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धारचूला से एनएसडी तक का सफ़र तय करने वाली अनिता बिटालू का इंटरव्यू

(उत्तराखण्ड में जिला पिथौरागढ़ के सीमान्त गांव खोतिला की अनिता बिटालू का चयन राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के सत्र-2022 लिए हुआ. तीन हजार कलाकारों ने उस साल ‘राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय’ की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया. इनमें से 250 प्रतिभागी अंतिम चरण की विभिन्न परीक्षाओं के लिए चुने गए और आखिरकार कुल 26 प्रशिक्षुओं का चयन हुआ, अनिता बिटालू इनमें से एक हैं. इतना ही नहीं इन 26 में से भी अनिता ने 9वां स्थान हासिल किया था. इस समय अनिता अपने प्रशिक्षण के अंतिम साल में हैं. पेश है ‘काफल ट्री’ के पाठकों के लिए अनिता बिटालू से दर्शिता जोशी की लम्बी और दिलचस्प बातचीत.) -Interview of Anita Bitalu-

पिथौरागढ़ के एक छोटे से गाँव से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का आपका अब तक का सफ़र कैसा रहा है?

अभी हमारे यहाँ कुछ महीने और बचे हैं. यहाँ आने के बाद जो थिएटर पर्सन होगा उस के लिए बहुत सारे कंसेप्ट्स क्लीयर हो जाते हैं और यहाँ आने के बाद हमें ये भी पता चल जाता हैं की हम किस दिशा में जाना चाहते हैं और हमें यहाँ रह कर क्या सीखना हैं. फ्रीलांस थिएटर करने के बाद जब मैं मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय गई तो वहाँ पर मुझे एक साल में कुछ-कुछ नई चीजें समझ आई (वहाँ थिएटर का एक ही साल का कोर्स होता हैं). राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभी मुझे ढाई साल हो गए हैं तो छोटी-छोटी बारीकियों के बारे में, एक्टिंग और एक्टिंग थ्योरी के बारे में और जो भी लोग थिएटर में काम कर के चले गए हैं उनके बारे में और ज्यादा जानने को मिला और अपने ऊपर भी ज्यादा मेहनत करने का भी मौका मिला. ये सफर अब तक बहुत अच्छा रहा हैं. यहाँ हम खुद से तो हम सीखते ही हैं, हर रोज़ कुछ-न-कुछ नया करते हैं. इसके अलावा अलग-अलग राज्यों से आये कलाकारों से भी उन का रहन-सहन, उनकी बोली-भाषा सब कुछ अलग होता हैं, तो हमें अपने को-एक्टर्स और बैचमेटस से भी बहुत सारी चीजें सीखने को मिलती हैं. 

इस दौरान क्या-क्या नया सीखने का मौका मिला और कितने नाटक किये?

हम लोगों ने अब तक छः नाटक किए हैं. फ़र्स्ट ईयर में दो नाटक होते हैं, सेकेण्ड ईयर में चार. अभी हमारा थर्ड ईयर है तो एक या दो नाटक और होंगे तो सात-आठ तो नाटक हो ही गए हैं. सीनवर्क भी होता हैं. सिनवर्क में नाटक की ड्यूरेशन कम होती है. जैसे हमने पारसी किया और अभी हमने एक और शो किया था ‘थेरुकुथु’ तमिल नाटक था. हाल ही में हम लोग मॉस्को गए थे तो वहाँ भी यही नाटक किया था.

जहाँ तक सीखने का सवाल है तो जैसा मैंने बताया भी था कि अलग-अलग प्रान्तों के लोगों के साथ रहने के दौरान- बंगाली, मराठी, तेलगु भाषाओँ के बारे में समझने-सीखने को मिलता है. उनकी कल्चर के बारे में पता चलता हैं. थ्योरी में मेन चीज मुझे ये लगी कि अगर हम एक बार थ्योरी पढ़ लेते हैं तो हमें कला की बारीकियां समझने में आसानी हो जाती है.

अब तक किए गए नाटकों में कौन से किरदार आप ख़ुद के ज्यादा करीब पाती हैं?

