पिछले दिनों हमने विनोद कापड़ी के विषय में लिखा था. 2016 के अंत में हल्द्वानी फिल्म फेस्टिवल के दौरान विनोद कापड़ी की फिल्म ‘मिस. टनकपुर हाजिर हो ‘और ‘कांट टेक दिस शिट एनीमोर’ दिखायी गयी थी. इस फिल्म के प्रदर्शन दौरान सुचित्रा अवस्थी ने विनोद कापड़ी का इंटरव्यू किया था. सुचित्रा अवस्थी उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं.
सुचित्रा अवस्थी- मैं आपके शुरूआती जीवन और पत्रकारिता में आपके करियर से शुरुआत करना चाहूंगी.
विनोद कापड़ी- जैसे कि मेरे पिता भारतीय सेना में थे इसलिये उनकी तैनाती देशभर में अलग-अलग जगह हुआ करती थी.मैंने अपनी पढ़ाई अलग-अलग राज्यों के केन्द्रीय विद्यालयों जैसे आंध्र प्रदेश, जम्मू कश्मी, प. बंगाल और उत्तर प्रदेश में पूरी की है.
पत्रकारिता में मैंने अपना करियर हिंदी अखबार दैनिक जागरण के साथ शुरू किया. दैनिक जागरण के साथ एक संक्षिप्त कार्यकाल रहा क्योंकि मैं वहां केवल तीन महीने के लिए रहा. उसके बाद ढाई साल के लिये मैंने अमर उजाला में काम किया. जी न्यूज जिसके लिये मैंने नौ वर्षों तक काम किया ने एक मीडिया पत्रकार के रूप में मुझे स्थापित करने में कई तरह से भूमिका निभाई है. जी न्यूज छोड़ने के बाद मैंने स्टार न्यूज के साथ काम करना शुरू किया और पत्रकारिता के अपने अंतिम समय में इण्डिया टीवी न्यूज चैनल से जुड़ा हुआ था.
सुचित्रा अवस्थी- अपने 23 वर्ष के पत्राकरिता के जीवन में आपके द्वारा कवर की गयी स्टोरी में कौन सी स्टोरी को कवर करना सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है?
विनोद कापड़ी- सभी स्टोरी जो मैंने कवर की अपने मायने में चुनौती पूर्ण थी लेकिन मेरे लिए 13 दिसम्बर 2011 में संसद हमले और 26/11 के मुम्बई अटैक की स्टोरी सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण थी.
पत्रकारिता के दौरान भी मैंने डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का भी काम किया. मैंने परम पावन दलाई लामा, हरिद्वार के अघोरी साधु, बनारस के डोम्स, समलैंगिक, यूथानासिया (ईच्छामृत्यु) और कुछ अन्य नामों पर डाक्यूमेंट्री बनाई जो सामान रूप से रोमांचक थे और मैंने इन डाक्यूमेंट्री के निर्माण के दौरान वास्तव में बहुत कुछ सीखा.
सुचित्रा अवस्थी- पत्रकारिता में इस तरह के एक आकर्षक करियर के बाद, किसने आपको फिल्मों की दुनिया में धकेला?
विनोद कापड़ी- हालांकि पत्रकारिता में, मैं पाने जीवन से संतुष्ट था लेकिन पत्रकारिता कहीं ना कहीं मेरी रचानात्मकता की भूख को पूरा नहीं कर सकती थी. मैं हमेशा से एक ऐसा व्यक्ति रहा हूं जो रचनात्मकता के लिए लालायित रहता है. मैं स्कूल के दिनों से अपनी कहानियाँ लिखता था. मैगजीन और दैनिक अखबारों में वह छपती भी थी. जब मैं ग्यारहवीं में था तब मेरी पहली कहानी अमर उजाला में छपी. हालांकि, पत्रकारिता ने मुझे मुख्य रूप से तथ्यों पर आधारित कहानियों तक सीमित कर दिया जो मेरी रचनात्मकता को एक तरह से बाधित करते थे. इसलिए, मैंने फिल्म बनाने पर विचार करना शुरू कर दिया. इसके अलावा, फिल्मों के माध्यम से आप एक स्थायी तरीके से योगदान करते हैं. पत्रकारिता आधारित कहानियां क्षणिक होती हैं, जैसे ही खबर दूर हो जाती है, वे विस्मृति में फीके हो जाते हैं जबकि फ़िल्में आपके जीते जी तो आपके साथ ही रहती हैं और आपके जाने के बाद लोग आपको आपकी उसी के नाम से याद करते हैं.
