हिन्दी सिनेमा में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ने एक बेहतरीन अभिनेता के तौर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों में ब्लैक फ्राइडे (2004), न्यू यॉर्क (2004), पीपली लाइव (2009), कहानी (2010), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), पान सिंह तोमर (2012), मांझी: द माउंटेन मैन (2015) और मंटो (2018) प्रमुख हैं. उनके अभिनय की इंटेंसिटी और डीटेल्स की पकड़ उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं में सबसे अलग बनाती है. उनके जीवन के संघर्षों और फिल्मों को लेकर उनके विचारों पर राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के लिए सैयद मोहम्मद इरफ़ान ने उनका इंटरव्यू किया था. इरफ़ान इस समय देश के सर्वश्रेष्ठ इंटरव्यूअर हैं. अपनी बातचीत के दौरान वे इंटरव्यू किये जा रहे व्यक्तित्व के अन्तरंगतम विचारों-अनुभवों को बाहर ला सकने की अद्भुत क्षमता रखते हैं. देश की विभिन्न हस्तियों से लिए उनके तीन सौ से अधिक इंटरव्यू अब तक प्रसारित हो चुके हैं. इरफ़ान ने इस विधा को नए आयाम बख्शे हैं. उनके द्वारा लिए गए चुनिन्दा साक्षात्कारों को अब हम काफल ट्री पर आपके सम्मुख लेकर आएंगे. इस श्रृंखला में सबसे पहले नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी का इंटरव्यू.
इरफान: नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, जहां से आपने पढ़ाई की, वहां हम आपका नाम देखते हैं नवाज़ुद्दीन नंबरदार … ये क्या कहानी है कि नवाज़ुद्दीन नंबरदार बाद में चलकर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी बने, लेकिन ये नंबरदार कहां से आया?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: आपने ये सवाल बहुत अच्छा किया … एक्चुअली बहुत सारे लोगों को मालूम नहीं है कि हम लोग जो थे किसान परिवार से जरूर थे लेकिन जमींदार किस्म के लोग थे. अभी भी जमीनें हैं हमारे पास. काफी खेतीबाड़ी होती थी. तो हमारे दादा परदादा को ये पदवी दी गई थी. जैसे बहुत सारे लोग बोलते हैं कि मैं थोड़ा गरीब फैमिली से हूं, ऐसा नहीं ह. आई थिंक ये पहली बार आपने सवाल किया. अच्छी खासी फैमिली रही और जमींदार खानदान से बिलॉन्ग करता हूं मैं. तो ये वहां से था नाम. और नंबरदार नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी नाम था मेरा तो फिर मैंने चेंज कर लिया कि नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ज्यादा ठीक है.
इरफान: ये जो जमींदार परिवार है, ये मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना कस्बे में कब से बसा होगा?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: बुढाना कस्बे में हम लोग आई थिंक दादा परदादा के जमाने से ही हैं.
इरफान: और उसके बाद फिर सब लोग खेती किसानी के काम में लगे रहे और हम देखते हैं कि आपके अपने भाई बहनों में आप सबसे बड़े हैं तो बुढ़ाना में भी इतने सारे स्कूल और ड्रिग्री कॉलेज होने के बावजूद हम आप हरिद्वार के किसी गुरूकुल कांगड़ी में पढ़ने भेजे गए, वो क्यों भेजे गए होंगे?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: एक्चुअली हमारे यहां सिर्फ इंटरमीडिएट था कॉलेज और उसके बाद ग्रेजुएशन का वहां पर कोई सिलसिला नहीं था तो इसलिए इंटरमीडिएट करने के बाद मैं गया गुरुकुल कांगड़ी यूनिवर्सिटी और वहां पर साइंस कॉलेज में बीएससी किया मैंने कैमिस्ट्री में, तो इसीलिए आई थिंक खानदान में मैं पहला ही था जो ग्रेजुएशन तक पढ़ पाया वरना कोई..पढ़ाई लिखाई का कोई ज्यादा वो नहीं था सब जमींदारी करते थे…
इरफान: और ये पढ़ाई जब गुरुकुल कांगड़ी की खत्म हुई तो फिर सफर कैसा रहा?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: उसके बाद मैं जॉब करने लगा बड़ोदा में…चीफ कैमिस्ट का जॉब करता था. बोर हो गया उससे एक साल के अंदर, फिर में वापस दिल्ली आ गया. दिल्ली आकर मुझे किसी ने प्लेज दिखाए. ऐसे ही जॉब की तलाश में था मैं दिल्ली में भी..तो किसी ने थियेटर दिखा दिए मुझे मंडी हाउस में. वहां प्ले देखने के बाद मैंने डिसाइड किया कि आई थिंक ये चीज है जिसको मैं चाह रहा था करना. लेकिन कर कुछ और रहा था. तो फिर मैंने एक अमेचर ग्रुप होता है वो ज्वाइन किया और आई थिंक एक डेढ़ साल उसमें काम किया. उसके बाद मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमीशन ले लिया था.
