभग हर विषय पर बात कर सकते थे.

मेरा साथ पाकर वैज्ञानिक विषयों में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई. वे वैज्ञानिक विषयों पर लंबी चर्चा करने लगे. यह शौक इतना बढ़ा कि एक दिन वे ‘द बुक ऑफ पापुलर साइंस’ विश्वकोश का पूरा सैट खरीद लाए और विज्ञान के तमाम विषयों की पढ़ाई शुरू कर दी. जब भी मैं उनके घर पर जाता था तो वे तरह-तरह के सवाल पूछते. क्या आदमी ओजोन में सांस ले सकता है? कहीं ऐसे जीव भी तो हो सकते हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड या मीथेन में सांस लेते हों? धरती पर जीव शरीर कार्बन पर आधारित है, कहीं किसी और तत्व से बना हो सकता है? साइंस फिक्शन में उनकी रूचि बढ़ती जा रही थी. उसी दौरान 1969 में मेरी शादी हो गई. मैं इंद्रपुरी में रहता था. उन्होंने बहू के साथ घर पर भोजन के लिए बुलाया. याद है, हम बहुत रात गए लौटे थे.

कैलाश दाज्यू ने मुफलिसी के बहुत दिन काटे. दिल्ली जैसे महानगर में वैसा कठिन समय भी उन्हीं के जीवट का व्यक्ति हंसते-हंसते गुजार सकता है. जानने वाले जानते हैं कि सा’जी अपनी मुफलिसी को झेलते हुए भी दूसरों की मदद करते रहते थे. एक अरसे तक उन्होंने सईद को संभाला जो चित्रकार था और संवेदनशील कविताएं लिखता था लेकिन जिसका साथ झेलना हर किसी के लिए संभव नहीं था. उसके चित्रकार और कवि को सक्रिय रखने के लिए कैलाश दाज्यू उसकी हर संभव मदद करते रहते थे. लोगों ने सईद को बस से आने-जाने और खाने का खर्च देकर सा’जी को राजेंद्र नगर से बाराखंबा रोड तक काम पर पैदल जाते हुए भी देखा था. उसकी हरकतों से पैदा हुई परेशानियों से भी वे ही उसे बाहर निकाल लाने का दम रखते थे. एक बार लुंगी लपेटे, बाल घोटे सईद हाथ में कभी पत्थरों के टुकड़ों और कभी बिजली के तारों व आसमान तो ताकता तत्कालीन रक्षामंत्री जगजीवन राम के निवास के आसपास पाया गया. पुलिस पकड़ कर थाने ले गई. साथी लेखकों को पता लगा तो कैलाश दाज्यू को खबर की गई. वे भागे-भागे आए, राजनेता के. सी. पंत से परिचय के सहारे किसी तरह सईद को मुक्त कराया. इस तरह के बैठे-बिठाए आ गए बवालों को भी वे सुलझाते रहते थे.

मनोहरश्याम जोशी जी ने मुफलिसी के दिनों में कैलाश दाज्यू को बहुत सहारा दिया. वे उन्हें ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में विविध विषयों पर लिखने के लिए कहते रहते थे. चिकित्सा विज्ञान पर हिंदी में लिखने वाले गिने-चुने लोग थे. जोशी जी ने सा’जी को बढ़ावा दिया. कहा जाता है कि कंधे पर टेपरिकार्डर लटका कर साह जी सारा-सारा दिन डॉक्टरों के इंटरव्यू करते और रातों को लिखते. कहते हैं, इस तरह उन्होंने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का पूरा ‘स्वास्थ्य विशेषांक’ तक लिख डाला था! मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. हरि वैष्णव से उनकी अंतरंत पहचान थी. उनके साथ उन्होंने ‘मधुमेहः रोग और उपचार’ पुस्तक लिखी थी. एक अन्य चिकित्सक के साथ ‘यक्ष्मा’ पर पुस्तक लिखी. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में शल्य चिकित्सा विभाग के अध्यक्ष डॉ. आत्म प्रकाश के संस्मरणों के आधार पर उन्होंने 1975-76 में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में ‘एक सर्जन के संस्मरण’ लिखे जो संस्मरण साहित्य में एक नई उपलब्धि माने गए. उन संस्मरणों के आधार पर कैलाश दाज्यू डॉ. आत्मप्रकाश की जीवनी लिखने की योजना बना रहे थे.

डॉ. आत्म प्रकाश के साथ उन्होंने ‘शल्य चिकित्सा के वरदान’ पुस्तक लिखी. इसकी भी एक कहानी है…..

