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उत्तराखंड की सबसे दानवीर महिला की कहानी

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कुमाऊं के दो पुराने अश्व मार्ग काठगोदाम-अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ और टनकपुर-चम्पावत-पिथौरागढ़ साठ के दशक तक आम लोगों द्वारा खूब प्रयोग किये जाते थे. इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि जोहार और दारमा जैसी कठिन घाटियों तक जाने के लिये न जाने कितने ही यात्रियों ने इनका उपयोग किया. फिर चाहे यात्रा रिश्ते-नातेदारी में जाने की हो या धर्म से जुड़ी हो या फिर जुड़ी हो व्यापार से, सभी इन्हीं अश्व मार्गों से हुआ करती. इन अश्वमार्गों में सरायशैली में बने भवन मार्ग का महत्त्व बतलाते हैं.
(Jasuli Datal Uttarakhand)  

वर्तमान में कहीं खण्डहर तो कहीं ठीक-ठाक हाल में मौजूद इन भवनों के निशां रानीबाग, भावली, सुयालबाड़ी, कोसी-कटारमल, बेरीनाग, अस्कोट, सतगढ, दांतू आदि स्थानों पर आज भी देखे जा सकते हैं. यह सुखद आश्चयर्य की बात है कि इसी सरायशैली के भवन कुमाऊं से गढ़वाल और नेपाल से कुमाऊं को जोड़ने वाले पुराने अश्वमार्ग में भी देखने को मिलते हैं. मार्ग में लगभग एक निश्चित दूरी के बाद मिलने वाले इन भवनों को कहीं शौक्याणी की धर्मशाला कहा जाता था तो कहीं रं बूढी की धर्मशाला. कई स्थानीय इन भवनों को जसुली शौक्याणी की धर्मशाला नाम से भी जानते हैं.

दांतू गाँव में बीस साल पहले जसुली लला की भव्य मूर्ति. फोटो: डॉ. सबीने लीडर

जसुली शौक्याणी, जिसे दारमा घाटी के लोग स्नेह और सम्मान से जसुली लला पुकारते हैं, लला का अर्थ है अम्मा. पुराने पैदल मार्गों पर बनी यह सैकड़ों धर्मशाला का निर्माण जसुली लला ने ही किया. जसुली लला से जुड़ी कहानी कुछ इस तरह कही जाती है –

आज से कोई पौने दो सौ बरस पहले दारमा के दांतू गाँव में जसुली दताल नामक एक महिला हुईं. दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं (या शौका) समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे जिसके चलते वे पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में गिने जाते थे. अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी थीं और अपने इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो जाने के कारण निःसन्तान रह गयी थीं. इस कारण अकेलापन और हताशा उनकी वृद्धावस्था के दिनों के संगी बन गए थे. ऐसे ही एक दिन हताशा की मनःस्थिति में उन्होंने अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देना तय किया.
(Jasuli Datal Uttarakhand)

इत्तफाक की बात रही कि उसी दौरान उस दुर्गम इलाके से लम्बे समय तक कुमाऊँ के कमिश्नर रहे अँगरेज़ अफसर हैनरी रैमजे के काफिले का गुज़र हुआ. हैनरी रैमजे को जसुली दताल के मंसूबों की बाबत मालूम पड़ा तो वह दौड़ा-दौड़ा उन तक पहुंचा. सारी बात जानकर उसने वृद्ध महिला से कहा कि पैसे को नदी में बहा देने के बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाना बेहतर होगा. अफसर का विचार जसुली को जंच गया. किंवदंतियाँ हैं कि दारमा घाटी से वापस लौट रहे अँगरेज़ अफसर के पीछे-पीछे जसुली का धन लादे बकरियों और खच्चरों का एक लंबा काफिला चला. रैमजे ने इस पैसे से कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत तक में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाओं का निर्माण करवाया.

इतिहासकार बताते हैं कि मुगलों की सराय शैली में बनाई गयी एक ज़माने तक ये धर्मशालाएं ठीक-ठाक हालत में समूचे कुमाऊँ-गढ़वाल में देखी जा सकती थीं. रैमजे ने नेपाल के महेन्द्रनगर और बैतड़ी जिलों के अलावा तिब्बत में भी ऐसी कुछ धर्मशालाओं का निर्माण करवाया. माना जाता है कि इनकी कुल संख्या दो सौ के आसपास थी और इनमें पीने के पानी वगैरह का समुचित प्रबंध होता था. इस सत्कार्य ने जसुली दताल को इलाके में खासा नाम और सम्मान दिया जिसके चलते वे जसुली लला (अम्मा), जसुली बुड़ी और जसुली शौक्याणी जैसे नामों से विख्यात हुईं.

