सुबह बारिश ने जोर पकड़ लिया था. बारिश रूकने का इंतजार करने लगे. लखनऊ की ज्योलोजिकल सर्वे आफ इंडिया की टीम भी बगल में ही रूकी थी. दो माह मिलम ग्लेशियर में शोध करने के बाद अभी वो नीचे उतरे थे. कुछ दिनों बाद मार्तोली को जाएंगे.
बारिश हल्की हो गर्इ थी तो मुनस्यारी से धापा के आगे चिलम धार तक के लिए जीप कर ली थी. यहां सड़क को काट कर भारी भरकम बोल्डर व मिटटी को नीचे फैंकने से मुख्य पैदल रास्ता बंद हो गया था. बोल्डरों के मलवे में ही जो रास्ता मजबूरी में लोगों के चलने से बना है वो इस ट्रैक का एक तरह से शुरूआत में ही इंतहान ले लेता है. गोरी नदी के किनारे जिमघाट तक पहुंचने के लिए बोल्डरों में फिसलने की मार, कीचड़ व जोंक के हमले से बचने के लिए शरीर के जो नाना आसन बनाने पड़े वो अदभुत थे. गंगा सिंह टोलिया की दुकान यहां जिमीघाट गाड़ व गौरी नदी के संगम तट पर मिली. पहले उनकी दुकान शंभू गाड़ के पास थी. पैदल रास्ता बंद होने से अब ठिकाना यहां बनाना पड़ा. यहां रूकने के बाद अपने शरीर का हाल जान जोंको से छुटकारा पाया. जिमीघाट गाड़ पर बने पुल की हालत काफी पतली दिखी. टोलियाजी ने बताया कि इस गाड़ का उदगम लगभग आठ किमी दूर क्वीरी जिमिया से है.
1716 मीटर की ऊंचार्इ पर बसे लीलम गांव तक जिमीघाट से हल्की चढ़ार्इ है. लीलम गांव सूना-सूना सा दिखा. सुविधा के अभावों ने ग्रामीणों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. ज्यादातर धापा व मुनस्यारी में बस गए हैं. गांव की सीमा शुरू होते ही हरमल सिंह घनघरिया की कन्ट्रोल की दुकान है. यहां थोड़ी चहल-पहल बनी रहती है. उम्र के चौथे पढ़ाव में हरमलजी तब गांव छोड़ कहीं जाने को तैयार नहीं थे. हरमलजी ने तब अपने यहां टूरिस्टों के ठहरने की भी व्यवस्था की थी. गांव के शीर्ष से मिलम के लिए सड़क बन रही है. सड़क ग्रिफ बना रही है. हरमलजी ग्रिफ के काम से खिन्न थे. कह रहे थे कि, ‘ग्रिफ ने हरे-भरे पहाढ़ काट हमारे सदियों पुराने पैत्रक रास्ते भी बंद कर दिए हैं. ना जाने कब ये रोड बनेगी. अभी ना जाने पहाढ़ों का ये कितना विनाश करेंगे. गांव के बारे उन्होंने बताया कि, ‘यहां गांव में मवासे 15 करीब थे लेकिन अब सब नीचे को ही चले गए हैं. बचे-खुचे गांव वाले मोबाइल टावर के काम ना करने पर उन्हीं के डब्लूएलएल के फोन के भरोसे रहते हैं. ये भी वक्त पर काम नहीं करता.बीएसएनएल को ही अब भेंट चढ़ाना पड़ेगा. लीलम गांव में बिजली के खड़े पोलों में तार झूलते दिखे लेकिन अभी तक यहां बिजली नहीं पहुंची है. आर्इटीबीपी की लीलम चैक पोस्ट में हांजरी देने के बाद रास्ते के किनारे नेत्र सिंह की दुकान में भोजन लिया. कुछ देर सुस्ताने के बाद आगे की राह पकड़ी.
रास्ते में रूपसिया बगड़ में भी रूकने के लिए हट बनी है. यहां का सौंदर्य ना जाने क्यों आतंकजनक सा महसूस हुवा. रास्ते में उप्पर से झरते झरने नीचे गहरी घाटी में गोरी से मिलने के लिए आतुर से दिखे. रास्ते में मिले अनगिनत झरनों में मालछेयूब झरना ही खूबसूरती में बाजी मारता दिख रहा था. पंचपाल उडियार पहुंचने तक सांझ हो चुकी थी. यहां पर गरम पानी का स्रोत होने से इसे गरमपानी पढ़ाव के नाम भी बुलाते हैं. यहां बनी रिंगाल की झोपड़ी में ही रात गुजारी. हांलाकि उप्पर चट्टान से पानी रिसने से ये जगह सुरक्षित नहीं लग रही थी. सुबह जल्द यहां से निकल गए. सालों पहले गोरी नदी ने पंचपाल उड्यार से रड़गाड़ी के लिए नीचे का रास्ता तोड़ दिया था. तब से रास्ता उप्पर पहाड़ी से एक किमी का ज्यादा फेर वाला बना है. रड़गाड़ी में पहले शामाधूरा (बागेश्वर) के कोरंगाजी ने निगाल की हट बना यात्रियों के ठहरने का पढ़ाव बनाया था. जोहार की पहली यात्रा में यहां रात में रूकना भी हुवा था, लेकिन आज यहां सब बदला-बदला सा दिख रहा था. लकड़ी के पुल की जगह लोहे का पुल ने ले ली थी. कोरंगाजी की रिंगाल की खूबसूरत झोपड़ी का कहीं कोर्इ निशान नहीं. पता लगा कि गोरी नदी के पार मुर्गी के शिकार की तीव्र इच्छा को वो दबा नहीं पाए तो उस पार जाने के लिए उन्होंने लकड़ी के लट्ठ डालकर पुल बनाने की कोशिश में वो फिसल कर गोरी के तेज बहाव में बह गए. अब यहां ठहरने की व्यवस्था आगे स्यूनी में स्थानीय लोगों ने कर रखी थी. नीचे गोरी नदी बौखलार्इ सी सांप की तरह महसूस हो रही थी. गोरी की चपेट में आयी हुर्इ चटटानों के पत्थर कर्इ तरह की मूर्त-अमूर्त आकृतियों का समूह का आभास सा करा रहे थे.
स्यूनी में देव सिंह सुमतियाल की झोपड़ी में नाश्ता लिया. पंचपाल उडियार से स्यूनी लगभग चार किमी पर एक सुंदर सा पढ़ाव लगा. बोगडयार में दिन का खाना ले आगे की राह पकड़ी. बोगडयार की ऊंचार्इ लगभग 2600मी. है. पोटिंग ग्लेशियर से आने वाली पोटिंग नदी का यहां बोगडयार में गोरी से मिलना होता है. बोगडयार से चलने के बाद रास्ते में ‘नहर पानी में एक बार रूकने का इरादा किया लेकिन फिर आगे ‘लास्पा गाड़ी तक जाने का विचार कर चल पड़े. घुप्प अंधेरे में लास्पा गाड़ी में फिसलन भरी चढ़ार्इ को पार कर कौशल्या आमा की ढलान में बनी झोपड़ी में पहुंचे. हमारे बाद कुछ नेपाली मजदूरों का झुंड भी वहां आ गया. लेकिन आमा ने उन्हें ‘मेहमान आएं हैं’ की मजबूरी जता दी. वो आगे स्यूनी पढ़ाव को चल दिए. आमा ने बताया कि, ‘ये आर्इटीबीपी का सामान ढोते हैं इन्हें आदत है दिन-रात चलने की, अकसर ये मजदूर तो मिलम से एक ही दिन में मुनस्यारी पहुंच जाते हैं. अपने मैटरस निकाल हमने अपनी जगहें बना ली. कुटिया छोटी व लंबी थी, जिसके दो हिस्से कर रखे थे. एक में मुसाफिर दूसरे में दोनों बुढ़े-बाढ़े. चुल्हे में जलती लकडि़यों की आग से कुटिया खासी गर्म हो उठी.
लास्पा गाढ़ का सुसाट-गुर्र्राट आमा की बातों में दब गया. आमा भोजन की जुगुत में जुटने लगी. ‘लास्पा गांव कितनी दूर है यहां से ? पूछने पर आमा बोली, ‘दो किमी ही होगा, हमें आधा-एक घंटा लगता है वहां पहुंचने में. आटा गूंधने से लेकर रोटी बनाने तक फिर आमा कर्इ बातें बताती चली गर्इ. ‘गांव में 30 के आसपास मवासे हैं. दसवीं तक जनजाति स्कूल के साथ ही गांव में प्राइमेरी स्कूल भी है. स्कूल में पढ़ने के नाम पर 15-16 बच्चे होंगे. वो भी स्कूल जाते हैं नहीं. घर वाले ही नहीं भेजने वाले हुवे. अब ऐसे में मास्टर ही क्या करेगा. मास्टर लवराज लसपाल तो पढ़ाने वाला हुवा ही. बेटा! हमारा परिवार भी छोटा ही है. दो लड़के हैं. लड़की का धारचूला में ससुराल है. बड़ा लड़का, बहू व नाती उप्पर लास्पा गांव में ही हैं. गांव में बन रहे चैक डैमों में लड़का मजदूरी कर रहा है. छोटा लड़का प्रकाश गाने के साथ ही ढोलक, हारमोनियम, बांसूरी बजाने में माहिर है. धरती को देख कर तो जैसे उसके बोल फूट जाते हैं. बेटा. ऐसे-ऐसे गाने गाता है कि हर कोर्इ मगन हो जाता है. गांव की पढ़ार्इ पूरी करने के बाद आगे पढ़ने के लिए मुनस्यारी में जाने को तैयार ही नहीं है. वहां जनजाति स्कूल में सब सुविधाएं हैं. हम गरीब लोगों के लिए ये जनजाति वाले स्कूल ही हुवे.अब ये बात प्रकाश को कैसे समझाएं.
