आज से बारह सौ साल पहले बग़दाद में जन्मे कवि इब्न अल-रूमी अपनी एक कविता में सफ़ेद आटे के गाढ़े घोल को चांदी की उपमा देते हैं जिसे गोल-गोल पका कर शहद में डुबोया जाय तो वह सोने में तब्दील हो जाता है. (Column By Ashok Pande)
तमाम किस्से चलते हैं कि दुनिया की सबसे पहली जलेबी किसने बनाई थी. एक बार आन्दालूसिया के बादशाह ने रसोइयों को हुक्म दिया कि रमजान के दौरान इफ्तार के लिए कोई ख़ास मिठाई तैयार करें. ख़ासी मेहनत के बाद बनी जलेबियों से भरी तश्तरियां थामे रसोइए राजा के पास जा ही रहे थे कि उनमें से एक फिसल गया. वह घबरा कर चिल्लाया, “या रबी, ज़ेलेबिया, ज़ेलेबिया, ज़ेलेबिया …” यानी “या ख़ुदा, मैं फिसल गया.”
एक और किस्सा आन्दालूसिया के एक ही नानबाई का है जिसने गलती से बन गयी जलेबी को देखते ही अपनी बीवी को डांटना शुरू किया, “हदी ज़ल्ला बीया” यानी “सब बर्बाद हो गया!”
तीसरा क़िस्सा ईराकी बादशाह हारूं अल रशीद के दरबार में काम करने वाले संगीतकार अब्दुर्रहमान नाफ़ा ज़िरियाब का है जिसे मुल्कबदर कर दिया गया था. बेहतर जीवन की तलाश में अब्दुर्रहमान बग़दाद से उत्तरी अफ्रीका होता हुआ आन्दालूसिया की राह लगा. रास्ते में ट्यूनीशिया पड़ा जहाँ उसकी मुलाक़ात कुछ उस्ताद संगीतकारों से हुई. उनसे संगीत सीखने की नीयत से वह कई महीने वहीं रह गया. ट्यूनीशिया में रहते हुए उसने आटे, शहद की चाशनी और गुलाबजल से बनी एक मिठाई तैयार की और उसे अपना नाम दिया – अल ज़िरियाबा जो अपभ्रंश होकर अरबी संसार में ज़लाबिया बना और भारत पहुंचकर जलेबी.
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जलेबी का पहला आधिकारिक सन्दर्भ दसवीं शताब्दी के पाकशास्त्री मुहम्मद बिन हसन अल बगदादी के ग्रन्थ ‘किताब अल तबीह’ में ज़ुलूबिया के नाम से मिलता है. लेबनान से लेकर साइप्रस और ईरान से लेकर सीरिया तक इस नाम के अनेक रूप देखने को मिलते हैं.
जलेबी शब्द यूरोप में पहली दफ़ा 1886 में हॉब्सन-जॉब्सन डिक्शनरी में अपनी जगह बना सका जिसमें इसकी उत्पत्ति अरबी भाषा में बताई गई.
भारत में जलेबी का इतिहास करीब 500 साल पुराना है. एक जैन भिक्षु की लिखी पुस्तक में इसे कुंडलिका या जलाविका कहा गया है जिसे एक अमीर व्यापारी द्वारा दिए गए भोज के दौरान परोसा गया था. 1600 ईस्वी के संस्कृत ग्रन्थ ‘गुण्यगुणबोधिनी’ में जलेबी बनाने का तरीका विस्तार से बताया गया है. सत्रहवीं शताब्दी की ही एक और किताब ‘भोजनकुतूहलम’ में भी जलेबी निर्माण का सन्दर्भ आता है.
मेरी अपनी स्मृति में जिन नगरों ने सबसे अधिक स्थान घेरा हुआ है, उन सब की अपनी-अपनी जलेबियाँ थीं. रामनगर में एक जमाने में दलपत हलवाई की जलेबी का सिक्का चलता था. नैनीताल नगर के तल्लीताल में एक सज्जन लोटे की मदद से जलेबी बनाते थे – उनकी जलेबी लोटिया जलेबी के नाम से अब भी विख्यात है. अल्मोड़े में केशवदत्त जोशी उर्फ़ केशव हलवाई की अस्सी साल पुरानी दुकान में जलेबी के साथ मिलने वाला दही गिलास में परोसा जाता है. भुक्खन हलवाई की दुकान सौ से अधिक सालों से हल्द्वानी के भोजनप्रेमियों की आत्मा तर कर रही है.
जलेबी हमेशा आसपास बनी रही है. उसने हमारी सभ्यता को बचाए रखा है. उसके साथ सृजित किये जाने वाले नित नए संयोजनों ने सुनिश्चित किया है कि हमारी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता सदैव तरोताजा बनी रहे. तड़के जागने से लेकर आधी रात बिस्तर में घुसने से पहले तक देश के चप्पे चप्पे में फैले धर्मात्मा जन दूध-जलेबी, भुजिया-जलेबी, दही-जलेबी, समोसा-जलेबी, पोहा-जलेबी, भात-जलेबी, रबड़ी-जलेबी, खीर-जलेबी और डबलरोटी-जलेबी जैसे नायाब नुस्खों की मदद से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की सफलता को लेकर कटिबद्ध हैं. कभी गाढ़े दही में चार जलेबियां डुबोया भरा कटोरा लेकर बिस्तर में घुस जाइए. मैं अक्सर करता हूँ. चांदी को सोना बना सकने वाली जलेबी और कुछ करे न करे आपको आदमी से इंसान तो बना ही देगी. (Column By Ashok Pande)
-अशोक पाण्डे
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पहाड़ खा़सकर कुमाऊं के अल्मोड़ा में जलेबी के तमाम शौकीन हैं
क्या भारत के अलावा आज जलेबी किसी अरब या दूसरे देश में मिष्ठान के रूप में प्रचलित है।