श्रीनगर से अल्मोड़ा वाया सोमेश्वर : एक यात्रा
श्रीनगर से अल्मोड़ा की ओर भोर में चले हैं. नींद से जागती हुयी प्रकृति का सौंदर्य और उसमें मानव, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों की सुबह-सुबह की हलचल को चलती गाड़ी से देखने का आनंद ही कुछ और है. श्रीनगर बांध के पानी में कोहरे की चादर बिछी हुई है, जो धीरे-धीरे ऊपर उठती जा रही है. कुछ ही समय में सारी श्रीनगर घाटी को यह कोहरा अपनी आगोश में ले लेगा. कोहरा छटने के बाद एकदम दिन का अहसास होता है. श्रीनगर से कर्णप्रयाग (66 किमी) जाते हुए गाड़ी की रफ्तार का मुकाबला हमारे विपरीत दिशा में बहती अलकनंदा नदी से हो रहा है. सड़क खाली और सुनसान है. अलकनंदा के बहते पानी और सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी का एकसार शोर ही वातावरण की नीरवता को तोड़ते हुए हमारे साथ-साथ है. (Journey from Srinagar to Almora through Someshwar Valley)
सड़क के दोनों ओर कदम-कदम पर छोटी-बड़ी इमारतें उग आई हैं. खेती की जमीन को निगलती इन इमारतों का फैलाव अनवरत जारी है. बचपन से नाता रहा है मेरा इस सड़क से. हर बार, सड़क के दोनों ओर की कुछ और नई जमीन सीमेंट से पुती/ढंकी मिलती है. रुद्रप्रयाग, घोलतीर, गौचर, कर्णप्रयाग और सिमली में भयंकर रूप से फैलते और उठते निर्माण कार्यों को देखकर मन कहता है कि ‘अब तो बस करो, भाई. जान ही ले लोगे क्या ? इन स्थलों की.’ पर आम आदमी से लेकर नीति-नियंता के दिमाग में विराजमान ‘विकास’ ‘मन’ की नहीं ‘मनी’ के फायदे की सुनता और मानता है. (Journey from Srinagar to Almora through Someshwar Valley)
‘भाई सहाब यहीं से मुड़ना है ना, गैरसैण के लिए.’ सीताराम की आवाज से मेरा ध्यान पलटता है. ‘हां भाई, तुम पहले भी तो कई बार इस ओर आए हो.’ मैंने कहा, तो वो कहां चुप रहने वाला, ‘आप ही तो कहते हैं कि जहां दो सड़कें हो वहां अपनी जानकारी जरूर पक्की कर लेनी चाहिए.’ मेरी ही बात, मुझको वापस कर सीताराम और इन्द्रेश मुस्कराते हैं. कर्णप्रयाग से सिमली (7 किमी.) है. सिमली से सीधी सड़क ग्वालदम (90 किमी.) और दांये सड़क गैरसैण (44 किमी.) की ओर है.
सड़क के दांई ओर चांदपुरदुर्ग का बोर्ड लगा है. सड़क से आधा किमी. पैदल चढ़ाई चलकर गढ़वाल की प्राचीन राजधानी चांदपुरगढ़ किले का ध्वस्त ढांचा हमारे सामने हैं. यह स्थल चारों ओर से ऊंचे पहाड़ों के बीच में स्थित पहाड़ी की चोटी पर है. मान्यता है कि आठवीं सदी में राजा कनकपाल ने यह दुर्ग बनाया था. (बाद में 16वीं सदी में उसके 37वें वंशज राजा अजयपाल ने गढ़वाल के 52 गढ़ों को एक करके गढ़वाल राज्य की राजधानी चांदपुरगढ़ से बदलकर श्रीनगर के पास देवलगढ़ में बनाई थी.). किले के मुख्य परिसर में ही राजराजेश्वरी नंदादेवी का मंदिर है. चांदपुरगढ़ में चारों तरफ सैनिक छावनियां और बीच में महल के जीर्ण-शीर्ण निशान दिखाई दे रहे हैं. बड़े-बड़े तराशे हुए मजबूत और भारी-भरकम पत्थरों को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन है कि कैसे इनको यहां लाया गया होगा ? मुख्य प्रवेश द्वार के पास ही एक कुआं दिख रहा है, जिसे मिट्टी-पत्थरों से पाट दिया गया है. पता लगा कि यह कुआं नहीं वरन एक लम्बी सुरंग थी, जो नीचे बह रही आटागाढ़ नदी से पानी लाने के लिए प्रयोग में लाई जाती थी. किले और सैनिक छावनी के अवशेषों के ढ़ेर में एक बोर्ड लटकी हुई अवस्था में है. उस पर लिखी सलाह ‘कृपया सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में आगे आयें’ पर्यटकों के लिए है. ताज्जुब है, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की सलाह का यह बोर्ड खुद धराशाई है.
