आज अन्तराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है. कुमाउंनी में मातृभाषा के लिये अगर सबसे उपयुक्त शब्द नज़र में आता है वह है दुदबोली. भारत की तमाम भाषाओं की तरह कुमाउंनी भी अपनी अंतिम सांसे गिन रही है.
पहाड़ से कुमाउंनी ख़त्म करने का पूरा श्रेय हमसे पिछली पीढ़ी को जाता है. इस पीढ़ी ने अपने शैक्षिक दंभ के आधार पर कुमाउंनी को गंवारों की भाषा साबित किया और कुमाउंनी बोलने वाले हर व्यक्ति को हीन श्रेणी में खड़ा कर दिया.
चार बरस की उम्र में जब मैं एक निजी स्कूल में दाखिले के लिये गया तो मेरे सामने चार रंग बिरंगी गोलियां रखी गयी. टेबल की दूसरी ओर बैठे एक महिला और दो पुरुष अध्यापक ने बड़े प्यार से मुझे एक गोली खाकर उसका स्वाद बताने को कहा. गोली मीठी थी सो मैंने जवाब दिया ‘गुल्ली’. कमरे में उपस्थित हर व्यक्ति और बच्चे ने मेरे जवाब पर ठहाका लगाया. इस घटना के बाद कोर्स शुरु हुआ मेरे भाषायी गंवारपन को दूर करने का.
90 के दशक में जन्मे बच्चों को ईजा कहने पर कितने थप्पड़ तोहफे में मिले हैं हर कोई जानता है. घर हो या स्कूल सभी जगह छोटे-बड़े कस्बों में हिन्दी थोपी गयी जैसे आज अंग्रेजी थोपी जा रही है. इसमें सबसे मुख्य भूमिका शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की रही. हाड़ तोड़कर कमा रहे हैं, प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहें हैं और ये ईजा-बौज्यू सीख रहा है जैसे तंज न जाने कितने बच्चों ने सुने होंगे.
शिक्षकों ने पतली बेंत के दम पर कुमाउंनी को स्कूलों में ख़त्म कर दिया और शिक्षित अभिभावकों ने घर पर. कुमाऊं के पूरे शिक्षित समाज ने अपनी भाषा को खत्म किया है. दुर्भाग्य यह है कि आज यही रिटायर्ड शिक्षित लोग कुमाउंनी बचाने का झंडा लेकर आगे आ रहे हैं.
आज ये रिटायर्ड शिक्षित लोग चाहते हैं कि हम कुमाउंनी में सीखें जैसे हमने हिन्दी सीखी जैसे हम अंग्रेजी सीख रहे हैं. इनकी किताब पढ़े इनका व्याकरण रटें. क्या फर्राटे से जिस हिन्दी को हर एक आदमी बोल लेता है उसका व्याकरण कितने लोगों को पढ़ाया गया है. शुरुआत अपने घर से करने के बजाय सभी समाज से शुरुआत कर रहे हैं.
नये प्रयोग के नाम पर कुमाउंनी के फूहड़ गाने और घटिया कामेडी हमारे लिये परोसी गयी. आज स्थिति इतनी ख़राब हो गयी है कि कुमाउंनी का प्रयोग अब फूहड़ हास्य का दूसरा पर्याय बन गया है.
जरुरत इस बात की है कि अपनी दुधबोलि को बोलने में जिस हीनता का बीज हमने बोया है उसे उखाड़ने पर काम करें. इस हीनता को हटाने के लिये किसी व्याकरण की किताब की जरुरत नहीं है न अपने बच्चों पर कुमाउंनी थोपने की.
अपने बच्चों को सिखाएं नहीं, बताईये और दिखाइये ठैरा और बल से आगे भी बहुत कुछ है कुमाउंनी में.
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बहुत खूब लिखा है आपने।रही सही कसर फिल्म ने निकाल दी ठैरा और बल का मजाक बना कर।
मैं एक कुमाऊनी बहू हूँ। यानी कि हिंदी भाषी हूँ, पर में अपनी ईजा यानी सास से अपनी बेटी के साथ कुमाऊनी में ही बोलने को कहती हूँ, जिससे वो अपनी जड़ों को जाने, अपनी संस्कृति को समझे। मैं हर महीने आने वाले छोटे से छोटे कुमाऊनी त्योहारों को पूरी रीति से मनाने की कोशिश करती हूँ।पर दुर्भाग्य की बात है, दिल्ली में बसे होने के कारण मेरे सास ससुर ही स्वयं अपने रीति रिवाजों को भूल से गये हैं, कई बार मैं अपनी कुमाऊनी दोस्त से पूछ कर ईजा को याद दिलाती हूँ। मैं इस बात का महत्व समझती हूँ कि एक ससंस्कृति अपनी भाषा से ही पनपती है।
अगर मैं गलत हूँ तो मुझे माफ़ करियेगा, पर कुमाऊनी एक बोली है , भाषा नही। भाषा तो हिंदी ही है वहां भी इसी लिए स्कूलों में हिंदी ही पढ़ाई जाती है, अपनी माँ बोली को ज़िंदा रखना घर के लोगों से ही होगा, इतनी सुंदर बोली को बोलने में कैसी शर्म?