सुचित्रा अवस्थी- आप अपनी फिल्मों के लिये विषय कैसे चुनते हैं?
विनोद कापड़ी- देखिये अगर आप लगातार तेईस वर्ष एक पत्रकार के रूप में कार्य करते हैं तो आपके लिए विषयों की कोई कमी नहीं होती है. एक पत्रकार के रूप में आप वास्तविक दुनिया से मुखातिब होते हैं जहां तथ्य और सत्य मायने रखता है. एक फिल्म निर्माता के रूप में यह बात मेरे साथ भी रही. मुझे ऐसे विषयों पर फिल्म बनाने के तीव्र इच्छा है जो वास्तव में महत्व के हैं. मुझे लगता है समाज के हर गहर में एक गहरा सन्देश देने के लिये फिल्म निर्माता को सामजिक समस्या को लेकर फिल्म बनानी चाहिये जो मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से करता हूँ. फिल्म निर्माण से पहले जिस चीज का मैं सबसे पहले सोचता हूँ कि फिल्म बनाने के पीछे कारण क्या है? यह मेरे पहले फ़िल्टर के रूप में कार्य करता है. यदि फिल्म में कोई सन्देश होता है तो मैं उसके साथ बढ़ता हूँ.
सुचित्रा अवस्थी- आपने एक टीवी शो के लिए एंकर के रूप में एक एसिड अटैक विक्टम लक्ष्मी सा को लॉन्च कर एक नये आधार का निर्माण किया. उसके बाद आपने युवा दृष्टिहीन द्वियांग कमल प्रजापति को टीवी होस्ट के रूप में लांच किया. इस प्रकार के परिवर्तनात्मक प्रोजेक्ट की प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है.
विनोद कापड़ी- मैं हमेशा अपने आपको चुनौती देने में विश्वास रखता हूँ. मैंने जिन्दगी में हमेशा खुद को अपनी सीमाओं से बाहर धकेलकर नये क्षितिज खोजे हैं. जब लोग टेलीवीजन इंडस्ट्री में टेलीविजन कार्यक्रमों के लिये आकर्षक चेहरों के लिए आडिशन कर रहे थे तब मैंने लक्ष्मी और कमल के साथ प्रयोग किया. मेरा प्रयोग सफल रहा क्योंकि मैंने जनता से पूर्ण समर्थन प्राप्त किया. यह लक्ष्मी और कमल जैसे लोगों के लिए भी काफी अच्छा अवसर था. इसके अलावा, इन प्रयोगों ने लोगों को कुछ नागरिक जिम्मेदारी की ओर बढ़ने करने के लिए भी प्रेरित किया.
सुचित्रा अवस्थी- क्या आप अपने फिल्म निर्माता के सफ़र पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं?
सुचित्रा अवस्थी- क्या भविष्य में आपके पास उत्तराखण्ड को लेकर कोई प्रोजेक्ट है?
विनोद कापड़ी- मूल रूप से बेरीनाग हिल स्टेशन से होने के कारण में पहाड़ों से हमेशा प्रभावित रहा हूँ. उत्तराखण्ड में रहना और काम कर उत्तराखंड की समस्या को फिल्म के माध्यम से सामने लाना मेरा सपना रहा है. उत्तराखण्ड में फिल्म निर्माताओं और फिल्म बनाने दोनों के लिये सामान क्षमता है लेकिन दुर्भाग्य से इन क्षमताओं का कभी भी दोहन नहीं किया गया है. कुछ लोगों ने कुछ विषयों पर छू लिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ खोजना जरूरी है. उत्तराखण्ड के लोगों की सादगी, ईमानदारी, सादगी और सरलता मेरे दिल के बेहद करीब है और मैं फिल्म के माध्यम से इसे सामने लाना चाहता हूँ. मैं यहाँ के कुछ प्रसिध्द लेखक जैसे बटरोही जी, शैलेश मटियानी जी, मनोहर श्याम जोशी जी के उपन्यासों पर भी भविष्य में कम करना चाहूँगा.