चांदपुरगढ़ से आदिबद्री पहुंचे है. आदिबद्री में सड़क के बांयी ओर के छोर पर 8वीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा निर्मित 16 मंदिरों का एक समूह है. इसमें भगवान बदरीनाथ का मंदिर मुख्य है. आदि बदरी से आगे सड़क चढ़ाई की ओर है. दोनों ओर के पहाड़ों में बांज और बुरांश का जंगल अब और घना होने लगा है. जंगलचट्टी से गुजरते चार दशक पहले की याद ताजा हो गई. तब रोडवेज की बस खराब होने के कारण रातभर यात्रियों के साथ कड़ाके की ठंड में यहां रात बिताई थी. उस दौर में जंगलचट्टी में घास-फूस की ही कुछ दुकानें होती थी और उनमें केवल दूध मिलता था. नजदीकी ग्रामीण सुबह दूध लेकर आते और दोपहर बाद जगंलचट्टी से आखिरी बस जाने के बाद वापस अपने घरों को चल देते थे.
जंगलचट्टी की धार पर दिवालीखाल है. दिवालीखाल में नाश्ता करने से पहले यह तय हुआ कि यहां से 4 किमी. दूरी पर भराड़ीसैण (समुद्रतल से ऊंचाई 2300 मी.) में स्थित नवीन उत्तराखंड विधानसभा परिसर को देख लिया जाए. इंद्रेश मैखुरी अब गाड़ी चला रहे हैं. उनके पास विगत में जब-जब विधानसभा सत्र यहां संचालित हुए हैं, उस दौरान के कई रोचक किस्से हैं. भराड़ीसैण में राज्य बनने से पहले एशिया का प्रसिद्ध गोवंशीय संकर प्रजनन केन्द्र था, जो अब वीराने के हवाले है. रास्ते में करोड़ों की लागत से बनी विदेश से आयातित भीमकाय मशीन को दिखाते हुए इंद्रेश कहते हैं, वर्षों पहले ये मशीन आई और बिना उपयोग में आये यहीं पड़ी-पड़ी खराब हो गई है. विधानसभा के नव-निर्मित भवनों के चारों ओर तेजी से बहती हवा की सांय-सांय ही सुनाई दे रही है. कोई सुरक्षा कर्मी भी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है. सचिवालय कर्मियों का यहां होना तो सभंव ही नहीं है. करोड़ों की लागत से बने इस विधानसभा परिसर का मूकदर्शी और सुरक्षाकर्मी सामने खड़ा हिमालय का विशाल फैलाव ही है. उत्तराखंड राज्य में चांदपुरगढ़ और विधानसभा परिसर, भराड़ीसैण की बैचेनी और वीरानगी एक जैसी ही है, समय का अन्तराल चाहे 600 साल का है.
दिवालीखाल में सुबह से ही गहमागहमी है. पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों और समर्थकों की महकती हुई भीड़ चारों ओर है. चुनाव में उठने-बैठने की बातें तथा जीत-हार के दावे चहुंओर हैं. हर कोई प्रधान और ब्लाक प्रमुख बनने की मुद्रा में हैं. सुबह के 9 बजे हैं और नाश्ते के लिए दिवालीखाल में बिना शराब की महक वाला रेस्टोरैंट मिलना मुश्किल हो रहा है. चुनाव और शराब का सीधा रिश्ता जो ठहरा.