खाना तैयार हो गया था. भात, दाल, रोटी व जोहार के खेतों के पालक की टपकी. खाना खा चुकने के बाद नींद में लास्पा गाढ़ का शोर लोरी की तरह लगा.
सुबह जल्दी उठ गए थे. हम एक पढ़ाव पीछे चल रहे थे. आज मिलम तक पहुंचने की बात रखी गर्इ. जो की बाद में पूरी नहीं हो सकी. हम सभी धीरे-धीरे ऊंचार्इ में फिट हो रहे थे. आमा-बूबू से विदा ली. रास्ता तिरछा व उतार-चढ़ाव लिए था. गोरी यहां शांत बह रही थी. रिलकोट से पहले नाहर देवी का मंदिर भी है. रिलकोट पहुंचने में दो घंटे लग गए. रिलकोट की ऊंचार्इ 3200 मी. है. इकलौती दुकान में दाल-भात बन रहा था. आपसी सहमति से आज मिलम के बजाए मार्तोली में ही रूकने की बात बन गर्इ तो रिलकोट में ही दाल-भात खाने के लिए बैठ गए. गांव खाली सा दिखा. पांच मकान पाथर के दिखे. एक मकान में टिन डाली थी. बगल में ही एक सरकारी बिल्डिंग बन रही थी. नीचे गोरी नदी के किनारे बकरियों के झुंड फैले थे. खाने के बाद आगे मुख्य रिलकोट गांव की धार में पहुंचे तो वहां गांव के खंडहर मिले. चारों ओर से खुली व असुरक्षित इस धार में ना जाने किसने ये गांव बसाया होगा. तीखी हवाओं व बर्फ के तुफानों को ये गांव ज्यादा वर्षों तक शायद नहीं झेल सका तो लोग नीचे आकर बस गए और ये गांव उनके जाने के बाद उजाड़ हो गया.
दूर सुंतो गाढ़ के किनारे सुंतो गांव के खंडहरों के अवशेष दिखार्इ दे रहे थे. सुमटियाल, टोला व टोलिया गांव में कुछ बुढ़े-बुजुर्गों के कपड़े आंगन में सुखाने पर उनके होने का अहसास करा रहे थे. लेकिन ये गांव फिर भी ना जाने क्यों मुझे सहमे-सहमे से लगे. कुछ दुर चलने पर दो रास्ते पर गांव के युवाओं द्वारा लगाया गया बोर्ड मिला. ‘मर्तोली में आपका स्वागत है. यहां पर उप्पर का रास्ता मर्तोली गांव को तथा नीचे का रास्ता मर्तोली गांव के नीचे से आगे बूर्फू वाले रास्ते में मिलता है. बुग्याली घास में चलने से थकान जाती रही.