इरफान: नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमीशन उतनी आसानी से मिलता नहीं है…और उसमें आपको बहुत सारी शर्ते पूरी करनी होती हैं कि आपको इतने सारे नाटकों में पहले से हिस्सा लिए होना चाहिए उसके सार्टिफिकेट वगैरह…वो सब आपने बंदोबस्त किए होंगे?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: बिल्कुल … वो जो मैंने अमेच्योर ग्रुप में काम किया था वो इसीलिए किया था कि मैं क्वालीफाइड हो जाऊं उसके लिए. दस बारह प्लेज किए मैंने. उसके बाद एनएसडी में एडमीशन लिया.
इरफान: और इस तरह आपने नाटक में अभिनय करना ही सीखा? मतलब नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में आपका स्पेशलाइजेशन किस में था?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: वही एक्टिंग में था.
इरफान: एक्टिंग में था. क्यों कि आप बड़ोदा में नौकरी कर ही कर रहे थे और उसके बाद दिल्ली आने के बाद एक्टिंग करने का ही शौक आपके अंदर पैदा हुआ था वो क्यों हुआ था?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: आई थिंक मैंने कई सारे जॉब ट्राई किए थे. चीफ कैमिस्ट के अलावा भी काफ़ी जॉब किए थे…तो पता नहीं आई डोन्ट नो मुझे अहसास इस चीज़ का होता था कि शायद मैं बोर हो जाऊंगा इस जॉब से…फिर दूसरा ट्राई करता था फिर…तो ये था कि मैं क्या चाह रहा था मुझे भी एक्जेक्टली पता नहीं था कि मैं क्या चाहता हूं? फाइनली जब मैंने प्ले देखा तो मुझे लगा कि ये चीज है जो शायद मुझे जिसकी जबान नहीं मिली थी वर्ड्स नहीं मिले थे कि थियेटर क्या होता है…तो शायद ये चीज है बहुत ही क्रिएटिव चीज है जो मैं करना चाहता था लेकिन मुझे पता नहीं था. आई डोंट नो कैसे हुआ. अनकॉन्शस माइंड में कहीं बैठा होगा जो कभी मैंने रियलाइज नहीं किय इस चीज को. तो फाइनली मैंने सोचा अब मैं यही करूंगा इसके अलावा कुछ नहीं करने वाला मैं.
इरफान: जबकि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में आप ये सोचकर आते हैं कि आपको एक्टिंग सिखाई जाएगी और वहां पर योगा से लेकर सेट डिजाइनिंग, कॉस्ट्यूम और इतनी तरह के डिसिप्लेन्स हैं वो सब कुछ आपको करना होता है यहां तक कि आपको थियेटर की हिस्ट्री भी पढ़नी पड़ती है, उसकी थ्योरी भी पढ़नी पड़ती है, ये सब तो आपके लिए काफी थकाऊ और बोरिंग काम रहा होगा…
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: नहीं इन्टरेस्टिंग…मेरे लिए ये इन्टरेस्टिंग हो गया था बहुत ज्यादा…जैसे लिटरेचर है वैस्टर्न लिटरेचर, इंडियन लिटरेचर और भी सेट डिजाइनिंग का लाइट डिजाइनिंग का, और मेकअप. ये एक्चुअली बहुत इंटरेस्टिन्ग हो गया था मेरे लिए. और मैं बहुत ही इन्वॉल्व होता जा रहा था इन सारी चीजों में. ये जो जितने भी डिसीप्लिन्स हैं…और सारा जो है फर्स्ट ईयर में सिखाया जाता है सैकेंडियर में फिर स्पेलाइजेशन होने लगता है, प्लेज होने लगते हैं, सीन वर्क होने लगते हैं. तो फिर मेरा जो रुझान था वो सिर्फ एक्टिंग की तरफ होने लगा कि मैं स्पेशलाइजेशन जो करूंगा वो एक्टिंग में ही करूंगा.