दिवालीखाल से गैरसैंण की ओर उतराई का रास्ता है. सामने दूधातोली के शिखर हैं. गढ़वाल की पूर्वी और पश्चिमी नयार नदी का उदगम क्षेत्र दूधातोली है. गैरसैण (समुद्रतल से 1313 मीटर ऊंचाई) को पहले गैड़सैंण कहते थे. गढ़वाल के प्राचीन गढ़ों में लोहबागढ़ इसी को कहा जाता था. ब्रिटिश राज में यहां सिलकोट टी स्टेट हुआ करती थी. वर्तमान में गैड़ गांव (लोहबा पट्टी) का सैण वाला भाग गैरसैण है. गैरसैण के चारों ओर से बांज, बुरांस, अतीस, चीड़, देवदार के घने जंगल वन्यता, खेती और पशुपालन की सम्पन्नता को लिए हैं. पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा का यह भू-भाग एक साझी सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक है.
व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क में हर जगह की एक विशिष्ट छवि होती है. गैरसैण हमारी मन की राजधानी है. परन्तु इसके साथ-साथ गैरसैण इसलिए भी प्रिय है कि यहां बड़े भाई और वरिष्ठ पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा जी रहते हैं. बिना उनसे मिले आगे चलना संभव ही नहीं है. धुनारघाट, सैंजी, आगर चट्टी, फरसौं के बाद आया है मेहलचौरी. मेहलचौरी पुल के पास से सीधे एक सड़क खनसर इलाके की ओर है. मेहलचौरी से गुजरते हुए यहां के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वर्गीय चंद्र सिंह ‘यायावर’ की याद आना स्वाभाविक है. दिल्ली में वर्ष 1987 को उच्च सरकारी पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद समाजसेवा की लगन लिए वे अपने गांव मेहलचौंरी आ गए थे. मेहलचौरी से दूधातोली के लिए सड़क है. कभी यह गढ़वाल-कुमाऊं आने-जाने का पैदल राजपथ हुआ करता था.
मेहलचौरी से पंडुवाखाल 7 किमी. है. रास्ता पूरी चढ़ाई का है. कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा पर पहाड़ की चोटी मेें पंडुवाखाल (समुद्रतल से ऊंचाई 1750 मीटर) बसा है. पंडुवाखाल आधा कुमाऊं में और आधा गढ़वाल में है. एक ही भवन के निचले तल पर सड़क किनारे की दो दुकानें दिखाई दे रही है. दांई ओर की ‘संगिला ऐजेन्सी’ कुमाऊं में और बांये ओर की ‘मोहित जनरल स्टोर’ गढ़वाल में है. पंडुवाखाल पर्वत श्रृखंला ग्वालदम की चोटियों तक जाती है. बताते हैं कि शताब्दियों पूर्व गढ़वाल और कुमाऊं राज्य में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इन चोटियों पर रात में अलाव जलाये जाते थे. अलावों की संख्या और आकार के आधार पर सूचनाओं के संकेतों को समझा जाता था.
पंडुवाखाल से चौखुटिया 19 किमी. है. चौखुटिया माने चार खुटे (पैर) के बीच में फैला विस्तीर्ण क्षेत्र. रास्ता उतराई का है. कुमाऊं की खुली और हरी-भरी घाटियां नजर आने लगी हैं. भूगोल के साथ ही लोगों की लोक भाषा की लय-ताल में फर्क दिखने लगा है. चौखुटिया बाजार के पुल से पहले गनाई बाजार है. गनाई के निकट प्राचीन कत्यूरी राजाओं का प्रसिद्ध वैराटगढ़ था. कुमाऊं की लोकप्रिय प्रेमगाथा ‘राजुला मालूशाही’ का कथानक इसी वैराटगढ़ में जीवन्त हुआ था. गनाई के पास अग्नेरी देवी मंदिर राजुला और मालूसाई के प्रणय का प्रत्यक्षदर्शी माना जाता है. पश्चिमी रामगंगा के तट पर चैत की अष्टमी को अग्नेरी देवी का मेला मनाया जाता है. कभी यह इलाका जबरदस्त खेती और घने जंगलों से धनी था. गनाई पुल पार करते ही बायीं ओर द्वाराहाट और दायीं ओर रामनगर की ओर सड़क है. चौखुटिया से रामनगर 128 किमी. है. इसी सड़क पर 13 किमी. पर मासी है, जहां का वैशाख में लगने वाला सोमनाथ मेला मशहूर है. कभी इसे ‘सल्टिया’ मेला भी कहा जाता था. इस मेले में रात भर झोड़ा, चांचरी, छपेली आदि नृत्य होते थे और दिन में प्रमुखतया पशुओं का व्यापार होता था.