मैं तब पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में ‘किसान भारती’ का संपादन कर रहा था. एकदिन अचानक कैलाश दाज्यू का फोन मिला, ”देवेन क्या हाल हैं? कैसे हो?“

मैंने कहा, ”ठीक हूं. आप कहां दिल्ली से बोल रहे हैं?“

वे हंसते हुए बोले, ”नहीं पंतनगर से. मैं राज्य अतिथि गृह तराई भवन से बोल रहा हूं. यहां आ सकते हो?“

मैंने ‘हां’ कहा और तराई भवन पहुंचा. पुलिस वाले मेरा परिचय पूछ ही रहे थे कि कैलाश दाज्यू ने देख लिया. मुझे कमरे में बैठाया. मैं हैरान पूछा, ”आप यहां कैसे?“

”के. सी. पंत जी कि साथ आया हूं. हवाई जहाज में. उन्होंने कहा, चलो नैनीताल-अल्मोड़ा चलते हैं. जरूरी काम था, लेकिन उन्होंने जोर दिया तो चला आया….मगर, अब मैं यहां से लौट जाना चाहता हूं. उन्होंने पंत जी से बात की और मुक्त होकर मेरे साथ चल पड़े.

उनकी कई विज्ञान कथाएं ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘विज्ञान लोक’, ‘विज्ञान प्रगति’, ‘विज्ञान भारती’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं. उन्होंने बताया था कि शीघ्र ही उनकी विज्ञान कथाओं का संकलन प्रकाशित होगा. फिर बोले, “कुछ प्रकाशक बहुत दुःखी कर देते हैं. लेखक को उचित रायल्टी तक मिलना मुश्किल होता है. इसलिए मैं इन्हीं के लायक पैंतरा अपना कर एक पुस्तक छपाना चाहता हूं. मैंने पुस्तक लिख ली है और कुछ ऐसा कर रहा हूं कि प्रकाशक खुद कहे कि इस पुस्तक को मैं छापूंगा. एक बार ऐसा हो जाए तो लेखक सामने आ जाएगा और उसकी पहचान बन जाएगी. कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के लिए मैंने बहुत जूते घिसे हैं.”

जब मैंने पूछा कि योजना क्या है, तो बोले, “मैं उस पुस्तक की भूमिका श्रीमती इंदिरा गांधी से लिखवा रहा हूं. चिकित्सकों की कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला है. उस अवसर पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही उसका विमोचन करेंगी.” पुस्तक को लांच करने के लिए हर चीज को ध्यान में रखा है- नामी चिकित्सक के साथ पुस्तक-लेखन, प्रधानमंत्री की भूमिका, अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन में विमोचन और मीडिया कवरेज. सब कुछ. फिर अपनी खास हंसी हंसते हुए बोले, “उस पुस्तक के लिए प्रकाशक मुझे खोज रहे हैं. जो ठीक-ठाक रायल्टी देगा उसे छापने के लिए दूंगा.”

पंतनगर से उन्हें वापसी के लिए केवल ठेला मिल पाया. उसी में बैठ कर चल पड़े कि आगे जहां बस मिलेगी, उसमें बैठ जावूंगा. इस तरह हवाई जहाज से आए सा’जी आराम से ठेले में वापस लौट गए. तब वे ग्रामीण विद्युत्तीकरण निगम में सह निदेशक के रूप में काम कर रहे थे. लंबी बातचीत हुई. विज्ञान कथाओं पर काफी चर्चा की. पंतनगर रूकने के लिए कहा, लेकिन वे बोले कि जरूरी काम है. इसलिए जाना ही है. लेकिन, लिखने के लिए बाद में जरूर आवूंगा.

डॉ. आत्म प्रकाश तथा कैलाश साह लिखित ‘शल्य चिकित्सा के वरदान’ वही पुस्तक थी. उसकी भूमिका में 12 सितंबर 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की बात पर बल देते हुए लिखा था, “जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति होती है, अंधविश्वास कम होता है, क्योंकि विज्ञान किसी भी घटना के भौतिक कारणों को प्रकाश में लाता है. लेकिन आधुनिक औषध के बारे में पुराना संदेह अभी बना हुआ है. बहुत-से लोग अभी भी शल्य-चिकित्सा के नाम से डरते हैं. यह डर तभी खत्म होगा, जबकि जानकारी बढ़ेगी और वैज्ञानिक साधारण जनता से सरल और सुबोध भाषा में बात करेंगे जिसमें कि अपनापन झलके. लोकप्रिय विज्ञान का यह एक मुख्य कार्य है. बहुत-सी भाषाओं में विज्ञान लेखन अभी भी लोकप्रिय नहीं हो सका है. मैं चाहती हूं कि हमारी यह कमी शीघ्र पूरी हो. विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा-प्रणाली में मेरा विश्वास है. परंतु साथ ही मेरी यह धारणा है कि इस क्षेत्र में हमारे प्राचीन ज्ञान का भी, जांच के बाद, उपयोग हो सकता है, और ऐसा करना लाभकारी होगा.