वैसे तो अब तक मैंने जो भी किया है मुझे सभी अच्छा लगा. जब में एमपीएसडी में पढ़ती थी तो मैंने एक नाटक किया था लैला-मजनू. वह कहानी तो सबने सुनी ही होगी. ये नाटक पारसी शैली में है, इसका फॉर्म पारसी है और कह सकते हैं इसी शैली से फिल्म का आइडिया भी आया है. तो उसमें क्या हैं की लर्निंग प्रोसेस और आप जो किरदार कर रहे हो वह इस तरीके से निभा रहे हो. नाटक में मुख्य होता है कि नाटक के दिन तो हम स्टेज पर होते हैं लेकिन उससे पहले पीछे जो हम तैयारी करते हैं महीने भर और वह प्रोसेस रहता है उसमें हम बहुत सारी चीज़ें सीखते हैं. तो, उसमें जब मैंने लैला का जो किरदार निभाया था वह मुझे बहुत अच्छा लगा था. एक सर हैं, अयाज खान, बहुत अच्छे एक्टर हैं तो मेरा सपना था कि मैं इनके साथ कभी काम करूँ. इस नाटक मैं मेरे को-एक्टर, जो मजनू बने, वही थे. इस नाटक में उर्दू में भी बहुत काम हुआ. हम तो पहाड़ के लोग हैं तो शब्दों को पूरा नहीं बोलते, सीधे कट-कट करके बात करते हैं, तो मेरा उर्दू डिक्शन तभी से ठीक हुआ. शब्दों के उच्चारण पर काम हुआ तो मुझे अच्छा लगा. बाकी किरदार तो मैं जो भी करती हूँ अच्छे ही लगते हैं.

उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य के एक सीमांत क़स्बे से एनएसडी पहुँचने का सपना देखने और उसे पूरा करने तक का सफ़र कैसा रहा?

मेरा गाँव खोतिल हैं. मुझे मालूम ही नहीं था कि मैं आगे जाकर ये सब कुछ करूँगी. क्योंकि मेरा टीचिंग लाइन पर ज्यादा इंटरस्ट था या फिर मैं एडवेंचर करती थी, सपोर्टस खेलती थी. तो मेरी ज्यादा रुचि इन सब में ही थी. लेकिन गाना मैं बचपन से गाती थी, घर पर कोई ऐसे गाता तो नहीं था, हमारी दीदी जो हैं वह गाती थी. तो मैं गाना बचपन से गाती थी और टीचर्स बहुत अप्रीशीएट और मोटिवेट करते थे, कि तुम आगे जाओ इसमें.

फिर मैं प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई गाँव से पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए धारचूला आ गयी. जब मेरा 12th पूरा हुआ तो मैं पिथौरागढ़ आई. यहाँ मैं सिर्फ पढ़ने के लिए आई थी, मैंने सोचा नहीं था मैं थिएटर करूँगी. घर वालों ने मेरा एडमिशन बीएससी में कर दिया और मेरा इंटरस्ट था कि मैं म्यूज़िक करूँ, टीचर बनूँ. तो वो नहीं कर पायी काफी टाइम तक.