इरफ़ान: और ये जो तीन साल का वक्त गुजरा उसमें हर गुजरते साल के साथ आपका इंटरेस्ट बढ़ता गया, क्योंकि हम नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा आए हुए लोगों से ऐसा भी सुनते हैं कि वो जो सोचकर आए हैं वो वहां उन्हें नहीं मिल रहा है, और एक समय के बाद उसमें वो चमक नहीं पाते, आपका क्या अनुभव था?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: मुझे ये रहा है कि एक इंस्टीट्यूशन कभी भी कोई गलत नही होता. ये आपके ऊपर डिपेंड करता है कि आप उस इंस्टीट्यूशन से कितना ले रहे हैं. वो तो बिल्कुल खजाना है, आप जो चाहो वहां से ले सकते हो. इतनी बड़ी फैसिलिटीज जो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा देता है आई थिंक कोई भी इंस्टीट्यूशन एशिया में या वर्ल्ड में नहीं होगा. आपको हॉस्टल, मैस, स्कॉलरशिप, और ऐट द सेम टाइम आपको सिर्फ एक ही काम आपके जिम्मे होता है- सिर्फ नाटक करो एक्टिंग करो. जो आप चाहते हो वो करो. उसके लिए इतनी सारी चीजें प्रोवाइड कर रहा है तो अगर आप वहां पर डिसअप्वॉइन्ट हो रहे हैं तो ये आपकी खुद की प्रॉब्लम हो सकती है, इंस्टीट्यूशन की नहीं हो सकती है कभी भी.
इरफान: तो इस तरह आपने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और उसके बाद शायद रैपर्ट्री कंपनी में भी काम किया होगा?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: जी नहीं. मैंने रैपर्ट्री कंपनी में काम नहीं किया और हां स्ट्रीट प्लेज होते थे दिल्ली में उस वक्त पर. और एक ग्रुप था उसमें थोड़े बहुत पैसे मिल जाते थे कि जैसे लाइट का बिजली की चोरी का कुछ एक स्किट सा बना लिया, दिल्ली सरकार से मिला उसके लिए. स्किट कर दिया. गली-गली कूचे-कूचे जाकर करते थे. या कोई एक प्रोडक्ट आया जैसे ऑयल है, ऑयल कंपनी का प्रोडक्ट आया, अब उसका एडवर्टाइजमेंट करना है तो पांच-छह लोगों का ग्रुप बना लिया, और जगह-जगह पर जाकर वो परफॉर्म करते थे उसके बारे में बताते थे. आजादपुर मंडी हो, कनॉट प्लेस, बस अड्डा ये वो हर जगह जाकर उसके शोज करते थे तो उससे थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता था मुझे.
इरफान: ये तो वह समय है जबकि आप दिल्ली में ही रह रहे थे. ऐसा भी सुना है, अब ये आप ही बताएंगे हमको, एक तो स्कूल में पढ़ाई के दौरान आपको स्कॉलरशिप मिलती है इसलिए बहुत ज्यादा समस्या नहीं होती है, आपकी आर्थिक समस्याएं उससे हल हो जाती हैं. लेकिन स्कूल की पढ़ाई खत्म होने के बाद अपने आपको सस्टेन करने के लिए भी आपने ऑड किस्म के कुछ काम किए हैं?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: आई थिंक मैं ऑड किस्म के तो नहीं कह सकता, काम थे वो तो. बट ये था कि उससे काम ज्यादा चल नहीं रहा था. अब हिंदी थियेटर में पैसा तो है नहीं. थियेटर के दौरान जब अमेचर ग्रुप मैंने ज्वाइन किया था, तो उस वक्त तो साइड बाई साइड मैं वॉचमैन का काम भी करता था. एक टॉयज की फैक्ट्री थी नोएडा में. तब नोएडा बिल्कुल वीरान सा लगता था. तो छोटी मोटी कंपनियां खुल रहीं थीं वहां पर तो वहां जाकर मैंने किया था…एक डेढ़ साल काम किया था मैंने.