रं संस्था के सहयोग से छपने वाली वार्षिक पत्रिका ‘अमटीकर’ के वर्ष 2012 में छपे स्व. नैन सिंह बौनाल के लेख के अनुसार जसुली देवी का विवाह ठा. जम्बु सिंह दताल से हुआ था. दम्पत्ति का एकमात्र पुत्र ‘बछुवा’ था. बछुवा के जन्म के बाद ठा. जम्बु सिंह दताल का निधन हो गया. ठा. जम्बु सिंह के क्रियाकर्म का समय नजदीक आने के एक दिन पूर्व जसुली देवी शौक्याणी ने अपने नौकरों को बुलाकर आदेश दिया था कि दातू गाँव से न्योला नदी के किनारे तक निगाल की चटाई बिछायी जाये जिसके बाद करीब 350 मीटर की दूरी तक गाँव से न्योला नदी के तट पर चटाई बिछायी गयी. इस दौरान अंग्रेज अधिकारियों का भी क्षेत्र का दौरा था वह इस घटना को देख चकित हो गये और उन्होंने जसुली देवी से विचार-विमर्श किया. जिसके बाद जसुली देवी द्वारा धर्मशाला निर्माण का निर्णय लिया गया.
(Jasuli Datal Uttarakhand)

पिघलता हिमालय पत्रिका में नरेंद्र सिंह दताल के लेख में कहा गया है कि जसुली देवी के पुत्र का नाम जसुबा था. जसूबा के बाल्यकाल में ही उसके पिता चल बसे और जसुबा की मृत्यु अविवाहित युवावस्था में न्यौला नदी के निकट च्यौवर्जी खंम रे खेत पर दो ग्रामों के युवाओं के मध्य हुए द्विपक्षीय संघर्ष में हुई. इसके बाद कमीश्नर रैमजे और जसुली देवी की मुलाक़ात हुई. जिसके बाद करीब 300 धर्मशालाओं के साथ अनेक नौलों का भी जोर्णोद्धार किया गया.

दांतू गाँव में जसुली लला की वर्तमान में मूर्ति. फोटो : कमलेश काण्डपाल

कुछ वर्ष पहले रं समाज ने इन भवनों के उद्धार के लिए एक बड़ा सम्मलेन भीमताल में आयोजित करवाया था. अपने सीमित संसाधनों के बावजूद रं कल्याण संस्था ने शुरुआती सर्वेक्षण इत्यादि का कार्य शुरू कर धर्मशालाओं को चिन्हित किया गया. जितना संभव हो सकता है उतनी मरम्मत वगैरह भी की गयी. सुयालबाड़ी, सतगढ़, चंडाक रोड आदि में संस्था के प्रयास देखे जा सकते हैं.

रंग कल्याण समिति के मुताबिक जसुली देवी द्वारा व्यापारिक मार्ग पर लगभग 350 धर्मशालों का निर्माण 1870 से 1880 के बीच कराया गया. समिति द्वारा अब तक 130 धर्मशाला खोजी जा चुकी हैं. जसूली देवी द्वारा बनाई गई धर्मशालाएं अल्मोड़ा से हल्द्वानी, अल्मोड़ा से भिकियासैंण, भिकियासैंण से रामनगर, भिकियासैंण से गढ़वाल, अल्मोड़ा से बागेश्वर, अल्मोड़ा से लोहाघाट, अल्मोड़ा से बेनीनाग-थल, पिथौरागढ़ से धारचूला-दारमा, पिथौरागढ़ से टनकपुर और टनकपुर से महेन्द्र नगर में बनवाई गई थीं. धर्माशालाएं तिब्‍बत और नेपाल में भी मिली हैं. संस्था को 25 धर्मशाला नेपाल के पाटना बैतड़ी और उससे लगे क्षेत्र में मिली हैं इसके अतिरिक्त एक धर्मशाला तिब्बत में भी मिली है.              
(Jasuli Datal Uttarakhand)

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