चौखुटिया से द्वाराहाट (समुद्रतल से 1674 मीटर की ऊंचाई) 18 किमी. है. द्वाराहाट चीड़, देवदार, बांज, बुरांस और काफल के घने जंगलों के बीच बसा है. मानसखंड में द्वाराहाट को हिमालय की द्वारिका कहा गया है. कत्यूरी राजाओं के कला प्रेम और धर्म निष्ठा के प्रतीक के रूप में उनके द्वारा बनाए गये 30 से अधिक मंदिरों का समूह यहां है. राहुल सांकृत्यायन ने द्वाराहाट के मंदिरों का निर्माण 11वीं सदी के आस-पास माना हैं. द्वाराहाट के मंदिरों में महामृत्युंजय और गूजर देव मंदिरों का विशिष्ट महत्व है.
द्वाराहाट की छाप मेरे मन-मस्तिष्क में बचपन से ही ‘ओ भिना कसकै जानूं द्वरहटा ?’ (ओ जीजा, मैं कैसे जाऊं द्वाराहाट ?) कुमाऊंनी गीत से जुड़ी है. बचपन में आकाशवाणी के कलाकारों (इनमें शायद शेरदा ‘अनपढ़’ भी थे) को कभी जोशीमठ के नृसिंह मंदिर परिसर में इस गाने में नाचते-गाते देखा था. पहाड़ी ग्रामीण जनजीवन में द्वाराहाट जैसे केन्द्रीय स्थल आधुनिकता के प्रमुख आर्थिक और सांस्कृतिक आधार रहे हैं. इसीलिए पहाड़ के लोक साहित्य और लोक परम्पराओं में ग्रामीणों के शहरी आर्कषण के प्रतीक स्वरूप इनका जिक्र बखूबी हुआ है.
द्वाराहाट से अल्मोड़ा के लिए दो रास्ते हैं. एक रानीखेत (32 किमी) होते हुए और दूसरा सोमेश्वर (35 किमी.) से जा सकते हैं. हमें सोमेश्वर से अल्मोड़ा जाना है. द्वाराहाट से ही एशिया की सबसे खूबसूरत सोमेश्वर घाटी शुरू हो जाती है. द्वाराहाट से 6 किमी. चलकर ‘दूनागिरी 8 किमी.’ का बोर्ड सामने दिख रहा है (दूनागिरी पर्वत पर दूनागिरी देवी का मंदिर है. दूनागिरी वैष्णवी शक्तिपीठ है). हम दूनागिरी वाली सड़क को छोड़कर नीचे वाली सड़क से आगे बढ़ते हैं. पहाड़ की ऊंची घार से बांज, बुरांश और चीड़ के जगंल से ढुलकती-लुढ़कती सड़क के सामने प्रकृत्ति का जो कैनवास दिख रहा है, वह अदभुत है. लम्बी-चौड़ी घाटी में धान और अन्य फसलों की हरितिमा फैली हुई है. धान के अलावा भट्ट और सोयाबीन की खेती यहां खूब होती है. कहीं भी खेत और मेंड़ बिना पैदावार के खाली नहीं है. मैं जब भी इस घाटी से गुजरता हूं, फसलों की महक से मन सरोबार हो जाता है. घान के पकने के समय तो उसकी खुशबू से तर सोमेश्वर घाटी का सफर और भी सुहावना हो जाता है. साल-भर पानी की भरपूर उपलब्धता के कारण इस उर्वरक घाटी में 12 महीने खेतों में कोई न कोई फसल रहती है. इसीलिए सोमेश्वर घाटी बारहनाजी खेती (एक खेत में, एक साथ, एक ही समय में 12 या अधिक फसलों का उगना और तैयार होने को बारहनाजी खेती कहा जाता है.) के लिए मशहूर है. इन्द्रेश और सीताराम सोमेश्वर घाटी की ओर पहली बार आये हैं. वे घाटी के सौंदर्य से अभीभूत हैं. इन्द्रेश कहते हैं कि भाईसहाब, आपने सोमेश्वर घाटी के बारे में बताने के लिए कहा था. वाकई, यह क्षेत्र बहुत खूबसूरत और धन्य-धान्य से परिपूर्ण लग रहा है. ‘मैं तुम्हें बताने के साथ सोमेश्वर में ‘भट्ट के डुबक’ भी खिलाऊंगा. बस, खाते ही जाओगे, पेट भरेगा मन नहीं.’
