जब कभी कफल्टा हत्याकांड 1980 की बात होती है तो ठीक-ठाक बुद्धिजीवियों का भी यह मत होता है कि जो हुआ वह बुरा हुआ पर इतने साल बाद इस पुरानी बात को याद करने का कोई मतलब नहीं है. सवर्णों के बीच तो यह बात एक घोषित तथ्य के रूप में चलती है कि कफल्टा हत्याकांड क्रिया की प्रतिक्रिया थी. एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि अब कफल्टा हत्याकांड की बात नहीं कहा जाना चाहिये क्योंकि ऐसा यानी की जातिगत भेदभाव नहीं होता. इन सभी सवालों से मिलकर एक सवाल जो बनता है कि हर साल कफल्टा हत्याकांड को याद किये जाने की जरूरत क्या है?
(Kafalta Massacre 1980)
कफल्टा हत्याकांड 14 लोगों को जिंदा जला देने तक की बात नहीं है यह बात है 14 ऐसे लोगों की निर्मम हत्या की जिन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिये आवाज उठाई , यह बात है 14 ऐसे लोगों की निर्मम हत्या जिन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिये लड़ाई लड़ी यह बात 14 ऐसे लोगों की निर्मम हत्या जिन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिये अपनी जान दे दी. क्या 14 ऐसे लोगों को बार-बार याद नहीं किया जाना चाहिये?
क्या आज उत्तराखंड में जातिगत भेदभाव की घटना नहीं होती? जातिगत भेदभाव का विरोध करने वालों को गालियाँ नहीं दी जाती? जब सबकुछ सही है तो कफल्टा हत्याकांड को धमकी भरे लहजे में आज भी क्यों इस्तेमाल किया जाता है?
(Kafalta Massacre 1980)
हाल ही में अल्मोड़ा जिले में एक दुल्हे को विवाह के समय घोड़ी चढ़ने से रोकने की खबर अखबारों में छाई रही. दर्शन लाल के पुत्र विक्रम कुमार कफल्टा हत्याकांड में पीड़ित परिवार के नातेदार हैं. 1980 में हुआ कफल्टा हत्याकांड में पीड़ित उस परिवार के सदस्य थे जिनके पूर्वज हरकराम आर्य 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय 18 महीने जेल में रहे. फिर 1947 के बाद 1980 तक दलितों को क्या मिला और 1980 के घृणित हत्याकांड के बाद 2022 तक सवर्णों के जातीय दंभ में कितनी कमी आई?
आज़ादी के इतने सालों बाद भी जब एक गांव की तीसरी पीढ़ी अपनी आज़ादी के अधिकारों के लिये लड़ रही है तब हर साल कफल्टा हत्याकांड को याद किये जाने की जरूरत है. जरूरत है 14 लोगों को सम्मानपूर्वक याद करने की जिन्होंने अच्छे भविष्य के लिये अपनी जान की भी परवाह नहीं की.
(Kafalta Massacre 1980)
उत्तराखंड में हाल के वर्षों हुई दलित उत्पीड़न की घटनायें:
नैनीताल के ओखलकांडा में दलित भोजन माता का बनाया खाना खाने से इनकार
नैनीताल में सवर्णों ने दलित ग्राम प्रधान की गाड़ी पंचर की और दलितों का सामान नहीं उतरने दिया
चम्पावत में दलित भोजन माता के हाथों बना मिड डे मील बहिष्कार मामला
टिहरी में दलित युवक की हत्या अपवाद नहीं है
उत्तराखंड में लोगों के लिये दलित हत्या कोई बड़ी बात नहीं है
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पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…