सुचित्रा अवस्थी- क्या इसका मतलब यह है कि उत्तराखंड की फिल्मों में उज्ज्वल संभावना है?
विनोद कापड़ी- ईमानदारी से कहूँ तो इस समय मुझे इस तरह का भविष्य कोई बहुत ज्यादा नहीं दिख रहा है. मैं एक सवाल पूछना चाहूँगा, सिनेमा कैसे विकसित होता है? सबसे पहले आपको दर्शक चाहिये. दर्शकों के लिये आपको अच्छे थियेटर चाहिये. उत्तराखण्ड के पास कोई अच्छे सिनेमा हाल ही नहीं हैं. बड़े नगरों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाय तो बाकी राज्य में सिनेमाघरों की कमी है. सबसे पहले सिनेमा दर्शकों के लिए एक अच्चा आधारभूत ढांचा तैयार किये जाने की जरुरत है. तभी बांकि चीजें सही हो पायेंगी. फिर भी, राज्य में सिनेमा बनाने के लिए एक अच्छी गुंजाइश है, जो कि मैं पहले ही बता चुका हूँ. मैं उत्तराखंड को फिल्म बनाने के लिए सबसे समृध्द भूमि में से एक के रूप में देखता हूं. हालांकि, मैं यह देखकर बहुत निराश और चिंतित हूं कि किसी ने भी उत्तराखंड के मुद्दों को लाइमलाइट में नहीं लाया है.
सुचित्रा अवस्थी- आप वास्तव में कई उभरते फिल्म निर्माताओं के लिए एक ट्रेंड सेटर और इनोवेटर हैं. आप उन युवाओं को क्या संदेश देना चाहते हैं जो इस लाइन में प्रवेश करने की इच्छा रखते हैं?
विनोद कापड़ी- फिल्म मेकिंग में युवाओं के पास जबरदस्त गुंजाइश है. हालांकि यह मेरा विचार है कि आज युवा बहुत अधिक जल्दी में रहता है. वे जीवन में बड़ी चुनौतियों को दूर करने से दूर भागते हैं. वे अपने जीवन की यात्रा खुद नहीं करना चाहते हैं. वे शायद ही कभी पढ़ते हैं और चीजों का पता लगाते हैं. वे सभी जानकारी एक क्लीक बटन में चाहते हैं. एक फिल्म निर्माता बनने के लिए आपको जीवन और लोगों का अध्ययन करना होगा और साहित्य का एक बड़ा हिस्सा भी पढ़ना होगा क्योंकि जैसे ही आप पढ़ना शुरू करते हैं, एक पूरी नई दुनिया आपके सामने खुलती है. आपको विचार मिलते हैं और आप उन विचारों के साथ अपने स्वयं के कैनवास चित्रित करना शुरू करते हैं. आब्जरवेशन भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और आपके आब्जरवेशन कौशल को पूरा करता है, लोगों के साथ बातचीत करना आपके लिए जरूरी है. एक बार जब आप इस दिशा में काम करना शुरू कर देते हैं, तो आपको अपने दरवाजे पर इंतजार करते कई अवसर मिलेंगे.
आज के युवा बड़े भाग्यशाली हैं. आज किसी को पहले की तरह अपनी फिल्म को बाजार में नहीं बेचना है. आज स्मार्टफोन परिष्कृत तकनीक के साथ आते हैं और कोई भी उससे क्वालिटी फिल्म बनाकर यूट्यूब में डाल सकता है अगर आपकी फिल्म अच्छी होगी तो उसे अपने आप अपना बाजार मिल जाएगा. आज का सिनेमा और दर्शक परिपक्व है. इससे पहले फिल्में पिक्चर परफेक्ट होती थी. आज यथार्थवादी फिल्में प्रचलित हैं. नील बट्ट्टी सन्नता, मासन, पान सिंह तोमर, आंखो देखी और मिस टनकपुर हाजीर हो जैसी ऑफ-बीट फिल्में मुख्यधारा के सिनेमा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खडी हैं. यदि कोई युवा इन सभी क्षेत्रों में काम करता है तो निश्चित ही आज सिनेमा में उसके लिये बहुत से मौके हैं.
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