उत्तराखण्ड राज्य की प्रमुख सामाजिक समस्याओं की बात की जाये तो उनमें नशा प्रमुख समस्या के रूप में दिखाई देगा. सामाजिक समस्याओं को लेकर राज्य में कई चर्चित आन्दोलन भी हुए हैं. अगर कहा जाय कि उत्तराखण्ड की जनता नशे के खिलाफ ही सबसे ज्यादा आंदोलित हुई है तो गलत न होगा.
बड़े और चर्चित आंदोलनों की बात न भी की जाये तो क्या राज्य की जनता हर साल नशे के खिलाफ आंदोलित नहीं होती? साल-दर-साल अधिक राजस्व के लालच में सरकार आबकारी नीति को और उदार बनाती चलती है, राजस्व बढ़ाने का कोई और तरीका इन्हें शायद सूझता भी नहीं.
हर साल शराब के ठेकों के नवीनीकरण के समय पूरा राज्य आंदोलित हो उठता है. ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में सभी जगह शराब भट्टियाँ खोले जाने का जबरदस्त विरोध होता है. कहीं-कहीं महीने भर तक दिन-रात ग्रामीणों का धरना, प्रदर्शन चलता रहता है. पुलिस और प्रशासन के सहयोग से ही कई ठेकों का सञ्चालन शुरू हो पाता है, भारी जनदबाव में कुछ ठेकों की जगह बदलनी भी पड़ जाती है.
इन आंदोलनों में महिलाओं की ही भूमिका प्रमुख हुआ करती है. यूँ देखा जाए तो उत्तराखण्ड के सभी आंदोलनों में महिलाएं ही प्रमुख भूमिका में दिखाई देती हैं.
यह देखना मजेदार होता है कि इस सबके बावजूद राज्य के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में शराबबंदी, नशा उन्मूलन किसी भी राजनीतिक दल का मुद्दा नहीं बनती. न ही जनता वोट डालने को लेकर इस मुद्दे को अहमियत देती दिखती है. इसके उलट चुनाव में पैसे के साथ शराब का चलन खूब दिखाई देता है. सभी दलों के प्रत्याशी दारू की जबरदस्त सप्लाई बनाये रखते हैं. पेयजल की कमी वाले कुछ इलाकों में तो दारू पानी से भी ज्यादा सुलभ हो जाती है.
शराबखोरी की समस्या को लेकर राजनीतिक उदासीनता का नतीजा यह निकलता है कि हर अगली सरकार पिछली से ज्यादा उदार आबकारी नीति लेकर आती है. शराब और ज्यादा सुलभ बना दी जाती है.
बची-खुची कसर शराब तस्कर पूरी कर देते हैं. उत्तराखण्ड के दुर्गम से दुर्गम गाँव में भी, जहाँ पेयजल, बिजली, स्कूल, अस्पताल तो दूर आलू के अलावा सब्जी तक खाने को नहीं मिल पाती, शराब आसानी से उपलब्ध है.
उत्तराखण्ड के कुछ धार्मिक पर्यटन स्थलों में अनुष्ठानिक शराबबंदी जरूर लागू है. लेकिन इन कस्बों के सीमावर्ती गांवों-कस्बों के छोरों पर शराब भट्टियों का ताना-बाना कुछ इस तरह बनाया गया है कि किसी पियक्कड़ को तकलीफ से न गुजरना पड़े.
खैर, शराब अब गए दिनों की बात हो गयी है. अब तो जब लड़की वाले लड़के के ऐब-गुणों की पूछताछ करते हैं तो कहते है कि ‘आजकल कौन नहीं पीता, बस लड़का दिन-रात नशे में धुत रहने वाला और घर बर्बाद करने वाला नहीं होना चाहिए.’
नया जमाना है चरस, गांजा, डोडा, नशीली गोलियां, इंजेक्शन, कैप्सूल, ड्रग पेपर, स्मैक, हिरोइन, एलएसडी आदि का है. अब नशे की नयी प्रजातियाँ उत्तराखण्ड में अपने पाँव पसार चुकी हैं. मैदानी जिलों समेत पहाड़ी जिलों तक में यह नशा अपनी दस्तक दे चुका है.