क्योंकि मैं हिंदी मीडियम से थी तो बीएससी में पहले तो मुझे समझने में बहुत समय लगा, फिर इतना टाइम चला गया था, मैंने सोचा चलो अब पढ़ लेते हैं. मेरा म्यूज़िक भी छूट गया. बीएससी पूरा करते टाइम हम लोग एडवेंचर पर मिलम ग्लेशियर गए थे, 15 दिन के ट्रैक में. तो वहाँ कैम्प फ़ायर हुआ करता था, वहाँ गाने गाये थे. फिर किसी ने बोला कि तुम अच्छा गाती हो, कुछ महीनों बाद यहाँ पर एक वर्कशॉप लगने वाली हैं, नाटक होता है. मुझे मालूम ही नहीं था कि हम जिन्हें टीवी में देखते हैं वे यहीं सब से गए हुए लोग हैं. फ़िलहाल मैंने बोला ठीक हैं मैं आ जाऊंगी. मैं जब गयी और मैंने देखा ये जो कुछ कर रहे हैं तो मुझे हंसी आ गयी. मैंने सोचा ये भी क्या कुछ काम होता है. उन्होंने बोला कि आपको एक्टिंग करनी हैं? मैंने कहा एक्टिंग नहीं करूँगी, आप गाने के लिए बोलेंगे तो गाना गाऊँगी. इस तरह मेरा सबसे पहला नाटक जो मैंने किया था, उरुभांगम्.  उसमें मैंने कोरस किया था. एक महीने के अंदर शो हो गया. उरुभांगम् का मंचन हुआ. भाव राग ताल नाट्य अकादमी हैं पिथौरागढ़ में उस ग्रुप के साथ मैंने काम शुरू किया था. 4-5 दिन तो मैं ठहर गयी, मैंने सोचा मैंने टाइम वेस्ट कर दिया यहाँ, अब मैं छोड़ती नहीं हूँ, इस को कंटिन्यू करती हूँ.

पहले तो क्या था कि थिएटर कंटिन्यू होता नहीं था पिथौरागढ़ में. हम भी करते थे एक महीने बाद या फिर एक साल बाद, कभी तीन तो कभी छह महीने बाद. अगर कोई बाहर से टीचर आ गया जिन्होंने वर्कशॉप कंडक्ट किया तो हम उनके साथ काम करते थे. फिर सर चले गए, बहुत खालीपन लगने लगा.

इसी दौरान कॉलेज में NCC में फिर मैंने गाने गाये या फिर मैं एक्ट वगैरा करने लगी. तब 2015 में हमारे जो सर थे, वे रेगुलर, मतलब हमेशा रहने के लिए पिथौरागढ़ आ गए तब हमने थिएटर करना शुरू किया. उस पर भी ये था कि मेरी लाइन चेंज हो रही है, मैं अब ज्यादा टाइम इस पर दे रही हूँ पढाई पर नहीं. किसी तरह मेरा बीएससी पूरा हो गया तो मैंने कहा अब तो मैं इसमें घुस ही गयी हूँ, बहुत टाइम भी दे दिया हैं तो अब यही करती हूँ. क्योंकि मैं क्लासिकल सीखना चाहती थी, बहुत बाद में पता चला मुझे कि एक सर हैं जो सिखाते हैं. इसी दौरान मध्य प्रदेश स्कूल ऑफ़ ड्रामा, भोपाल में के बारे में पता लगा. वहां इंटरव्यू दिया तो मेरा वहाँ सलेक्शन हो गया और मेरा क्लासिकल छूट गया. तो एक साल मैंने वहाँ पढाई की 2018-19 तक.

उसके बाद वहाँ से जैसे ही निकली थी लॉकडाउन हो गया, उसके दौरान मैंने इंटर्नशिप किया, फ़ेलोशिप किया. यहाँ एनएसडी  आना मेरा सपना ही था, मैंने एमपीएसडी जब दिया था 2018 में, उस से पहले 2017 में मैंने एनएसडी दिया था, यहाँ नहीं हुआ. लॉकडाउन के बाद तो फिर कोशिश की और इस बार गया. बस ये है स्टोरी. थिएटर शुरू करते समय, मतलब बहुत सारी चीजें घर से होती हैं ना- कि ये कर लो वो कर लो. मेरे मम्मी पापा अभी भी मुझे बोलते हैं कि पुलिस की भर्ती खुली हैं वहां कोशिश कर लो. क्योंकि तब उन को पता नहीं था कि ये क्या है. हालाँकि अब धीरे-धीरे पता चलने लगा है, तो अब सब समझने लगे हैं.

आप जिस समय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तैयारी कर रही थी उस दौरान आप किस से प्रेरित रहे?

