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घर पर ऐसे बनती है पहाड़ियों की जनेऊ

जन्यौ पुन्यू के अवसर पर आपके कुल पुरोहित आपको जनेऊ भेट करने अवश्य आयेंगे, यदि वे बाजार से खरीदकर जनेऊ आपको दे रहे हों तो बात अलग है अन्यथा यदि वे स्वयं अपने हाथ से बनी जनेऊ आपको भेंट करें , तो सोचिएगा जरूर की आप उनके मेहनताने की क्या उचित दक्षिणा दे रहे हैं? दरअसल जनेऊ यदि पूरे विधान के अनुसार यदि बनायी गयी है तो यह बहुत मेहनत व समय लेने वाला काम है. (Janeu Tradition of Uttarakhand)

पहाड़ के गाॅव-देहात में पुश्तैनी रूप से पुरोहिती का कार्य कर रहे लोग आजकल एक विशेष शारीरिक मुद्रा में जनेऊ बनाते नजर आयेंगे. घुटना 90 डिग्री में मोड़कर दाईं जांघ को ऊपर उठाते हुए उस पर तकुवा (तकली) घुमाते तथा बायें हाथ पर डोर हवा में ऊपर उठाये, गाहे बगाहे जरूर मिल जायेंगे. रक्षाबन्धन से लगभग दो माह पूर्व पुरोहित लोग अपने यजमानों के लिए जनेऊ बनाने का काम शुरू कर देते हैं. लेकिन उसे तकुवे पर कातने, लपेटने, ग्रन्थी (गांठ) डालने और रंगने का कार्य कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है. आइये जानते हैं, कैसे बनती है घर पर जनेऊ?
(Janeu Tradition of Uttarakhand)

बताते हैं कि पहले तो शुद्ध जगह पर उगी कपास को तीन दिन धूप में सुखाकर रूई से धागा भी स्वयं कातना होता था, लेकिन आज जनेऊ का बारीक धागा बाजार में मिल जाता है. बाजार से मिले धागे को जने़ऊ की माप में तीन सूत्रों को साथ लेकर हथेली खोलकर चार अंगुलियों पर 96 बार लपेटा जाता है. 96 की संख्या में का  32 विद्याओं (जिसमें चार वेद,चार उपवेद,छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्र ग्रन्थ और नौ अरण्यकआते हैं) तथा 64 कलाओं (वास्तु निर्माण से लेकर विविध जीवनोपयोगी कलाओं तथा ललित कलाओं)का प्रतिनिधित्व माना जाता है. विधान तो यहां तक है कि जनेऊ बनाते समय कर्ता 3 दिन पूर्व से ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा शुद्ध विचारों के साथ एक समय आहार अथवा फलाहार इस अविध में करे. कातने से लेकर ग्रन्थि डालने तक मन ही मन गायत्री मंत्र का उच्चारण करता रहे. निरन्तर गायत्री मन का मन ही मन जाप करता रहे. लेकिन यह कितना व्यावहारिक होता होगा इसे तो वे ही बता सकते हैं. उसके बाद इस सूत्र (जिसमें तीन धागों का समूह होता है)तकली पर कातकर एक सूत्र में बट दिया जाता है.

इस तीन सूत्रों में बटे सूत्र को जमीन पर बैठकर पैंरों अपने पैंरो के आसन खोलकर दोेनों पैरों में लपेटकर तीन बराबर हिस्सों में बांटा जाता है और सूत्र के दोनों सिरों पर पांच ग्रन्थियां दी जाती हैं, जिसमें एक ग्रन्थि ब्रह्मा का प्रतीक तथा शेष चार ग्रन्थियां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं  इन्हें पंच कर्मों, पंचमहाभूतों, पंच यज्ञों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियों का भी प्रतीक माना जाता है.  कुछ लोग उनके गोत्र में प्रवरों की संख्या के अनुसार भी जनेऊ में ग्रन्थियों (गांठ) को डालने की बात कहते हैं. इस प्रकार तीन सूत्र का जनेऊ तैयार होता है. जिसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, का, देव ऋण, ऋषि ऋण तथा पितृ ऋण , आदि दैविक, आदिभौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों, सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण ,गायत्री के तीन चरणों तथा जीवन की तीन अवस्थाओं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ का प्रतीक माना जाता है. सन्यास ग्रहण करने पर जनेऊ उतारने का विधान है. इस त्रिसूत्र को कई बार मोड़कर छोटे आकार में लपेटा जाता है तथा हल्दी के रंग में इसे रंगा का सुखाया जाता है.