इरफान: वो काम आपको कैसे मिला था?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: ये एक्चुली क्या था कि जो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन है, उसके सामने एक टॉयलेट है, उसके सामने मैं खड़ा हुआ पेशाब कर रहा था तो वहां पर लिखा हुआ था एक पोस्टर में कि पांच सौ सिक्योरिटी गार्ड चाहिए तीन सौ वॉचमैन चाहिए और पच्चीस ये चाहिए और इसी तरह का कुछ. और नंबर भी लिखा हुआ था. तो नंबर मैंने नोट कर लिया. घर से तो मैं पैसा मंगवाता नहीं था. तो मैंने सोचा यार ये जॉब कर लेता हूं और इतनी तनख्वाह भी लिखी हुई थी उसपे. तो उनका ऑफिस शहादरा था. मैं वहां गया तो उन्होंने बोला कि भाई हम दे देंगे आपको जॉब लेकिन आपको सिक्योरिटी देनी पड़ेगी. डिपॉजिट करना पड़ेगा कुछ पैसा. मैंने कहा ठीक है. तो मैं घर गया . वहां से अम्मी यानी मेरी मदर की जो ज्वेलरीज थी वो अपने यहां के सुनार के पास गिरवी रख थी और उससे पैसा लेकर उनको पांच हजार रुपए दिए मैंने. और मेरा जॉब उन्होंने वहां लगा दिया.
इरफान: और कितनी तनख्वाह मिलती थी उसमें?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: करीब पांच सौ रुपए के आस-पास थी.
इरफ़ान: अच्छा… और ड्यूटी आवर्स क्या थे?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: यही थे सुबह नौ बजे से लेकर शाम पांच बजे तक. और पांच बजे के बाद फिर मैं मंडी हाउस आ जाता था, वहां पर थियेटर की रिहर्सल करता था.
इरफ़ान: ये जो सिक्योरिटी गार्ड वाली नौकरी थी वो कितने दिन चली होगी?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी : ये मैंने एक डेढ़ साल तक किया था.
इरफान: और इसको करते हुए भी आप एक दिन ऊब ही गए होंगे क्यों कि ऊब जल्दी जाते हैं आप.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: हां ऊब गया था. ऊब इसलिए गया था कि वहां पर खड़े रहना पड़ता था गेट पर. फिर वहां पर धूप इतनी पड़ती थी और कोई शेड ऐसी नहीं थी कि जहां पर मैं छुपकर खड़ा हो जाऊं. मैं बहुत पतला-दुबला था तो मैं थक-थका के बैठ जाता था. अब इत्तेफाक ये होता था कि जब भी मैं बैठता था तो जो ओनर था कंपनी का, वो तभी एंटर करता था. तो उसने मुझे तीन-चार बार बैठे हुए देखा, माफ़ कर दिया तीन-चार बार. लेकिन फाइनली जबह चौथी-पांचवी बार देखा उसने, तब तक डेढ़ साल हो चुका था, बोला “इसको हटाओ यहां से, ये पतला-दुबला कमजोर सा आदमी, इसको हटाओ.” तो उन्होंने हटा दिया. मैं फिर गया शहादरा, जो उनका मेन ऑफिस था. उनसे कहा कि भई मेरा डिपॉजिट दो, जो आपको मैंने डिपॉजिट दिया था क्योंकि अब तो आपने मुझे निकाल दिया है. वो कहने लगे डिपॉजिट नहीं मिलेगा क्योंकि आपने ऐसी हरकतें की हैं. तो वहां से बहुत डिसअपॉएंटमेंट हुआ.
इरफान: तो वो पैसे डूब गए?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: जी हां, वो पैसे डूब गए पांच हजार रुपए मेरे. तो बहुत ही ज्यादा अफ़सोस हुआ. फिर मां को मैंने बताया कि ऐसा-ऐसा हो गया है, मैं कहीं न कहीं से करके लाके दूंगा . तो इस तरह की चीजें थीं.