मैं उन्हें बताता हूं कि ‘पिलग्रिम’ नाम से लिखने वाले अंग्रेज घुम्मकड़ पी. बैरन ने सन् 1832 में उत्तराखंड के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा की थी. उन्होने अपने यात्रा संस्मरण को सन् 1844 में ‘पिलग्रिम्स वण्डरिंग्स इन द हिमाला’ शीर्षक से प्रकाशित किया था. इस किताब में उन्होने सोमेश्वर घाटी की प्राकृतिक सुन्दरता, भवनों की भव्यता, खेती की सम्पन्नता और लोगों की खुशहाली को अद्वितीय माना था. इसी प्रकार अंग्रेज प्रशासक बैटन ने भी सोमेश्वर घाटी को एशिया की सबसे खूबसूरत घाटी कहा था.
सोमेश्वर घाटी कोसी और सांई नदी के तट पर बसी है. कोसी को कौशल्या और सांई नदी को शालिवाहिनी भी कहा जाता है. शालि नाम घान का भी है. और यह क्षेत्र धान की उपज के मशहूर है. यहां दर्जनों किस्म की घान की भरपूर पैदावार होती है. सोमेश्वर घाटी ‘हुड़किया बौल’ गायन के लिए विख्यात है. लम्बे-चौड़े खेतों में एक ही परिवार के सदस्यों से रूपाई न हो पाने की दिक्कत से उभरने के लिए सामुहिक रूपाई का रिवाज यहां अभी भी प्रचलित है. उस समय ‘हुड़किया बौल’ की लय-ताल में लोकगीत गाते हुए रूपाई करते ग्रामीणों का उत्साह और आनंद अदभुत होता है. यह हमारे पहाड़ की सामुहिक उद्यमशीलता के सौंदर्य का भव्य दर्शन है.
सोमेश्वर घाटी की बसासत के बारे में कहा जाता है कि कुमाऊं की राजधानी चम्पावत से 16वीं शताब्दी में अल्मोड़ा स्थानांतरित होने पर चन्द राजाओं द्वारा बलशाली बोरा लोगों को यहां बसाया गया था. इसी कारण इस क्षेत्र में प्राचीन समय में सैनिक छावनियां थी. सोमेश्वर घाटी वल्ला और पल्ला बोरारौ पट्टी में फैली होने के कारण इसे ‘बोरारौ घाटी’ भी कहा जाता है. ‘रौ’ का अर्थ ‘तालाब’ और ‘जागीर’ दोनों होता है. कहा जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी तालाबों से समृद्ध थी. दूसरे अर्थ में बोरा लोगों के आधिपत्य के कारण उनकी जागीर वाले क्षेत्र को बोरारौ कहा गया.
