आज कबूतरी देवी जिंदा होती तो? बीमारी की वजह से अस्पताल के चक्कर काट रही होतीं, उनके परिजन मिन्नतें कर रहे होते. संस्कृति विभाग से मिलने वाली मामूली पेंशन का 6 महीने तक इन्तजार कर रही होतीं.
पिछले डेढ़ दशक से कबूतरी देवी के बीमार और स्वस्थ होने का सिलसिला चल रहा था. उन्हें हल्द्वानी से दिल्ली एम्स तक कई दफा भर्ती कराया गया. पिछले साल जुलाई की शुरुआत में वे एक बार फिर बीमार पड़ी. उन्हें पिथौरागढ़ के बीमार अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया. यहाँ से उन्हें इलाज के लिए हायर सेंटर ले जाने की जरूरत पड़ी और उसके लिए हेलिकॉप्टर की व्यवस्था की जानी थी. पिथौरागढ़ की नैनी सैनी हवाई पट्टी में चमकती आँखों के साथ हेलिकॉप्टर का इंतजार करती उनकी तस्वीरें आखिरी साबित हुईं. हेलिकॉप्टर नहीं आया. कबूतरी देवी का मौत का इन्तजार ख़त्म हुआ.
अपने पति की मौत के बाद से शायद वे मरने का ही इन्तजार कर रही थीं. अपने आखिरी वक़्त तक वे गाने गाती थीं और बेहतरीन गाती थीं. इसके बावजूद किसी ने उनके पास मौजूद लोकगीतों की धरोहर को संजोने की जरूरत नहीं समझी. सभी सरकारी, गैर सरकारी मेले उनकी आवाज के बिना संपन्न होते रहे. उस दिन नैनी सैनी में कबूतरी देवी अकेली नहीं थीं उनके साथ बैठा था हमारा बीमार मरणासन्न लोक और तंत्र.
कबूतरी देवी पर विस्तार से जानने के लिए उनका इंटरव्यू पढ़ें: लोक द्वारा विस्मृत लोक की गायिका कबूतरी देवी
कबूतरी देवी के जीवन में उत्तराखण्ड के लोकसंस्कृति की यात्रा भी देखी जा सकती है. उनकी जीवन यात्रा एक प्रतिभावान दलित महिला की प्रतिभा के असमय ख़त्म हो जाने की भी कहानी है. इस यात्रा में वर्गीय के साथ-साथ लैंगिक और जातीय चोटों के घाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं.
कबूतरी देवी तभी तक गा सकीं जब तक कि उनके पति जिंदा रहे. रेडियो उस समय मनोरंजन का बादशाह हुआ करता था और कबूतरी रेडियो पर राज करती थी. जबकि वह गायिका के रूप में उनका शैशव काल था. इसके बावजूद उन गुमनामी के अंधेरों में उन्हें ढूँढने कोई नहीं गया. लोग याद करते हुए सोचते होंगे कहीं मर-खप गयी होगी. उन्होंने बहुत कम समय तक गाया लेकिन दिलों पर राज किया. कल्पना करें कि वे लगातार गाती रहती तो उत्तराखण्ड के लोकसंगीत के लिए कितना कुछ छोड़कर जाती.
इस गुमनामी में खो जाने की वजह उनकी आर्थिक स्थिति के अलावा जातीय व लैंगिक रूप से समाज के हाशिये पर पड़े वर्ग से आना भी था. जैसा कि हम जानते हैं उत्तराखण्ड की विभिन्न सांस्कृतिक विधाएं निचली समझी जाने वाली जातियों के हाथ में रही हैं. विभिन्न साज बनाना-बजाना, लोकगायन, लोकनृत्य गन्धर्व या मिरासी कही जाने वाली जातियों-उपजातियों के लोगों का ही काम हुआ करता था. जागर तक इनके बिना संपन्न नहीं होते. उत्तराखण्ड का हस्तशिल्प, परंपरागत भवन निर्माण में लकड़ी व पत्थर की कारीगरी सभी कुछ इन्हीं के हिस्से था. लेकिन इसके बदले न इन्हें वह सम्मान मिला न जीवन यापन के पर्याप्त संसाधन. इसलिए नयी पीढ़ी ने उन कामों को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली जिन्हें पुरानी पीढ़ी के लोह अपना दायित्व समझकर किया करते थे. लिहाजा बहुत कुछ इन पीढ़ियों के साथ ही दफन होता रहा और हो रहा है.
कबूतरी देवी इसी जाति की उस आखिरी पीढ़ी की लोकगायिका थी, जो बदहाली में भी परंपरा के उस अनमोल खजाने को ढोती रही. संगीत ने उन्हें सम्मानजनक जीवन तक नहीं दिया. वे क्या उनका पूरा कुनबा ही उत्तराखण्ड की पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली विलक्षण संगीत परंपरा का वाहक था. उनकी आने वाली पीढ़ी ने इस सबसे किनारा कर शहर में मजदूरी करना ज्यादा बेहतर समझा. शहर में मेहनत-मजदूरी करना हमारे इन लोकगायकों को ज्यादा अच्छी जिंदगी दे देता है. यह कहानी कबूतरी ही नहीं उन जैसे सभी कलाकारों, शिल्पियों की है. कुछ दुर्गति झेलते हुए मर-खप गए हैं कुछ इस रास्ते पर हैं. कबूतरी देवी के साथ ही संगीत की दुर्लभ धरोहर भी लोक छोड़ गयी.
कबूतरी देवी के पास खुद के गाये गाने भी नहीं थे. वे उनसे मिलने जाने वाले सभी लोगों से अनुरोध किया करतीं कि उनके गाये गाने, तस्वीरें आदि कहीं मिल सकें तो उन्हें ला दे. लेकिन यह उनके जीत-जी यह न हो सका. उनके गीतों, तस्वीरों, वीडियो फुटेज और उनसे जुड़ी हर जानकारी को संस्कृति के ठेकेदारों ने उनकी मृत्यु के बाद भुनाने के लिए दबाकर रखे रखा, भुनाया भी. यह देखकर हैरानी होती है कि आज भी उनकी हस्ती को भुनाने का सिलसिला जारी है. काश हम जीते जी उनके पास मौजूद संगीत को सहेज पाते. उनके गीत रिकॉर्ड कर पाते.
-सुधीर कुमार
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