इरफ़ान: और तब ये नौकरी जब आपने छोड़ दी या छूट गई, उसके बाद फिर क्या हुआ?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: उसके बाद फिर करते-करते फिर मैं एनएसडी में आ गया था. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में आ गया था. उसके बाद तो फिर कुछ करने की जरूरत ही नहीं थी, वहीं पर खाना पीना रहना सब वहीं पर था.
इरफ़ान: और फिर एक दिन आपने मुंबई का रुख किया. और हम ये भी देखते हैं कि काफी पापड़ बेलने पड़े. बुढ़ाना के एक लड़के के लिए जो कि फिल्मों में सिल्वर स्क्रीन पर जल्दी से चमक जाने की ख्वाहिश रखता हो, करीब-करीब बीस साल या अठारह साल लगे कि जब लगा कि हां अब उन बड़े सितारों के साथ भी कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ जा सकता है. लेकिन ये शुरूआती सफर खासतौर से एक छोटे से कस्बे से आकर बम्बई महानगर वो भी सपनों के शहर बंबई में, क्या अहसास था?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: मैं कोई बहुत बडे सपने लेकर तो गया नहीं था बम्बई . बस ये था कि सरवाइव करता रहूं मैं, वो ज्यादा इम्पोर्टेंट था. क्योंकि यहां पर दिल्ली में रहते हुए इतना डिफ़िकल्ट हो गया था सरवाइव करना, कि वहां पर बस एक ही था कि सरवाइवल होता रहे ठीक से. बाकी काम-वाम जो मिलेगा वो तो करते ही रहेंगे, छोटा मोटा काम, एक सीन दो सीन जो होगा वो करते रहेंगे. क्योंकि बड़ा सीन तो कोई देने वाला था नहीं. पहले मैंने टीवी ट्राई किया. टीवी में मुझे इतना कुछ ज्यादा मिला नहीं. एक-एक दो-दो एपीसोड के काम मिले या फिर नहीं भी मिले. और फिर फिल्मों में ट्राई किया. एक एक सीन वहां भी मिले. तो बस यही था कि एक-एक सीन मिल रहे थे और मेरा काम चल रहा था और ये सिलसिला कोई दस ग्यारह साल तक चलता रहा.
इरफान: नवाज़ुद्दीन आपने कहा कि ये जो करीब ग्यारह साल छोटे-मोटे रोल करके सरवाइव करने का जो पूरा पीरियड है; आदमी कब तक जूझे, और वो जूझने की राह में इतनी तरह के रोड़े होते हैं, तब तो और भी जब आप एक ट्रेंड एक्टर भी हैं और आप पाते हैं कि जो आपके अंदर सलाहियत है वो आपको नहीं मिल रही होती है. फिर आप देखते हैं कि कल के आए हुए, जिनके अंदर वो एफीशियेंसी नहीं भी है और वो बहुत तेजी से चमकते हुए आगे बढ़ जाते हैं. ये सब मिलाकर इतनी सतहें हैं एक तरह के सेंस ऑफ डिफीट की, कि आदमी मतलब मर जाए. क्या अहसास है आपका इसमें?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: मुझे सिर्फ एक ही चीज का फ़्रस्टेशन होता था टु बी वेरी फ़्रैंक कि यहां पर कोई मेरिट सिस्टम नहीं है एक्चुअली. कोई भी किसी भी दूसरे तरीके से एस्टेब्लिश हो सकता है. अगर ये कोई जैसे डॉक्टरी का एक्जाम या इंजीनियरिंग का तो हैं नहीं, जिसमें मेरिट सिस्टम होता है. आपके जब 95 पर्सेंट मार्क्स आएंगे तभी आपको वहां एडमीशन मिलेगा. इसमें ऐसा कुछ नहीं है. तो मुझे इस चीज का ज्यादा फ्रस्टेशन होता था कि यार मैं नेशनल स्कूल ऑप ड्रामा से हूं, डिजर्व करता हूं, मुझे काम आता है, फिर क्या वजह है काम क्यूं नहीं मिल रहा मुझे? तो इस चीज को लेकर थोड़ा सा बीच-बीच में होता था. बट फाइनली ये था कि उसकी वजह से जो रिजेक्शन होते थे कि आपको फिजीकेलिटी की वजह से जो रिजेक्शन होते…स्टेचर की वजह से कि आपका स्टेचर हीरो के लायक नहीं है. ऐसा नहीं है कि आपको काम दिया जाए..