हजारों भेड़ों का एक झुंड बुग्यालों से वापस नीचे को उतर रहा था. मर्तोली की सीमा में पहुंचते ही दूर से ही एक मकान की दीवाल में सफेद चूने से बड़े से अक्षरों में ‘राजू होटल’ लिखा दिखा तो वहीं को ही कदम बढ़े. आंगन में पहुंचे तो एक नौजवान को डा.मर्तोलिया का परिचय दिया तो वो आत्मीय सा हो उठा. वो राजू था. राजू ने दो मंजिले की चाख में एक ओर हमारी रूकने की व्यवस्था कर दी. दूसरी ओर कुछ घोड़े वाले रूके थे. मां नंदा देवी का यहां गांव के शीर्ष में भव्य मंदिर है. मौसम साफ देख हम नंदा देवी मंदिर की ओर निकल पड़े. मंदिर करीब किलोमीटर भर होगा. लगभग 3440मी. की ऊंचार्इ पर बसे मार्तोली में अभी चार मवासे वाले ही खेती-बाढ़ी के लिए आए थे. मंदिर के रास्ते में कुछ खेत उपजाऊ कर रखे थे. किनारे पर कुछ खंदक सी दिखी तो कौतुहल वश उधर ही लपके. इन्हें खंदक कहें या टैंच, फौंज ने बनार्इ थी. ये खंदकें 1962 में चीन के आक्रमण की कहानी बयां कर रही थी. नीचे दूर ल्वां गाड़ का शोर यहां तक आ रहा था. ल्वां गांव इस छोर का अंतिम गांव है. तब पता चला कि ल्वां में मात्र दो परिवार ही अपनी गुजर-बसर के लिए हर हमेशा मजबूरी में रहते हैं. अब उनके क्या हाल हैं मालूम नहीं. ल्वां गांव से ही नंदा देवी र्इस्ट पर्वत के साथ ही लांग स्टफ कॉल, नंदा कोट सहित कर्इ हिम श्रखंलाओं को फतह करने के लिए पर्वतारोही दल जाते हैं.
18 वीं शदी में जब सड़के नहीं थी तब व्यापार के लिए पिंडारी ग्लेशियर के शीर्ष में ट्रेल दर्रे को पार करने के बाद ल्वां ग्लेशियर होते हुए ल्वां गांव पहुंचना होता था. ग्लेशियर में अत्यधिक हिम दरारों की वजह से यह मार्ग काफी खतरनाक होते चले गया तो इस दर्रे से आवाजाही बंद ही हो गर्इ. हांलाकि बाद में अंग्रेज शासक जार्ज सर ट्रेल ने इस दर्रे से एक बार फिर से आवाजाही करने की सोच इसे पार करने की सोची लेकिन वो सफल नहीं हो सका. उसके साथ सूपी गांव का मलख सिंह ही यह दर्रा पार करने में सफल रहा. बाद में इस दर्रे को ट्रेल दर्रे का नाम दे दिया गया. जार्ज विलियम ट्रेल ने कुमाऊं सहित जोहार, दारमा, व्यास, चौंदास से तिब्बत के व्यापारिक संबंध बनाने के लिए कर्इ प्रयास किए. ट्रेल ने व्यापार संबंधी कठिनाइयों को देखते हुए ट्रांजिट कर समाप्त करने के साथ ही व्यापारिक मार्गों के सुधार के लिए पाइनियर कम्पनी नियुक्त कर दी. ट्रेल के इस प्रयास का क्षेत्र के आर्थिक विकास तथा तिब्बत व्यापार के हित में सार्थक योगदान रहा. इसी कारण ज्ञानिमा पश्चिमी तिब्बत की सबसे बड़ी मंडी के रूप में विकसित हुआ. जोहार घाटी के व्यापारी बिना किसी प्रतिबंध के ज्ञानिमा, दर्चिन, छाकरा, गरतोक आदि मंडियों और छयूगाड़, मेंसर, खिंगलुग, गुरग्यम, बरखा, तीर्थपुरी, ज्यू गोम्पा, चुचू, बुगठोल, शिवचलिम तथा पश्चिमी तिब्बत में रूदौक तथा उत्तर में ज्यांगथांग तक व्यापार के लिए जाया करते थे.
हल्की चढ़ार्इ के बाद नंदा देवी के मंदिर के भव्य दर्शन हुए. आंगन में पत्थरों के बने चुल्हे दिख रहे थे. पिछले दिनों नंदा पूजा में यहां काफी परिवार पूजा के लिए आए होंगे. नंदा देवी की पौराणिक श्रद्वा के चलते बाहर बस चुके प्रवासी, वर्ष भर में एक बार नंदाष्टमी के वक्त यहां खींचे से चले आते हैं. करीब महीने भर के लिए जोहार घाटी नंदा देवी के जयकारों से गूंजती रहती है. तब मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ ही गांवों से आनी वाली टोलियों का मिलन काफी मनमोहक रहता है. मंदिर की चौखट में कुछ लिखा दिखा, जो ज्यादा कुछ तो समझ में नहीं आया बस यही समझा कि मॉं नंदा से सभी के खुशहाल होने की कामना की गई है.
”छिला ताछी तुछी कुटालीक, हाली छ बीन.
छिला नंदा देवी सेवा कौल, बरसी दीन.
छीला बाटा तली सर्प छड़ी, बाटा मली सर्प.
छिला नंदा देवी दैन हये, सबों की तरफ.
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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