डॉ. आत्मप्रकाश हमारे बड़े सर्जनों में से एक है. मुझे खुशी है कि उन्होंने श्री कैलाश साह के सहयोग से यह पुस्तक लिखी. मुझे आशा है कि हिंदी पाठकों को इससे यह समझने में आसानी होगी कि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से साधारण जनता के स्वास्थ्य में कैसे सुधार होता है.” पुस्तक के विमोचन के साथ ही विज्ञान लोकप्रियकरण के बारे में इंदिरा गांधी के इन विचारों पर आधारित समाचार देश भर के समाचारपत्रों में मुखपृ़ष्ठ पर प्रकाशित हुआ था.

प्रकाशक ने अपने प्रकाशकीय में कैलाश दाज्यू के बारे में लिखा, “श्री कैलाश साह हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञानिक विषयों पर पिछले दस -बारह वर्षों से लेख और कहानियां लिखते आए हैं. हिंदी जगत में उन्हें लोकप्रिय ज्ञान-विज्ञान साहित्य के अग्रणी लेखकों में से माना जाता है.”

चिकित्सा विज्ञान पर लिखते-लिखते उनका चिकित्सकों से करीबी परिचय हो गया. इस परिचय का लाभ भी बहुतों ने उठाया. घर पर प्रायः मरीज टिकने लगे जिन्हें सा’जी डॉक्टरों के पास ले जाते और इलाज कराते. कुछ दिन बाद फिर कोई मरीज आ जाता. अजीब-अजीब से रोग होते थे. एक मरीज ऐसे थे जो अनजाने में तो गिलास उठा कर पानी पी लेते थे लेकिन ध्यान आते ही खाली गिलास क्या सिगरेट भी नहीं उठा पाते थे. भाभी जी और मैं देख कर हैरान रह जाते थे.

जिस वर्ष ‘शल्य चिकित्सा के वरदान’ प्रकाशित हुई, उसी वर्ष कैलाश दाज्यू का विज्ञान कथा संग्रह ‘मृत्युंजयी’ भी छपा. ‘दो शब्द’ में उन्होंने साफ-साफ लिखा, “संकलन की अधिकांश कहानियां बेकारी के जमाने में संघर्ष करते समय पेट भरने के लिए लिखी गई थीं. इन कहानियों में मेरी बेकारी के युग के संघर्ष की कटुता नहीं आई है, इसके लिए मेरी पत्नी जिम्मेदार है. उन्होंने उस भयानक संघर्ष के दौर में मेरा साथ एक जुझारू सैनिक की तरह हंसते-हंसते दिया.”

उन्होंने थोड़े से ही समय में विज्ञान कथा लेखन के क्षेत्र में अपनी पहचान बना ली थी. प्रसिद्ध पत्रकार, उपन्यासकार मनोहरश्याम जोशी ने उनकी कहानियों और उनके बारे में लिखा था, “हिंदी में अब तक विज्ञान कथा लेखन का क्षेत्र लगभग अछूता ही रहा है. शायद इसलिए कि यह काम बहुत आसान नहीं. उत्कृष्ट विज्ञान कथाओं के सृजन के लिए यह जरूरी है कि विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कारों, उनकी सम्भावनाओं और वर्तमान सामाजिक परिवेश और दायित्व बोध से भलीभांति परिचित होने के साथ ही लेखक रोचक, बोधगम्य शैली का भी धनी हो. कैलाश साह भारतीय भाषाओं के उन गिने-चुने लेखकों में हैं जिन्होंने विज्ञान कथा लेखन की चुनौती स्वीकार की है और इस काम को सफलता से पूरा किया है.”