ऐसा तो नहीं था. मतलब हम सीखते थे, करते थे, कहाँ जाना है? हमें कोई डायरेक्शन पता ही नहीं था. मुझे ये भी नहीं पता था कि इसको पढ़ने के लिए कोई स्कूल भी होता है, 2017 में पता चला, फिर एमपीएसडी जाने के बाद मुझे ये हुआ कि… जैसे मेरे जो डाइरेक्टर थे उन जैसे कुछ लोगों का काम देख कर मैं बहुत इंस्पायर हो जाती हूँ. मुझे अच्छा लगता हैं उनके साथ काम करके और कुछ एक्टर्स हैं जैसे नवाजुद्दीन सिद्दीकी हो गए, इरफ़ान ख़ान साहब हो गए, नसीरूद्दीन शाह, सुनीता राजवर हो गयी, तो ये हमारे ही इस स्कूल से पासआउट हैं. तो यहाँ आने के बाद जब मैंने लोगों के बारे में पढ़ना शुरू किया तो उनका स्ट्रगल पता चला मुझे. पहले तो ये होता था कि अरे यार! सिर्फ जाना ही तो हैं, एक्टिंग ही तो करनी हैं या फिर गाना ही गाना हैं.

अभी क्या है कि वहाँ पढ़ने के बाद जब हम अंदर घुसे तो सिर्फ ये ही नहीं कि सिर्फ ये करना हैं. मैं अभी वो किताबें पढ़ती हूँ जो मैंने पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ी होंगी. जैसे प्रेमचंद की कहानी, सोहन लाल द्विवेदी की कविताएँ हैं… तो अभी हेमिंग्वे भी पढ़ना पड़ता हैं. कई सारे लेखकों के बारे में पढ़ना पड़ता हैं. और बोलेंगे की बचपन की कोई मेमोरी याद करो, तो बहुत सारे गाँव में कैसे खेलते थे कैसे करते हैं? तो वो सब का अभी हम यहाँ उपयोग करते हैं. तो पहले जो मैं ऊपरी सतह से देखती थी, यहाँ आकर पता चला और थिएटर की बारीकियां पता चली. ऐसा कोई पर्टिकुलर नहीं हैं, मुझे सबका काम प्रभावित करता हैं जिन लोगों के बारे में मैंने पढ़ा हैं और जिन्होंने थिएटर में काम-नाम करा है.

थिएटर का सपना अब और कैसे आप के भीतर पैदा हुआ?

जैसा की मैंने पहले बताया, 2014 में मैंने नाटक किया था. थिएटर बाय चांस हो गया. मतलब मेरी ऐसी आदत हैं की अगर मैं कहीं पर एक या दो घंटे दूँ तो मुझे लगता हैं कि अब इसको ऐसा तो नहीं छोड़ना है. कि चलो एक घंटा दे दिया छोड़ दो, मुझे लगता है कि इसका रिजल्ट कुछ न कुछ होना चाहिए, तो पढ़ाई के साथ भी वैसा ही होता है. और थिएटर के साथ तो फिर 10-12 दिन दे ही चुकी थी मैं. क्योंकि हम रेंट पर रहते थे तो मैं क्या करती थी, पहले मैं पढ़ाने के लिए जाती थी. फिर उसके बाद कॉलेज जाती थी. फिर उसके बाद रिहर्सल में जाती थी. उसके बाद ट्यूशन पढ़ाती थी तो ये सारा क्योंकि मेरा टाइम बहुत जा रहा था और कुछ काम करती या जॉब करती तो शायद पैसे मिल जाते, थिएटर में पैसे भी नहीं मिले और हम एक महीने, दो महीने बाद शो होता था उसके हजार रूपये मिलेंगे. इतना टाइम देने के बाद टाइम वेस्ट नहीं करना चाहती थी, इसीलिए जब शुरू किया 2014 में तो फिर कंटिन्यू किया.

क्या आपके जीवन में कोई व्यक्ति था जिससे आप थिएटर करने के लिए प्रेरित हुईं या ऐसा कोई जिसने आपके इस सफर में आपकी पूरी सहायता की?

