एक समय की बात है गढ़वाल पर अजयपाल नाम का राजा शासन करता था. उसकी ताजपोशी के वक्त राज्य के सभी सरदार व गणमान्य व्यक्ति दरबार में राजा के प्रति अपनी स्वामिभक्ति प्रकट करने व नज़राना देने के लिए हाज़िर हुए, सिवाय कफ्फू चौहान के. कफ्फू चौहान उपगढ़ किले का रहने वाला था. राजा ने उसे सन्देशा भिजवाया किन्तु जवाब में कफ्फू ने लिख भिजवाया की वह जंगली जानवरों में शेर और पक्षियों में गिद्ध है. वह अजय पाल के समक्ष अपनी स्वाभिभक्ति नही प्रदर्शित करेगा.
राजा ने उसे चेतावनी दी यदि वह उनकी स्वामिभक्ति को स्वीकार नही करेगा वह उनके किले पर आक्रमण कर देंगे, कफ्फू ने भी जवाब में लिख भेजा कि राजा अजय पाल तुम्हारी स्वामिभक्ति तो दूर की बात मैं खुद तुम्हारी राज्य पर हमला करूँगा और तुम्हारी राजधानी श्रीनगर व वहां के बाग-बगीचों को तहस-नहस कर दूंगा.
राजा अजय पाल यह अपमान न बर्दाश्त कर सका, उसने कफ्फू के किले पर आक्रमण की तैयारी कर ली, वह स्वयं सेना की कमान संभाले गंगा के किनारे जा पहुंचा जिसके दूसरे छोर पर बहुत ऊंचाई पर कफ्फू चौहान का किला स्थित था.
कफ्फू की माँ ने किले की खिड़की से देखा कि सामने गंगा उस छोर का इलाका सैनिकों से भरा हुआ है. उन्होंने कफ्फू से पूछा कि यह क्या है? कफ्फू ने बताया कि यह राजा अजयपाल की सेना है, जिन्हें उसके सामने मैने सिर झुकाने व उसकी आधीनता स्वीकारने से मना कर दिया. यह सुनकर कफ्फू की माँ रोने लगी और कहने लगी कि तुम मेरी इकलौती प्रिय सन्तान हो, तुम इतनी बड़ी सेना से नहीं लड़ सकते. जाओ उनसे क्षमा मांग लो. निश्चित ही वह तुम्हें क्षमा कर देंगे.
कफ्फू ने कहा – मैं इतना नीचे नही गिर सकता. मैं असली क्षत्रिय परिवार से ताल्लुक रखता हूँ. मेरी इस कायरता को देखकर स्वर्ग में मेरे पिता की आत्मा को कितना कष्ट होगा.
कफ्फू अपने किले के ऊपर चढ़ गया और गंगा पर बने झूलेदार पुल की रस्सियां काट दी. अगली सुबह जब राजा अजय पाल की सेना आक्रमण के लिए तैयार हुई तो वहां टूटा हुआ पुल पाया. इसकी खबर राजा अजयपाल को ढ़ी गई. राजा बहुत क्रोधित हुआ. उसने सेना को आदेश दिया कि जल्द ही नया झूलेदार पुल का निर्माण कर महल को चारों तरफ से घेर लिया जाए.
राजा की सेनाओं द्वारा गंगा पर बनते हुए सेतु को देखकर कफ्फू की माँ भयभीत हुई और कफ्फू को दुबारा मनाने का प्रयास किया कि वह राजा अजयपाल से संधि कर ले. कफ्फू अभी भी अटल था अपनी बात पर. उसने ठान लिया यदि उसका सिर धड़ से अलग हो जाए तब भी वह राजा के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करेगा.
कफ्फू ने अपने हथियार सम्भाले और घोड़े पर सवार होकर महल से निकला और टूट पड़ा दुश्मन की सेना पर. वीरता का वह सर्वोत्तम परिचय दे रहा था. उसने अकेले ही राजा अजय पाल की पूरी सेना को धराशाही कर दिया. खून की नदियां बह निकली. लाशों से धरती पट गई. अजयपाल की सेना को नष्ट करने के बाद थका हुआ कफ्फू गंगा के तट पर आकर विश्राम करने लगा.
उसी समय कफ्फू की सेना का एक सरदार दूसरी जगह अजयपाल की सेना की एक टुकड़ी से अपने कुछ सैनिकों के साथ युद्ध लड़ रहा था किंतु वह सभी अजयपाल की उस सैनिक टुकड़ी के द्वारा मारे गए.
कफ्फू की मां ने यह भयानक नर संहार देखा और वह दुःखी व स्तब्ध रह गई और उसने विचार किया कि कफ्फू का भी यही हाल हुआ होगा.
अंततः उन्होंने निर्णय लिया कि दुश्मन के हाथों मारे जाने से बेहतर स्वयं को खत्म कर लेना है. इस तरह उन्होंने अग्नि प्रज्वलित कराई और कफ्फू के परिवार समेत उसमें समाहित हो गई. जब कफ्फू विजयोपरांत महल में वापस आया तो वह इस विभीषिका को देखकर अवाक खड़ा रह गया.
इस भयानक क्रन्दनीय दृश्य को देखकर अपने महल के फाटक पर वह पत्थर सा बन गया. इसी बीच अजयपाल की सेना की बची हुई टुकड़ी महल में दाखिल हुई और उसने कफ्फू की यह दुर्दशा राजा अजय पाल को बताई. वह बहुत प्रसन्न हुआ और अपने सैनिकों से कहा कि यदि कफ्फू उनकी बात नही मानता है, उनकी आधीनता स्वीकार नही करता है तो उसका सिर धड़ से अलाहिदा कर दिया जाए, कुछ इस तरह से कि उसका सिर हमारे कदमों में आकर गिरे.
जब सैनिक कफ्फू का सिर काटने लगे तो उसने भयंकर क्रोध में अपने सिर को झटका और वहां की अपनी धरती की दो मुट्ठी धूल को अपने मुंह मे रखकर निगल गया और बड़ी बहादुरी तथा नफरत भरी मुस्कान से राजा अजय पाल की तरफ देखा. कहते हैं जब कफ्फू का सिर धड़ से जुदा हुआ तो वह राजा के चरणों पर गिरने के बजाए राजा के सिर पर जा टकराया.
राजा अजय पाल कफ्फू की इस बहादुरी व वीरगति के आगे नतमस्तक हुआ और उसने बड़े सैनिक सम्मान के साथ गंगा के किनारे कफ्फू चौहान का अंतिम संस्कार किया.
पादरी ई एस ऑकले एवं बैरिस्टर तारा दत्त गैरोला की पुस्तक के एक इस हिस्से का अनुवाद कृष्ण कुमार मिश्र ऑफ मैनहन द्वारा किया गया है.
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
लखीमपुर खीरी के मैनहन गांव के निवासी कृष्ण कुमार मिश्र लेखक, फोटोग्राफर और पर्यावरणविद हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहने वाले कृष्ण कुमार दुधवालाइव पत्रिका के संपादक भी हैं. लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए पुरस्कृत होते रहे हैं.
गढ़वाल की विवाहिताओं द्वारा बसंत में गाये जाने वाले खुदेड़ गीत
गढ़वाली राजा जिसके आदेश पर प्रजा अंग्रेजों की मुर्गियां और कुत्ते पालकी में ढ़ोती थी
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…