मौला-मस्त सा’जी कभी हल्की दाढ़ी, उलझे बालों में उनीदें-उनींदे से मिलते तो कभी चकाचक चमकते चेहरे और सूट में सजे-धजे दिखाई देते. कभी तंबाकू का पैक और सिगरेट पेपर रखते. पेपर लपेट कर सिगरेट बनाते, पीते. कभी सिगरेट के पैकेट रखते. और, एक अरसे तक उन्होंने प्यारा-सा पाइप रख लिया था. वे हवाना सिगारों की बात करते थे, न जाने कितनी ‘ड्रिंक्स’ के बारे में बताते थे. और, गप्पें सुनाने का उनका अपना अंदाज था. उनकी गप्पों का आनंद लेने वाले कई स्थाई मुरीद थे. जो मजा उनकी बातें सुनने में आता था, वह और कहां! इतनी गंभीरता से सुनाते कि दृश्य साकार हो जाता और सुनने वाला यह भूल ही जाता कि दाज्यू किस पगडंडी से उसे अपनी कल्पना के रास्ते पर उतार ले गए हैं. मेरा साथी कैलाश पंत भी कई बार मेरे साथ उनके घर पर गया. एक बार काफी देर हो गई थी. भाभी जी हमें खाना खिला चुकी थीं. सा’जी उसके बाद आए. किस्सा सुनाने लगे. बोले, “सोवियत दूतावास में पार्टी थी. ये रूसी लोग क्या जोरदार पार्टी देते हैं. न जाने कितनी तरह की ड्रिंक्स थीं. मैंने वोदका लेकर हाई-हुई कॉमरेड शुरू किया. न जाने कितने मिले. जो भी खाली गिलास देखे, ड्रिंक डलवा दे. जाने कितने पैग हो गए. मुझे थोड़ा चक्कर-सा लगा. तभी-तभी एक रूसी वैज्ञानिक ने देखा. जेब से हरी-हरी गोली निकाली. इशारा करके बोला- खा लो. मैंने वह गोली निगली. सच मानोगे तुम लोग? मिनटों में नशा काफूर! जाने क्या-क्या खोजें कर ली हैं इन्होंने!” हम हैरान.

के.सी. रास्ते में भी पूछता रहा- गोली रही भी होगी या नहीं? इस कथा में यह पता नहीं चलता था कि दाज्यू कहां से कल्पना लोक में उतार ले गए. खैर, हम तो उनके सभी किस्से पूरी तन्मयता से सुनते ही थे. हरी गोली थी या नहीं हमें नहीं पता. ….लेकिन प्रिय पाठक, चौंकने की बारी अब आपकी है. वर्षों बाद सन् 2007 में मैंने एक अनुसंधान समाचार पढ़ा. पढ़ा कि रूसी वैज्ञानिकों ने एक ऐसी गोली बना ली है जो शराब के नशे को काफूर कर देगी. वह एल्कोहॉल को एंटागोनाइज कर देती है! तो क्या, जो कैलाश दाज्यू सुनाते थे और जिसे कई लोग महज गप्प समझते थे-वह गल्प होता था? उनकी भविष्य की कल्पना होती थी? तो क्या, वे सोते-जागते अपने वैज्ञानिक कल्पना लोक की सैर करते रहते थे? हमारा सुझाव है कि आप उनका ‘मृत्युंजयी’ विज्ञान कथा संग्रह अवश्य पढ़ें. आपको उनके कल्पना लोक में विचरण का एक अलग और अनोखा अनुभव होगा.

अलग अनुभव तो उनके ‘अंतरिक्ष के पार’, ‘हरे दानवों के देश में’ और अप्रकाशित ‘मोआमू की यात्राएं’ पढ़ने पर भी मिलेगा. वे जब अपनी कल्पना का यान न जाने कितने अनजान लोकों की रहस्यमय यात्राओं पर उड़ाने की तैयारियों में जुटे थे कि जून 1978 में स्वयं ही अनंत यात्रा पर रवाना हो गए. लगता है, आज भी वे अपने उसी हंसते-बोलते रूप में कहीं जीवित हैं. मगर कहां? द कौन जाने, इस रहस्यमय ब्रह्मांड के किस लोक में वे हैं. हम तो बस इस ग्रह पर उनके साथ बिताए उन अविस्मरणीय क्षणों के साथ ही उन्हें याद कर सकते हैं, जब वे अपनी पूरी ज़िंदादिली के साथ यहां मौजूद थे.

पहाड़ों में पाया जाने वाला फल जिसे चंगेज खां अपने सैनिकों को उनकी याददाश्त बढ़ाने के लिये खिलाता था

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Sudhir Kumar

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1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

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बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

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गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

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