जो कैलाश कुमार सर हैं भाव राग ताल नाट्य अकादमी के तो… वो क्या हैं कि एक तो वो दिल्ली से आकर बसे हुए थे और हम लोगों की तो आदत होती हैं कि अरे यार कोई नया आया है, उसे अकेले कैसे छोड़े या फिर अब शुरू कर दिया है, तो चले जायेंगे तो लोग क्या बोलेंगे. 2-4 दिन आई फिर चली गई, ये किया वो किया. समाज के बारे में जो सोचने वाली बात होती हैं ना सबके बारे में सोच के चलो तो वो मेहनत भी बहुत करते थे. कभी खाना होता था नहीं होता था. जब वो आए थे दिल्ली से तो बिस्तर भी उनको सोने के लिए किसी और ने दिया. तो तब मैंने सोचा की यार कुछ तो बात होती होगी ना थिएटर में कि इंसान इतना सब कुछ ऐसे ही तो नहीं करेगा. अभी उनको बिस्मिल्ला अवार्ड भी मिला हैं कुछ समय पहले. तो मतलब आप मेहनत करते जाते हो भले ही उसका रिजल्ट 1-2 साल में नहीं दिखेगा लेकिन अभी-अभी हमारे 10 या 12 साल हो गए हैं न थिएटर के, “भाव राग ताल’ के. तो कहीं न कहीं मेरे प्रेरणा स्रोत कहे सकते हैं. प्रेरणा स्रोत भी नहीं बल्कि उनका जो जीने का तरीका हैं ना उससे ज्यादा प्रभावित हुई मैं, क्योंकि काम तो हर कोई करता हैं लेकिन वो किस तरीके से काम करते हैं वो मुझे अच्छा लगा.

आपकी एक्टिंग के अलावा और किन चीजों में रुचि है?

स्पोर्ट्स में. अभी भी मैं खेलती हूँ. अभी यहाँ क्योंकि ये एनएसडी में स्पोर्ट्स डे मनाते हैं तीन दिन. पूरा स्टाफ खेलता हैं, एल्यूमिनी जो पास आउट हो चुके हैं वो भी आते हैं खेलने के लिए. तो टीमस् बनती हैं. तो गाँव में खेले हुए हैं न हम लोग और नेशनल लेवल में भी खेला है. मैं रनिंग करती थी और उसके बाद भी बैडमिंटन खेला. क्रिकेट मैंने पहली बार खेला था यहाँ.  लोगों के साथ घर में खेलती थी फिर उसके बाद यहाँ भी खेला. यहाँ ‘वुमन ऑफ द मैच’ रही मैं. तो स्पोर्ट्स मेरे से कभी दूर नहीं जाता. यहाँ सुबह मॉर्निंग क्लास हमेशा चलती है 6 बजे से. कभी योगा होता है, कभी थांग ता- मणिपुरी मार्शल आर्ट है- कभी कूडियाट्टम, कलियारिपट्टू.

क्या आप हमें अपने आने वाले प्रोजेक्टस के बारे में कुछ बता सकती हैं? आप खुद को अगले पाँच या दस सालों में कहाँ देखती हैं?

अभी हमारा कुछ समय पहले एक रियलिस्टिक प्रोडक्शन हुआ था, अन्तोन चेख़व का नाम सुना ही होगा, तो उनका नाटक हैं ‘थ्री सिस्टर्स’ करके तो उसका शो हुआ था.

