समाज

जम्बू: उच्च हिमालयी क्षेत्रों का दिव्य मसाला

भारतीय खान-पान की परंपरा में मसालों की महत्वपूर्ण भूमिका है. अपने खाने में मसालों के इस्तेमाल से भारतीय रसोई में प्राकृतिक अनाज, सब्जियों  और दालों का कायापलट कर दिया जाता है. सामान्य भारतीय रसोइयों में 100 से ज्यादा किस्म के मसालों का इस्तेमाल किया जाता है. जीरा, धनिया, हींग, रतनजोत, लौंग, छोटी-बड़ी इलायची, तेजपत्ता, दालचीनी, जावित्री, जायफल, सरसों, मेथी, राई, अजवाइन, इमली, अमचूर, सौंफ, कलौंजी, विभिन्न किस्म की मिर्चें, कई तरह के नमक आदि भारतीय रसोई में इस्तेमाल किये जाने वाले आम मसाले हैं. ये मसाले किसी भी आय वर्ग के घर में इस्तेमाल किये जाते हैं. इन मसालों के कुशल संयोजन से आम भारतीय रसोई में दिव्य स्वादों से भरपूर विभिन्न किस्म के जायकेदार व्यंजनों की रचना की जाती है. हर भारतीय अपने सहज ज्ञान से इस संयोजन में मसालों के तालमेल और उनकी मात्रा और भोजन बनाने की प्रक्रिया में उनके इस्तेमाल का क्रम बखूबी जानता है. किसी भी घर से दिन में तीन वक़्त उठकर फिजा में घुलती खुश्बू से अंदाजा लग जाता है कि इस घर में फिलहाल क्या बन रहा है. अमूमन वांछित, अवांछित मेहमान खाना बनते वक़्त घर में घुसते ही बोलते हैं – अरे! आज तो घर में फलां चीज बन रही है.

जम्बू सुखाते ग्रामीण

भारतीय घरों में सामान्यतः इस्तेमाल किये जाने वाले ये सभी मसाले औषधीय गुणों से भी भरपूर हैं. प्राथमिक चिकित्सा में आम तौर से इनका इस्तेमाल किया जाता है. इसे दवा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि अपने किस तत्व की वजह से इस मसाले में यह औषधीय गुण हैं मगर वह विरासत से मिले ज्ञान से इसके इस्तेमाल का वक़्त और तरीका बखूबी जानते हैं.

विभिन्न व्यंजनों में भी मसालों के इस्तेमाल से स्वाद में पड़ने वाले फर्क की व्याख्या करना भी आम रसोइयों के लिए मुश्किल है लेकिन मसालों के फ्यूजन से जायका पैदा करने में कोई रसोइया पीछे नहीं रहता. इन मसालों में कुछ सर्वकालिक, सार्वभौमिक हैं तो कुछ का क्षेत्रीय मिज़ाज भी है.

उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों के भी अपने कुछ ख़ास मसाले हैं जो यहीं पैदा होते हैं और इस्तेमाल किये जाते हैं. इन्हीं में से एक मसाला है जम्बू. जम्बू का इस्तेमाल भारत की हिमालयी क्षेत्रों के अलावा नेपाल, तिब्बत, पकिस्तान और भूटान में भी किया जाता है. नेपाल में इसे जिम्बु कहा जाता है.

तिमूर की सोहबत में बिकने को तैयार जम्बू

जम्बू उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाने वाला पौधा है, जो प्याज या लहसुन के पौधे का हमशक्ल है. यह 10,000 फीट से अधिक की ऊँचाई पर प्राकृतिक रूप से पैदा होता है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन प्रवास करने वाले लोग अपनी जरूरत के हिसाब से इसकी खेती भी करने लगे हैं. एमेरिलिस परिवार के इस पौधे का वानस्पतिक नाम एलियम स्ट्राकेई ( Allium Stracheyi) है. हरी-भूरी रंगत वाली इसकी सूखी पत्तियों को जायकेदार तथा खुशबूदार मसाले के तौर पर प्रयोग किया जाता है. इसके पौधे के जमीन से ऊपर नजर आने वाले हिस्से को चुन लिया जाता है. इसके बाद इसे छायादार जगह पर हवा की मदद से ठीक तरह से सुखा लिया जाता है. इस प्रक्रिया में न्यूनतम 15 दिन लग ही जाते हैं. इसके बाद इसको संरक्षित कर लिया जाता है और दवा व मसाले के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है.

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में उगने वाली ज्यादातर वनस्पतियाँ औषधीय गुणों से भरपूर हैं, जम्बू भी इन्हीं में से एक है. इसमें एलिसिन, एलिन, डाइ एलाइन सल्फाइड के साथ-साथ अन्य सल्फर यौगिक मौजूद रहते हैं. इसे बुखार, गीली खांसी और पेटदर्द के लिए कारगर बनाते हैं. चिकित्सा के लिए बुनियादी ढाँचे के अभाव में स्थानीय लोग इसी तरह की हिमालयी वनस्पतियों के सहारे अपना इलाज करते हैं. जम्बू बुखार में ख़ास कारगर होने के कारण बहुत लोकप्रिय है.

तैयार जम्बू

मसाले के रूप में जम्बू का इस्तेमाल मीट, दाल, सब्जी, सूप, सलाद और अचार आदि में किया जाता है. इसमें ग़जब का स्वाद और खुश्बू होती है. इसकी खुशबू और जायके को दोगुना करने के लिए इसे घी में हल्का सा भून लिया जाता है. इसका तड़का अलौकिक स्वाद और जायके को पैदा करता है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इस मसाले का खूब इस्तेमाल किया जाता है. एक बेहतरीन मसाला होने के बावजूद इसका इस्तेमाल उत्तराखण्ड के निचले पहाड़ी और मैदानी इलाकों में कम ही किया जाता है. इन इलाकों में सिर्फ भोजन के रसिक लोग ही इसका उपयोग करते हैं. यहाँ इनकी खपत न के बराबर होने से इसकी उपलब्धता भी नहीं है, सो जोड़-जुगाड़ कर इसे मंगवाया जाता है. पिथौरागढ़, धारचूला, मुनस्यारी, नीति-माणा आदि जगहों पर आने-जाने वालों पर इस मसाले की आपूर्ति का जिम्मा लाद दिया जाता है. या फिर रसिक लोग इन इलाकों में लगने वाले दुर्लभ मेलों से इन मसालों का साल भर का कोटा उठा लिया करते हैं. जम्बू के अलौकिक तड़के से उठने वाली खुशबू और इसका पारलौकिक स्वाद लेने के लिए रसिक पहाड़ी इसका कोटा रखने में आने वाली भव-बाधाओं को पार करने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं.

-सुधीर कुमार 

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

View Comments

  • बहुत अच्छी जानकारी दी गई है।मुझे जंबू का स्वाद दाल के तड़के में बहुत अच्छा लगताहे।कृपया बताए शुद्ध ओरिजिनल जंबू कहां मिलेगा।ऑनलाइन मिलेगा क्या?

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago