महाकाली नदी पर देश का सबसे ऊंचा बांध बनाने की पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना प्रस्तावित है. इस परियोजना की नीव 1996 में हुई भारत-नेपाल महाकाली जल संधि में पड़ी. गौरतलब है कि महाकाली नदी दोनों देशों की सीमा पर है.
हालांकि इस परियोजना की प्रस्तावना पांच दशक पुरानी है. फिलहाल संधि को 20 साल हो जाने के बावजूद यह परियोजना इसीलिए लटकी पड़ी थी क्योंकि नेपाल में इस संधि को लेकर समर्थन नहीं था.
आखिर में जब 2014 में दोनों देशों की सरकारों ने परियोजना के क्रियान्वयन के लिए पंचेश्वर विकास प्राधिकरण बनाया तब यह तय हुआ था कि विवादित मुद्दों पर डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) बनने के बाद स्पष्टता आएगी.
अभी वाप्कोस कंपनी द्वारा बनाई गई आधी-अधूरी डीपीआर को देखते हुए यह तो साफ है कि परियोजना से जुड़े कई मूलभूत मुद्दों पर कोई जानकारी नहीं है, दो देशों में आपसी समझ बनना तो दूर की बात है.
ऐसे में राज्य सरकार पुनर्वास नीति बनाने में हड़बड़ी कर रही है, अफरातफरी में पर्यावरण मंजूरी के लिए जन सुनवाई भी करवा दी और प्रभावित क्षेत्र से वन मंजूरी के लिए एनओसी लेने का काम भी शुरू कर दिया जिसका लोग विरोध कर रहे हैं.
यही नहीं प्रभावित इलाके की सारी स्थानीय विकास परियोजनाओं को भी अघोषित तरीके से रोक कर रखा हुआ है जबकि महाकाली संधि पर ही प्रश्न चिह्न बना हुआ है.
हाल में आये पुनर्वास नीति पर उत्तराखंड मंत्रिमंडल के सुझावों और बयानों को देख कर यह तो स्पष्ट है कि पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना के लिए बनी डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट पूरी होने से कई कोसों दूर है.
मंत्रिमंडल ने स्वयं कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए हैं जिनका जवाब नहीं होने तक पुनर्वास नीति बनाने का काम आगे बढ़ाना असंभव है.
उदाहरण के तौर पर मंत्रिमंडल ने वाप्कोस कंपनी को यह जानकारी देने के लिए कहा है कि परियोजना से मौजूदा सरकारी और सार्वजनिक संपत्तियों पर कितना प्रभाव पड़ेगा.
यह सवाल मूलभूत है और आश्चर्य की बात तो यह है कि इसका आंकलन किये बिना परियोजना का लागत लाभ विश्लेषण आखिर वाप्कोस ने कैसे किया?
लागत लाभ विश्लेषण में जो 13,700 हेक्टेयर जंगल और खेती की जमीन डूबने से होने वाला नुकसान है उसका भी कही कोई आंकलन नहीं है.
पर्यावरणीय प्रभावों की कीमत का आंकलन भी इसमें नहीं जुड़ा है. यदि पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत की बात करें तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 315 मीटर ऊंचाई वाले इस बांध का विशाल जलाशय भौगोलिक रूप से सबसे संवेदनशील क्षेत्र में बनेगा जहां सिस्मिक हलचल होती रहती है.
2010 में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था इंस्टीट्यूट फॉर एनवायर्नमेंटल साइंसेज (आईईएस) के लिए वैज्ञानिकों (मार्क एवरार्ड और गौरव कटारिया) के अध्ययन के अनुसार, यदि केवल महाकाली घाटी के पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं का आकलन किया जाए तो इस परियोजना की लागत, लाभ से कई गुना अधिक होगी.
इस अध्ययन के अनुसार भारत और नेपाल को मिला कर घाटी के 80 हजार से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे, जिसमें मुख्यतः किसान, मजदूर, मछुआरे हैं .
अगर बांध के नीचे के क्षेत्रों को जोड़ा जाए तो उत्तर प्रदेश और बिहार के उन इलाकों को भी कीमत चुकानी पड़ेगी जो शारदा के किनारे बसे हैं.
अध्ययन के अनुसार नदी में बाढ़ आने से संपत्ति को जरूर कुछ हद तक नुकसान होता है लेकिन नदी का बहाव रुक जाने से बहुमूल्य मिट्टी या रेत जो मैदानी इलाके के खेतों को उपजाऊ बनाती है वो भी बांध में फंस जायेगी.
वैज्ञानिक यह सवाल भी उठाते हैं कि भयंकर मात्रा में गाद जमा होने से डैम की उम्र भी कम होगी. इस अध्ययन के अनुसार कुल मिला के दोनों देशों की सरकारें इस बांध के लाभों को बढ़ा चढ़ा कर बता रही हैं और इस बांध से जुड़े नुकसानों को कम आंक रही हैं.
लाभ के बंटवारे पर भी नहीं बनी सहमति
एक बड़ा मुद्दा जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है-लाभ के बंटवारे का है. हमें इस बात से मुंह नहीं फेरना चाहिए कि पंचेश्वर परियोजना भारत-नेपाल महाकाली जल संधि 1996 का हिस्सा है और नेपाल में पिछले 20 वर्षों से संधि पर पूर्ण राजनैतिक सहमति नहीं बन पाई है.
असहमति के पीछे के कई कारण हैं जिनमें से मुख्य वजह तो भारत-नेपाल के राजनैतिक संबंधों में भारत का हावी होना है, खासकर महाकाली/शारदा के पानी के इस्तमाल में. इसके अलावा महाकाली संधि के अनुच्छेद 3 के प्रावधानों पर स्पष्टता ना होना एक बड़ा कारण है.
इस अनुच्छेद में यह तय था कि पंचेश्वर बांध से बनने वाली (अतिरिक्त) बिजली नेपाल भारत को बेचेगा. पर किस दर पर बेचेगा और भारत को उस दर पर ही खरीदना आवश्यक होगा यह स्पष्ट नहीं था. साथ ही महाकाली नदी के उद्गम के क्षेत्र और पानी के बंटवारे पर भी सहमति नहीं थी.
कई वर्षों के गतिरोध के बाद इस संधि को 2012 में पुनर्जीवित करने की कोशिश दोनों देशों द्वारा की गई हालांकि अनुच्छेद 3 को ले कर अस्पष्टता बनी रही.
2014 में मोदी सरकार ने नेपाल के ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए हजार करोड़ की ऋण राशि घोषित की. इसके बाद पंचेश्वर बांध पर नेपाल का रुख कुछ बदला.
परन्तु 2014 में जब दोनों देशों ने पंचेश्वर विकास प्राधिकरण की स्थापना की तब यह तय किया कि विवादित मुद्दे डीपीआर बनने की प्रक्रिया में सुलझाए जायेंगे. ना केवल नेपाल बल्कि भारत में भी बुद्धिजीवियों और पर्यावरणविद्दों ने महाकाली संधि के भविष्य को लेकर सवाल उठाए हैं.
महंगी बिजली कौन खरीदेगा?
डीपीआर और ईआईए के अनुसार इस परियोजना से 9,116 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन किया जाएगा. अनुमान के अनुसार इस परियोजना से जो बिजली पैदा होगी उसकी दर 6 से 8 रुपये के बीच में होगी.
पर्यावरण विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘आज के दिन बिजली बाजार में 3 रुपये प्रति यूनिट से अधिक दर पर कोई खरीददार नहीं हैं जिसके चलते कई निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाएं ठप पड़ी हैं. यदि नेपाल की यह समझ है कि पूरी अतिरिक्त बिजली जोकि नेपाल की खपत से कई अधिक है, भारत खरीदने वाला है तो यह शायद गलत मान्यता होगी. यदि दर तय करने का अधिकार भारत को मिलता है तो नेपाल के लिए पंचेश्वर परियोजना बड़े घाटे का सौदा होगी. आखिर जब बांधों की बिजली और जल विद्युत् इतना महंगा है तो हमारी सरकार ये परियोजनाएं क्यों बना रही है.’
हमारे नेता मुआवजे और पुनर्वास की बात करके जनता का ध्यान भटका रहे है जबकि असली सवाल तो यह है कि पंचेश्वर परियोजना जैसे निर्माण की जब नीव ही गलत है और विवादों में घिरी है तथा जब स्पष्ट नहीं कि इसका उद्देश्य पूरा होगा या नहीं? या फिर बिजली कितने में बनेगी और कौन किस दाम में खरीदेगा? तो महाकाली घाटी में बसे दोनों तरफ के लोगों को त्रस्त क्यों किया जा रहा है?
क्यों सरकार सामाजिक विकास कार्यों की तरफ ध्यान नहीं दे रही? और आखिर इस परियोजना के बनने से किसको फायदा होगा? इसमें उत्तराखंड के तीन जिलों (अल्मोड़ा, चम्पावत व पिथौरागढ़) के 31,023 परिवार प्रभावित होंगे.
कई हालिया समाचार रिपोर्टों के अनुसार, परियोजना प्रभावित परिवारों को उनके जमीन का बाजार या सर्किल दाम का 4 गुना (प्रस्तावित) नहीं बल्कि 6 गुना मुआवजा मिलेगा.
महाकाली लोक संगठन के प्रकाश भंडारी के अनुसार, ‘इस झुनझुने को परियोजना प्रभावितों के सामने हिलाया जा रहा है और इसे सभी समस्याओं के हल के रूप में बताया जा रहा है लेकिन वास्तविकता में अगर हम मुआवजे के आंकड़ों को बारीकी से देखें तो इससे दो तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आते हैं. पहला, केवल एक ही गांव में निजी जमीन के कुल मुआवजे की 65% राशि खर्च होनी है. दूसरा, कुल प्रभावित परिवारों में से 80% अधिग्रहित होने वाली उपजाऊ और सम्पन्न भूमि के बदले बहुत ही कम मुआवजा मिलेगा. इससे स्पष्ट है कि यह परियोजना विस्थापित होने वाले हजारों परिवारों को गरीबी और आर्थिक संकट की ओर धकेलेगी.’
इस असमानता का प्राथमिक कारण यह दिखता है कि अलग-अलग गांवों की स्थिति और सड़क व बाजारों से निकटता के आधार पर, निजी भूमि के सर्किल दामों में बहुत बड़ा अंतर है.
प्रभावित क्षेत्र में ऐसे कई गांव हैं जो आज भी सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाओं के इंतजार में हैं. कई पीढ़ियों की कड़ी मेहनत से ग्रामीणों ने अपनी जमीन और वनों से आजीविका के साधन खड़े किये हैं. वह इंतज़ार में हैं कि इन साधनों को और मजबूत किया जाए. विस्थापन तो उन्होंने कभी मांगा ही नहीं था. और जिसकी मांग बरसों से है उसकी कोई सुनवाई नहीं.
आजीविका के बुनियादी प्रश्न के साथ ही जुड़ा है घाटी के दोनों तरफ बसे स्थानीय लोगों की धार्मिक आस्था का सवाल और पंचेश्वर, तालेश्वर और कई अन्य देवी देव स्थलों की सांस्कृतिक धरोहर जो इस बांध में जलमग्न हो जाएगी.
इन्हीं मुद्दों को ले कर महाकाली घाटी में विरोध के स्वर धीरे-धीरे ऊंचे हो रहे हैं और जल्दबाजी में जिन सवालों से दोनों सरकारें बचने की कोशिश में हैं-उनका जवाब देना समय के साथ और भी कठिन होगा.
(लेखक मान्शी आशार पर्यावरण-सामाजिक शोधकर्ता हैं और हिमधरा पर्यावरण समूह से जुड़ी हैं)
साभार द वायर
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