करीब छह-सात वर्ष पहले जब कुमाऊं मंडल विकास निगम का बेहतरीन प्रकाशन ‘थ्रोन ऑफ गॉड्स’ (धीरज सिंह गर्ब्याल और अशोक पाण्डे) हाथ में आया था तब उसके पाठ की बजाय उसमें प्रकाशित अत्यंत सुंदर-कलात्मक चित्रों में खोकर रह गया था. हमारे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के तिब्बत से सटीं ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों, वहां की शौका (रङ) जनजाति और उनके बहुत कम जाने गए जीवन, संस्कृति, इतिहास और परम्परा पर यह एक ‘कॉफी टेबल बुक’ से कहीं अधिक मायने रखती है- संदर्भ ग्रंथ की तरह भी.
(Jitni Mitti Utna Sona Book)
पिछले दिनों जब अशोक पाण्डे की नई किताब जितनी मिट्टी उतना सोना’ पढ़ना शुरू किया तो सबसे पहले ‘थ्रोन ऑफ गॉड’ की याद आई. उसकी तस्वीरों ने मोह लिया था तो इसके शब्दों की सरलता, यात्रा वृतांत की रोचकता-गहनता और उससे मस्तिष्क में उभर आने वाले शब्द-चित्रों ने पकड़े रखा. किताब पूरी कर चुकने के बाद भी वे शब्द-चित्र और उनका अत्यंत साधारण कहन दिल-दिमाग में बने हुए हैं.
अशोक पांडे ने अपनी ऑस्ट्रियाई साथी, मानवशास्त्री सबीने लीडर के साथ 1994 से 2003 के बीच ब्यांस, चौंदास और दारमा घाटी के सुदूर अंतरे-कोनों की लम्बी-लम्बी शोध-यात्राएं की, रङ गांवों में कई-कई दिन बिताए, उनके जीवन के विविध पक्षों का अध्ययन किया और मोहिले रिश्ते बनाए. स्वयं अशोक के शब्दों में इन घाटियों के गांवों में उन्होंने कुल मिलाकर तकरीबन चार साल बिताए. ‘जितनी मीटी उतना सोना’ उन्हीं यात्राओं का वृतांत है. ‘थ्रोन ऑफ गॉड्स’ में भी उन्हीं शोध यात्राओं का निष्कर्ष बोलता है.
(Jitni Mitti Utna Sona Book)
‘लप्पूझन्ना’ और ‘बब्बन कार्बोनेट’ जैसी पुस्तकों के विरल कथ्य और कहन से पिछले दिनों चर्चित रहे अशोक पांडे यहां बिल्कुल दूसरे रूप में हैं. यहां उनकी खिलदंड़ी और व्यंग्यात्मक भाषा नहीं है. इस किताब के अत्यंत सरल गद्य में उनके कवि, अनुवादक, अध्येता, घुमक्कड़ और सहज मित्र रूप के दर्शन होते हैं.
अशोक और सबीने तीनों सीमांत घाटियों के पुरुषों, महिलाओं, युवाओं-बूढ़ों-बच्चों से बहुत आत्मीय होकर मिलते हैं, उनके घरों, गोठों या रसोइयों में रात बिताते हैं, खाना खाते हैं और बात-बात में उनके इतिहास, वर्तमान, देवी-देवता, मिथकों और परम्पराओं की पड़ताल करते जाते हैं. इसलिए इस किताब का गद्य सामान्य बातचीत वाला है जिसमें स्थानीय मुहावरे, लोकोक्तियां और कहानियां अपना अलग आस्वाद रचती हैं. वे घोड़ों की उदासी, बकरियों की दार्शनिकता, हरियाली की सुस्ती, अंधेरे का हरापन, चमकीले दिन का आलस, नक्काशीदार दरवाजों पर लगे तालों की उदासी, वगैरह भी देख ही लेते है और ऐसे अनिर्वचनीय मानवीय दृश्य भी “जिन्हें देखे जा सकने की कल्पना भी हमारे सभ्य संसार में नहीं की जा सकती.” तब “आप असीम कृतज्ञ होने के अलावा क्या कर सकते हैं!”
सिन-ला जैसे बीहड़ दर्रे को खराब मौसम एवं खतरनाक स्थितियों में पार करने का रोमांच भी इसमें मिल जाता है- “बर्फ टूटने की आवाज से बड़ी, कड़कदार और डरावनी आवाज मैंने आज तक नहीं सुनी है. यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है. यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं.” यह हिमालय को बहुत करीब से देखने, अनुभव करने, बर्फ-नदियों-झरनों-पत्थरों से बतियाने और मिथकों की कल्पनाशीलता से चमत्कृत होने का वृतांत भी है.
(Jitni Mitti Utna Sona Book)
यह यात्रा वृतांत दारमा, ब्यांस और चौंदास घाटियों के प्राकृतिक और मानवीय सह-जीवन का अत्यंत सरल लेकिन विश्वसनीय दस्तावेज बन गया है. 1962 से पहले तिब्बत से व्यापार पर लगभग एकाधिकार के कारण जो शौका खूब सम्पन्न थे, जो उतने ही विनम्र एवं शालीन थे, जिनका इलाका दुर्गम ही नहीं एक रहस्यलोक-सा था, जिनकी कई व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं सभ्य कहे जाने वाले समाजों को मात करती थीं, उन शौकाओं के बारे में आज से सवा सौ साल पहले चार्ल्स ए शेरिंग जैसे प्रशासनिक अधिकारी और गहन अध्येता ने लिखा था- “इन खूबसूरत वादियों में अब भी जीवन का रूमान और कविता बचे हुए हैं.”
विकास की बहुत सारी अतियों और पलायन के बावजूद आज भी वहां बहुत कुछ बचा हुआ है, इसकी गवाही अशोक पाण्डे की यह किताब देती है. यह भी पच्चीस साल पहले की गई यात्राओं की किताब है और इस बीच वहां बहुत कुछ बदला होगा. आज वे अत्यंत सुंदर वादियां उतनी दुर्गम नहीं रहीं लेकिन जीवन और कविता वहां बची रहे, यह कामना है.
‘जितनी मिट्टी उतना सोना’ (हिंदयुग्म प्रकाशन) पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि अगर शांति काकी या सनम काकू से नहीं मिले और च्यक्ती भी नहीं पी तो जीवन क्या जिया! पिछले दिनों पिण्डर घाटी का अनिल यादव का यात्रा वृतांत ‘कीड़ाजड़ी’ पढ़ते हुए भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी.
(Jitni Mitti Utna Sona Book)
अमेजन पर किताब यहां उपलब्ध है- जितनी मिट्टी उतना सोना
(Kali Vaar Kali Paar Book)
नवीन जोशी के ब्लॉग अपने मोर्चे पर से साभार
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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