द्वाराहाट से बिन्ता 20 किमी. है. अभी-अभी छुट्टी से छूटे राजकीय इंटर कालेज, बिन्ता के बच्चे हमसे गाडी में लिफ्ट की आस में हाथ आगे करते मिल रहे हैं. लिहाजा, तीन बच्चे भी अब हमारी गाड़ी में हैं. बिन्ता से 4 किमी. की पैदल चढ़ाई चलकर वे अपने घर पहुंचेगे. रोज का 14 किमी. पैदल आना-जाना उनका हो जाता है. मैं उनसे सोमेश्वर घाटी के मालौंज और लखनाड़ी गांवों के बारे में पूछता हूं. वे इन गांवों नहीं जानते हैं. इस पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ है. मैं अपने चामी गांव में रहते हुए इस बात को जानता हूं कि अब गांवों में भी बच्चे अपने परिवेश से दूर होते जा रहे हैं. मैं उन्हें बताता हूं कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत मालौंज गांव के थे. उनमें एक कहता है ‘वे तो उप्र. के पहले मुख्यमंत्री थे’. अरे, भाई मुख्यमंत्री वाले पंत जी से अलग उन्हीं के नाम राशि के साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत भी हुये थे. वो बच्चा बहुत बड़ा ‘अच्छा !’ कहकर मुस्कराता है. अब मैं लखनाड़ी गांव के अपने मित्र और ख्यातिप्राप्त साहित्यकार कपिलेश भोज और सोमेश्वर घाटी के बारे में बताता जा रहा हूं. परन्तु ‘हमें यहीं उतरना है’ कहकर एक बच्चे ने मेरे धारा-प्रवाह उपदेशात्मक भाषण को विराम दे दिया है. बिन्ता मोड़ से सीधे वाली सड़क बग्वाली पोखर से रानीखेत और बांयी ओर को मुड़ने वाली सड़क सोमेश्वर की ओर है. बिन्ता से सोमेश्वर 15 किमी. है. सोमेश्वर कस्बे में सांई और कोसी नदी का संगम होता है.
सोमेश्वर से मनान के बाद कोसी है. कोसी से पहले ही रानीखेत की ओर की सड़क पर 2 किमी. चलने के बाद बायें ओर के लिंक मार्ग से 3 किमी. दूरी पर कटारमल का सूर्य मंदिर (समुद्रतल से ऊंचाई 1414 मीटर) है. गढ़वाल में देवप्रयाग के पास पलेठी गांव में भी सूर्य मंदिर है. परन्तु प्रसिद्धि कोर्णाक के सूर्य मंदिर की ही है. कत्यूरी राजाओं द्वारा 9वीं शताब्दी में कटारमल मंदिर बनना प्रारंभ हुआ था. मुख्य मंदिर के ठीक सामने पूर्व दिशा की ओर अल्मोड़ा नगर का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा है. मुख्य मंदिर के साथ 44 छोटे-छोटे मंदिरों का भी समूह है. वर्तमान समय में सूर्यदेव की 12वीं शताब्दी में निर्मित मुख्य प्रतिमा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संरक्षित की गई है. स्थानीय वास्तुशिल्प का यह उत्कृष्ट स्थल अभी भी अधिकांश पर्यटकों की नजरों से ओझल है. कटारमल गांव के लोगों को 2 किमी. की दूरी से पानी ढोते हुए देखकर तो यही लगता है जब नीति-नियंता इस पौराणिक स्थल में पेयजल जैसी मूलभूत सुविधा नहीं दे पा रहे हैं, उनसे पर्यटकों को इस दर्शनीय स्थल की ओर आकर्षित कराने की नीति बनाना और उसे लागू कराना तो दूर की बात है.
कोसी से अल्मोड़ा 12 किमी. है. घोड़े की पीठनुमा आकार वाले पहाड़ के दोनों ओर अल्मोड़ा पसरा है. सूर्योदय और सूर्यास्त के समय अल्मोड़ा की खूबसूरती और निखर जाती है. कोसी से चलो तो पूरे 12 किमी. अल्मोड़ा आपको एकटक देखता रहेगा. आपकी नजरें भी उसी ओर रहेंगी. यह दोनों तरफ के मोह की आतुरता है. अल्मोड़ा की ओर आता आदमी मन ही मन कहता है, बस मैं आ ही गया, तुम्हारे पास और अल्मोड़ा के भाव ये संदेश देता है कि मैं देख तो रहा हूं तुम्हें, मेरे पास आते हुए.
शाम का सूरज अपने रोज के ठिकाने पर पहुंच रहा है, दूसरी तरफ अल्मोड़ा ने यह कहकर कि ‘कितने दिनों बाद आये हो’, भींच लिया है हमें, अपने आगोश में.
–अरुण कुकसाल
(वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है)
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