या दिया जाए तो फिर आपको अंडरएस्टीमेट करके काम दिया जाता था कि ‘अच्छा ये तो इसकी बॉडी ऐसी है इसको ये काम दे दो…इसको एक छोटा रोल दे दो एक छोटे स्टेटस का रोल दे दो ये काफी है इसके लिए क्योंकि दिखने में ऐसा लगता है ये’…उस चीज का मुझे बहुत ज्यादा फ्रस्टेशन होता था एक्चुअली. और रिजेक्शन भी होता था. रिजेक्शन तो चलो ये था कि मैं यूज़्ड टू हो चुका था. इतना सारा जब, क्या होता है कि रिजेक्शन एक दो बार शुरू में जब मिलता है तो आदमी को थोड़ा डिसअपॉएमेंट होता है , बट जब बहुत सारे हो जाते हैं तो फिर उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता. इस चीज का मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. मुझे फर्क पड़ता था कि आप अंडरएस्टीमेट क्यों कर रहे हैं. बाहरी चीजों को देखकर आप अंडरएस्टीमेट क्यों कर रहे हैं? उसका मुझे थोड़ा फ्रस्टेशन होता था. तो फाइनली, थैंक गॉड मतलब 2009 से सिनेमा का टाइम चेंज हुआ. नए फिल्ममेकर्स आ रहे थे और अपनी मर्जी की फिल्में बना रहे थे. भले छोटी फिल्म बना रहे थे जो फेस्टिवल में जाती थीं. रिलीज होती थीं या नहीं होती थीं वो तो बात दूसरी है बट उन फिल्मों की वजह से जो बड़ी फिल्में होती हैं उनमें मुझे एंट्री मिली. पहले छोटे रोल मिले ऑफ़कोर्स, फिर उससे बड़े मिले, उससे बड़े मिलते चले गए … इस तरह हुआ कुछ सिलसिला.
इरफ़ान: और तब इस जद्दोजहद के बीच और जो फ्रस्टेशन है उसके बीच कभी ये भी अहसास आया कि सब छोड़कर यहां से चले जाते हैं?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: बिल्कुल कई बार आया अहसास इस चीज का कि चला जाता हूं. बट प्रॉब्लम ये थी कि मैं यही काम जानता था, इसके अलावा मैं कुछ जानता ही नहीं था कि मैं अगर छोड़कर चला भी जाता, तो क्या करता मैं? या तो वापस वहीं प्लेज करने पड़ते जिनको मैंने कर लिया था, सात-आठ साल तक कर लिया था; या तो फिर से वही करना पड़ता या फिर अपने गांव में जाना पड़ता. गांव में बहुत मुश्किल था क्योंकि कहा जाता ‘आ गया सिपाही हारके, क्या सोच के आया?’ तो इस तरह के इन सवालों से बहुत डर लगता था. मैंने कहा ठीक है जो भी बुरा भला होगा, यहीं होगा मुंबई में. तो इसलिए वापस नहीं आया.
इरफ़ान: देखिए एक एक्टर के लिए च्वाइस बहुत ज्यादा होती नहीं है. उसको सरवाइव भी करना होता है. ये बहुत बाद में आ पाता है कि ‘हम ये करेंगे और ये नहीं करेंगे, हम स्क्रिप्ट देखकर डिसाइड करते हैं वगैरह.’ लेकिन ये जो शुरूआती दस ग्यारह साल हैं उसमें तो ये ही रहता है कि कुछ भी मिल जाए. यहां तक कि आप ‘सरफरोश’ के बारे में कहते हैं कि वो रोल तो आपको इसलिए मिला क्योंकि वो जिसको मिलना था वो गायब हो गया था, तो ऐसे में जब एक्टर के पास कोई च्वाइस नहीं होती तो भी ये एक अजीब सी स्थिति है कि सरवाइवल के लिए आपको काम करना पड़ रहा है, यहां तक कि ऐसे डायरेक्टर्स के साथ भी काम करना पड़ रहा है जो शॉट के बीच में कट-कट-कट तो बोल देते हैं लेकिन उनको मालूम नहीं होता कि क्या चाहिए उनको आपसे. इस सिलसिले में आपका क्या तजुर्बा रहा?