बाकी, यहाँ आने के बाद क्या होता हैं जो हम सोच के आते हैं, कि नहीं यार! हम ये करेंगे तो तीन साल में जो परिवर्तन होता हैं, चीजों का भी, विचारों का भी कि यार! अच्छा ये सोचा था. अब मुझे ये मुश्किल लगता है. मैं सोचती थी मैं पिथौरागढ़ जाके या घर जाके काम करूँ, जैसे की मुझे बच्चो के साथ काम करना था अभी भी ये है कि अच्छा लगता है. अब मैं जैसे गाँव के बच्चो को देखती हूँ तो वो बहुत बदल गए हैं. उनका कोई मन ही नहीं है ये सब कुछ करने का, सब फोन पर लगे हुए हैं. कोई बच्चा मुझ से पूछता भी नहीं है कि आप क्या करते हो? या उसमें क्या होता है? किसी को कोई इंटरस्ट ही नहीं हैं. और कुछ हैं तो उनके घर वाले नहीं करने देते. होता है न कि उस से अच्छा पढ़ो-लिखो, खाली नाच गाना क्या करना हैं. तो मैं ये सोचती थी कि… सोचती हूँ अभी भी, मैं वहाँ जाके काम करूँ. एस्टेब्लिश हो पाऊँगी या नहीं, मुझे नहीं पता. उसके अलावा मेरे लिए ऑप्शन है कि यहाँ पर ‘थिएटर एंड एजुकेशन’ के लिए डिपार्टमेंट है, आप वहाँ काम कर सकते हो. रेपररेट्री है प्रोफेशनल आर्टिस्ट के लिए बल्कि सैलरी भी मिलती है दोनों में ही, तो वो अप्लाई करूँगी. हमारे लिए ऑप्शन रहता हैं अपने शहर जाकर फेलोशिप कर लो वरना आप यहाँ भी काम कर सकते हो.

आपके जैसे कई लोग हैं जो थिएटर में अपना करियर बनाना चाहते हैं लेकिन कई वजहों से सफल नहीं हो पाते. क्या आप उन लोगों को कुछ कहना चाहेंगी जिससे उन्हें प्रेरणा मिले और वह रंगमंच या एक्टिंग की राह न छोड़ें?

जब मैं ये काम कर रही थी उस दौरान मैंने सोचा था कि टीचर बनूँगी. अब हर कोई टीचर नहीं बन सकता, डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता. आपकी क्षमता, फिर आपका फैमिली बैकग्राउंड कैसा हैं उस पर भी डिपेंड करता हैं ना… तो मुझे लगता है कि जो भी बच्चा करना चाहता है उसको करने देना चाहिए.

इसे भी पढ़ें : अनिता बिटालू : धारचूला के खोतिला गांव से एनएसडी तक

मुझे अब ये समझ आता हैं कि अगर आप अपने बच्चों को, या कोई भी अगर एक आर्ट के फील्ड में जाता है– चाहे वो फाइन आर्ट हो, परफॉर्मिंग आर्ट हो तो उसका एक फोकस रहता हैं कहीं ना कहीं मैंने ये खुद मेहसूस किया हैं. अगर आप अपने बच्चो को छोटे से ही संगीत या त्य  सिखाओगे तो उसका ध्यान इधर-उधर भटकेगा ही नहीं.

अगर आपके पास बहुत सारे पैसे हैं तो आप बोलोगे अरे! बेटा तू एमबीबीएस कर, जबकि बच्चे का मन ही नहीं हैं वो करने का तो क्या करेगा? कुछ सालों में पढ़के वो बैठ जाएगा.