यहां पर आपके मन में एक सवाल उभर रहा होगा कि हम तो 6 सूत्र का जनेऊ पहनते है, जब कि बात तीन सूत्र की हो रही है. दरअसल जनेऊ बनाते समय तीन सूत्र का ही एक जोड़ा बनाया जाता है. दोनों को जोड़कर 6 सूत्र हो जाते हैं. इस प्रकार एक सूत्र में तीन धागे मिलाकर कुल 18 सूत्रों का जनेऊ 6 सूत्रों में बना दिया जाता है. जिसमें तीन सूत्र स्वयं के तथा 3 सूत्र अद्र्धागिनी के निमित्त होते हैं.
(Janeu Tradition of Uttarakhand)

रजस्वला अवस्था में महिलाओं की अशुद्ध अवस्था में होने से उन्हें जनेऊ पहनने से छूट दी गयी, उनकी ओर से पति ही उनका जनेऊ भी धारण करता है, जब कि जो स्त्री जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत लेती हैं वे तीन सूत्र का जनेऊ धारण कर सकती हैं. इसी प्रकार अविवाहित पुरूषों के लिए भी 3 सूत्र के जनेऊ पहनने का विधान है.

फोटो : उमेश पांडे की फेसबुक वाल से.

‘जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विजं उच्यते’ यानि जन्मजात सभी शूद्र पैदा होते है, संस्कार ही उन्हें द्विज कहलाने का अधिकारी बनाता है. यज्ञोपवीत संस्कार ही शुद्र से द्विज रूप में रूपान्तरित करता है.यज्ञोपवीत संस्कार दो शब्दों के योग से बना है – यज्ञ $ उपवीत. जनेऊ संस्कार को व्रतबन्ध के नाम से भी जाना जाता है. यानि स्वयं को एक संकल्प में बांधना. सनातन संस्कृति में सोलह संस्कारों का विधान है , जिसमें वय के अनुसार संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं. यह बात अलग है कि आज व्रतबन्ध पर ही कर्णभेद से समावर्तन तक सारी रस्में एक साथ निबटा ली जाती हैं. व्रतबन्ध में ही बटुक पहली बार जनेऊ धारण करता है, फिर हर साल रक्षाबन्धन उपाकर्म (सामवेदी को छोड़कर) पर पुरानी जनेऊ धारण कर नई जनेऊ पहनी जाती है. जन्म तथा मरण अशौच तथा मृतक के शरीर को छूने पर भी जनेऊ बदलने का विधान है. जब भी नयी जनेऊ धारण की जाती है, तो जनेऊ को बायें कन्धे पर दाहिनी भुजा के नीचे निम्न श्लोक के साथ धारण किया जाता है:-

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्.
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः.।

इसके उपरान्त पुरानी जनेऊ को उतारते समय भी निम्न मंत्र का विधान बताया गया है:-

एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया.
जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्.।

जनेऊ धारण करने के बाद 11 आवृत्ति गायत्री मंत्र का जप करने का नियम बताया गया है. फिर नित्य पूजादि में आप कितनी आवृत्ति करें, यह आपकी श्रद्धा का विषय है.

जिस प्रकार एक सैनिक अथवा पुलिस कर्मी की परिधान उसे बार-बार उसके कर्तव्यबोध के लिए पहनायी जाती है और एक साधु के गेरूआ वस्त्र धारण करने पर उसके वस्त्र उसे विपरीत आचरण  करने पर आगाह करते हैं, इसी प्रकार हमारा जनेऊ पुरूषार्थ चतुष्ट्य (धर्म,अर्थ,काम मोक्ष) के उद्देश्य का  बार-बार स्मरण  कराता है.  बाजारवाद की पैंठ जब हमारे समाज में नहीं थी , जनेऊ क्या डोरे, दुबौड़े, गंगा दशहरा द्वार पत्र आदि सब घर पर ही पुरोहितों द्वारा तैयार किये जाते थे. जन्मपत्री हाथ से बने भोजपत्र व वनस्पतियों से बनी शुद्ध स्याही से लिखी जाती थी. लेकिन आज जन्मपत्री भी मुद्रित रूप में आकर्षक कलेवर में आ चुकी है, जिसमें रिक्त छोड़े गये स्थानों पर ही पुरोहित वर्ग जातक की कुण्डली के अनुरूप पूर्ति करनी होती है. ब्राह्मण द्वारा मौलिसूत्र में  प्रतिष्ठित रक्षासूत्र की जगह आज आकर्षक एवं रंगबिरंगी राखियों ने ले लिया है. इससे पुरोहित वर्ग का काम अवश्य आसान  हुआ है, लेकिन यजमान और पुरोहित के बीच विश्वास व रिश्तों की डोर कमजोर भी हुई है.
(Janeu Tradition of Uttarakhand)

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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  • आपका लेखन सराहनीय है पर समयानुसार सब कुछ बदल गया है।

  • आदरणीय भुवन चन्द्र पन्त जी से मुलाकात नैनीताल में हुई।
    बहुत ही सौम्य स्वभाव वाले पंत जी साहित्य में भी दखल रखते हैं ये आज पता चला ।
    पंत जी को प्रणाम

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