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: मुझे थोड़ा सा और एक्सप्लेन कर दीजिए.
इरफान: जैसे कि आपको कोई सीन ब्रीफ किया, कोई कैरेक्टर ब्रीफ किया गया और आपने करके दिखाया लेकिन डारेक्टर उससे सैटिसफाइड नहीं हो रहा है और वो ये बता भी नहीं पा रहा है कि क्या उसे चाहिए.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: एक्जेक्टली. एक्चुअली बहुत बार ऐसा हुआ कि जैसे जब मैं टीवी भी करता था और खासतौर से उस तरह के सीन करते हुए अक्सर होता है कि यार वो चीज नहीं आ रही है. मैंने कहा क्या? कहने लगे जो चाहिए था वो नहीं आ रहा है. मैंने कहा क्या चाहिए? तो बोले जो एनर्जी चाहिए वो मजा नहीं आ रहा. तो वो आप मुझे बता दो कि क्या चाहिए? एक्जेक्टली क्या चाहिए, मैं वैसा करके दिखाता हूं, कोशिश करता हूं वैसा करने की. बट उन्हीं के दिमाग में क्लैरिटी नहीं है. तो अक्सर टीवी में होती थीं ये चीजें. जब मैं टीवी करता था उसमें होता था. जैसे एक किस्सा हुआ था मेरे साथ कि टीवी का एक एपीसोड कर रहा था जिसमें मैं कहीं से पिट-पिटा कर आता हूं और हॉस्पिटल में बैड पर पड़ा हुआ हूं. पट्टिया-वट्टियां लगी हुईं हैं. और उसमें मेरी मदर भी हैं एक बहन है उसमें तो डायरेक्टर आया. पहले बहन से कहा उसने कि तुम्हारे साथ ऐसा सीन हुआ है कि तुम्हारा बड़ा भाई है उसको चोट लगी है और वो बस मरने की कगार पर है इसलिये ब्लास्ट कर दो, मतलब जितना चाहो रो दो, ये वैसा सीन है इमोशनल सीन है ये. ठीक है, लड़की ने बोला ठीक है. फिर मदर ने पूछा मेरा क्या टास्क है उसने बताया कि आप भी ब्लास्ट हो जाओ. तो फिर मैं जो पट्टी बांधे पड़ा था मैंने कहा मैं क्या करूं? डायरेक्टर ने मेरी तरफ देखा और बोला तू भी ब्लास्ट हो जा. तो बस यही है, मतलब रोना है तो आंसू आना बहुत जरूरी है. मतलब सैड सीन है तो रोना बहुत जरूरी है; इस तरह के कुछ जो बना रखे है ना मतलब सेड सीना में रोना. इमोशनल सीन में रोना जरूरी है. जरूरी नहीं कि इमोशनल सीन रोकर ही दिखाया जाएगा. मतलब हमने जैसे भरतमुनि का नाट्यशास्त्र पढ़ा कि एक्टर का काम होता है रस को क्रिएट करना, उसका मजा ऑडियंस को लेने दो. आप ही मजे ले रहे हो आप ही वो कर रहे हो तो वो ज्यादा हो जाता है.