पहली बात’ आपको अपने ऊपर भरोसा होना चाहिए की अगर मैं ये कर रही हूँ तो मैं इसको पूरा करूँगी. जब मैं बीएससी करती थी. …मैंने बताया न कि बहुत टाइम, एक दो महीने, चले गए थे. प्रैक्टिकल आ रहा था तो हमें प्रोजेक्ट वगैरा बनाना था. बहुत सारी चीज़ें खरीदनी होती हैं, जियोलॉजी बॉटनी केमिस्ट्री के लिए. तो मेरे २००० रुपये खर्च हो गए थे इस सब में. मैंने उसी दिन सोच लिया था कि मेरे पैसे खर्च हो गए पहली बार. मम्मी लोग यहाँ भी देख रहे हैं, घर का भी देख रहे हैं. मेरा इतना खर्चा हो गया तो अब मैं इसको बेकार नहीं जाने दूँगी. थिएटर तो कर ही रही थी लेकिन पढ़ने में भी उतना ही फोकस था. ये चीज करनी है तो करनी है. शुरू-शुरू में घर वाले बोलते थे की जॉब कर ले, ये कर ले वो कर ले. उसके बाद मैंने ये सोचा कि अगर मैं कर रही हूँ तो कुछ बन के ही रहना है. ऐसा नहीं कि किया और छोड़ दिया. फिर कुछ और पकड़ लिया. शायद इतना दिमाग भी नहीं है कि कुछ और पकड़ के उसको एकदम से कैच कर ले. जिसमें आप शार्प हैं या आप उसको कर सकते हो तो वही ट्राई करना चाहिए और उसमें सपोर्ट भी बहुत जयादा ज़रूरी हैं. अभी मैं पास आउट होके अपने गाँव जाती हूँ या कहीं जगह पर जाती हूँ वहाँ पर मुझे एक या दो लोग ऐसे चाहिए जो मुझे सपोर्ट करे तो सपोर्ट चाहे किसी का भी होना चाहिए. तभी कहीं ना कहीं आप पहुँच पाएंगे. मुझे ये लगता है कि ये सच कह रहे हो की बहुत सारे लोग करना चाहते हैं. मैं सच बताऊ, जो रील्स बना रहे हैं ना गाँव के लोग, इतनी अच्छी एक्टिंग कर रहे हैं लेकिन उन को पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं और इसमें आप अपना करियर बना सकते हो.  हर कोई फेमस नहीं हो पायेगा ना रील्स से, तो मैं भी सोचती हूँ जब मैं जाती हूँ कि किसी को मन ही नहीं हैं अब सोशल मीडिया में लोग जयादा ध्यान दे रहे हैं और मेहनत कम कर रहे हैं तो इसका भी लैक लगता हैं मुझे.

आपके अनुसार एक व्यक्ति में एक्टिंग/थिएटर के लिए क्या गुण और स्किल्स होनी चाहिए?

कहते हैं की एक्टिंग सिखाई नहीं जाती हैं. मैं चाहे कितना भी बोलूं एक्टिंग ऐसे करो वैसे करो, आप अपने ही तरीके से सिर हिलाओगे. मैं बोलूं ऐसे करो, नहीं करोगे आप ऐसे ही करोगे जैसे आपकी आदत हैं. तो वो सिखाई नहीं जाती वो हो जाती है. जैसे हमारे वहाँ बोलते हैं एक्टिंग इस डोइंग. तो वो करने की चीज है, सिखाने की भी चीज नहीं हैं. यहाँ पर आने के बाद हमें ना डिटेल्स पता चलती हैं. अब कुछ भी करने से पहले जैसे मैंने ये किया तो मुझे ध्यान में रहता हैं की मैंने ये किया हैं. अगर आप मुझे बोलोगे की आप दस बार रिपीट करो तो मैं दस बार भी रिपीट कर दूँगी उसे. तो कहीं ना कहीं कान्शस्ली चीज़े करनी पड़ती हैं, जैसे एनएसडी का इंटरव्यू होता हैं तो डांस या गाना या कुछ भी ऐसा पूछते हैं और अगर किसी कला मतलब थिएटर में ही क्या कहीं पर भी जाना चाहते हो ना सबसे पहले आपको अपनी चीजें पता होनी चाहिए. यहाँ जब मेरा इंटरव्यू हुआ तो उन्होंने बोला की आपको क्या क्या आता हैं, मुझे क्योंकि उससे पहले ना मैं ‘नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र’ में सांस्कृतिक प्रोग्राम करती थी. कभी उन्होंने बुला लिया तो मैं जाया करती. इसलिए मुझे झोड़ा- चांचरी से लेकर छोलिया नृत्य तक सब कुछ पता है, हुड़का बजाने से लेकर… ये कान्शस्ली नहीं सीखा था, बस अच्छा लगता है मुझे. सीखते सीखते ना ये चीजें कब काम आयेगी मुझे खुद पता नहीं था.

काफल ट्री की तरफ से आपको धन्यवाद! और बेहतर भविष्य की कामना.

हल्द्वानी की रहने वाली दर्शिता जोशी फ़िलहाल दिल्ली कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड कॉमर्स में पत्रकारिता की छात्रा हैं और ‘काफल ट्री’ के लिए रचनात्मक लेखन भी करती हैं.

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Sudhir Kumar

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