इरफ़ान: और फिर आपको वैसे डारेक्टर भी मिले जिनको ठीक-ठीक मालूम था कि आपसे किस तरह का काम लेना है वो तजुर्बा भी आप स्केची तौर पर बताइये.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: जैसे उस वक्त जो नए डायरेक्टर्स आ रहे थे, फिल्ममेकर्स थे, लाइक जैसे एक प्रशांत भार्गव करके डारेक्टर थे, ओशीम अहलूवालिया और फाइनली अनुराग कश्यप जो आए मेरी लाइफ में. तो उन्होंने बहुत अच्छे से एक्सप्लोर किया चीजों को. कि हां ये बंदा जो है चीजें जानता है. इसको ऐसे एक्सप्लोर करेंगे हम. तो ऐसे डारेक्टर जो अच्छे डारेक्टर होते हैं उनसे आप शेयर कर सकते हैं अपने थॉट. या जिस वक्त सीन कर रहे हो तो आइडियाज शेयर होते हैं तो ये जो एनवायरमेंट होता है फिल्ममेकिंग का अपने एक्टर से शेयर कर रहे हो. थॉट अपना शेयर कर रहे हो सीन को लेकर और वो भी कर रहा है तो उससे कुछ और ही चीज क्रीएट होती हैं. और वो बहुत ही कमाल है. मुझे पता नहीं कभी-कभी अहसास इस चीज का होता है कि जिसकी वजह से आपको हजारो लाखों लोग आपको लाइक करते हैं आपको स्टार बनाते हैं वो एक एक्चुअली आपका एक जॉब है, एक प्रोफेशन है, उसको आप पर्सनली लिए हुए हैं तो आई थिंक वो कहीं न कहीं गड़बड़ हो जाता है. मुझे लगता कि आज चूकीं मुझे काम मिल रहा है लोग मुझे जानते हैं, एप्रीशियएट कर रहे हैं इज्जत दे रहे हैं, अच्छी बात है वैरी गुड. बट ऐट द सेम टाइम मुझे ये भी करना चाहिए क्योंकि मेरा प्रोफेशन ही ऐसा है कि जहां पर लोग मुझे जानेंगे … जहां पर मेरे काम को एप्रीशियएट करेंगे, तो मुझे उसको वहीं तक महदूद रखना चाहिए. अगर इसको मैंने पर्सनली ले लिया कि अरे मैं तो बहुत बड़ा स्टार हो गया हूं अभी, अब तो लोग मुझे जानने लगे हैं, और मैं उसको खुद अपने अंदर फील करने लगूं तो आई थिंक बहुत गड़बड़ हो जाता है. एक एटीट्यूड आ जाता है ना … कहते हैं ना स्टार का एक एटीट्यूड है तो मैं उसमें कम्फर्टेबिल फील नहीं करता हूं. मुझे लगता है मेरा जॉब है … लोग जानेंगे … इज़्ज़त भी देंगे, बिकॉज ऑफ माई प्रोफेशन. लेकिन जो मेरे पर्सनल है उसमें उसको इफेक्ट नहीं होने दूंगा.
इरफान: ये जो स्टार सिस्टम है अपने यहां उसके बारे में भी आपकी एक डेफिनिट राय है. कहीं पर आपने कहते हुए कहा कि जो फिल्म सौ करोड़ का बिजनिस करती है उसके बारे में ये नहीं पूछा जाता कि वो कितने पैसे में बनी थी? मतलब कितनी लागत उसमें लगी थी? इसको थोड़ा एक्सप्लेन कीजिए.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: एक्चुअली हमारे यहां एक ट्रेंड बना हुआ है कि सौ करोड़ कर लिए पिक्चर हिट हो गई. बट जो उसका मार्जिन ऑफ प्रोफिट है, वो तो उतना नहीं होता ना. बन भी तो रही है वो साठ करोड में बन रही है,पचास करोड़ में बन रही है. तो एक वो ट्रेंड बन जाता है क्लब बन जाता है वो. अब मान लीजिये एक कोई छोटी फिल्म है और पांच करोड़ की फिल्म है और उसने तीस चालीस करोड़ कमा लिए तो उसी के बराबर तो हो गई अगर देखा जाए तो ! बट एक वो बन जाता है ना, एक ट्रेंड बन जाता है कि भई सौ करोड़ क्लब में आ गई ये.
इरफान: बहुत-बहुत शुक्रिया नवाज़ुद्दीन, आपने हमारे लिए इतना वक्त दिया, बहुत बहुत शुक्रिया.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी: थैंक्स.
[इस पूरी बातचीत को इस लिंक पर देखा जा सकता है: नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी और इरफ़ान की गुफ्तगू]
इरफ़ान बीस से भी अधिक वर्षों से ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट हैं. राज्यसभा टीवी के आरम्भ के साथी हैं और इस चैनेल के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के होस्ट हैं. देश में उनके पाए का दूसरा इंटरव्यूअर खोज सकना मुश्किल होगा. संस्कृति. संगीत और सिनेमा में विशेष दिलचस्पी रखने वाले इरफ़ान काफल ट्री से साथ उसकी शुरुआत से ही जुड़े हुए हैं.
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मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
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