शराब पीकर आदमी धीरे-धीरे अपना घरबार लुटाता है और बहुत कोशिश करके दसेक साल में मृत्यु का वरण करता है. लेकिन इन नए नशों में बर्बादी और मौत दोनों ही जल्दी प्राप्त होते हैं. इनके व्यसनियों का रीहैबिलिटेशन भी बहुत मुश्किल है. कुल मिलाकर यहाँ खेल आर-पार का है.
आंकड़े चौंकाने वाले हैं. दैनिक जागरण की एक रपट के अनुसार साल 2017 की जनवरी से फ़रवरी 2019 तक राज्य की पुलिस ने 16 करोड़ रुपये की अवैध शराब की खेप बरामद की है. इस कारोबार में संलिप्त 2276 शराब तस्करों को आबकारी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया है.
इस दौरान 1142 तस्करों को ‘एनडीपीएस एक्ट’ (नारकोटिक्स एंड ड्रग्स प्रोहिबिसन साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट) यानि नशीले पदार्थ और दवाओं निषेध मादक पदार्थ अधिनियम के तहत भी गिरफ्तार किया गया है. इनके पास से 11.56 करोड़ के नशीले पदार्थ भी बरामद किये गए हैं. एनडीपीएस एक्ट के तहत शराब के अतिरिक्त उन नशों (ड्रग्स) के कारोबारियों पर कार्रवाई की जाती है, जिन नशों का जिक्र ऊपर किया गया है.
गौरतलब है कि जब 11 करोड़ से ज्यादा का नशा बरामद किया गया है तो कितना नशा परोसा जा चुका होगा. इस नयी प्रजाति के नशे के कारोबारियों की कार्यप्रणाली भी नयी है. शराब तस्करी बड़े माफियाओं के नियंत्रण में या उनकी सरपरस्ती में होती है. इसलिए इन पर नकेल कसना भी तुलनात्मक रूप से आसान होता है. चरस, गांजा, स्मैक, हेरोइन आदि नशे का कारोबार कई व्यक्तियों द्वारा छोटे पैमाने पर किया जा रहा है. ये लोग उत्तर प्रदेश के महानगरों से 50-100 ग्राम स्मैक, हेरोइन लेकर खुद फूंक जाते हैं और बेचते भी हैं. इसलिए इन पर नियंत्रण पाना बेहद मुश्किल भी है. इस नशे का हर नशेड़ी इसका वर्तमान या संभावित तस्कर भी है.
इस दौरान उत्तराखण्ड के लगभग सभी जिलों (रुद्रप्रयाग को छोड़कर) से शराब के साथ चरस, स्मैक, अफीम, भांग, गांजा, डोडा, गोलियां, इंजेक्शन, कैप्सूल, ड्रग पेपर और हेरोइन बरामद की गयी है. साल 2017 में 7,08,21,857 रुपये के ड्रग्स बरामद किये गए और 2018 में 3,75,60,845 रुपये के.
आंकड़े भयावह हैं. नशा हमारे वक़्त की सबसे बड़ी और लगातार बढ़ती जा रही समस्या है. शायद पलायन से बड़ी समस्या. आप किसी भी रोज शहरों-कस्बों के बाहरी छोरों और अँधेरे कोनों में प्रदेश की भावी पीढ़ी को जहर फूंकते देख सकते हैं. सुबह-सुबह सड़कों पर भर्ती की दौड़ लगाते दिखाई देने वाले युवा अब एक नयी दौड़ में भी शामिल हो चुके हैं. युवाओं के बीच यह दौड़ ‘ट्राई’ करने से शुरू होकर चोरी, नशे कि तस्करी, अवसाद, हत्या, आत्महत्या तक पहुंचकर ख़त्म हो रही है. हमारा समाज ड्रग्स की ख़बरों का आदी होता जा रहा है.
इस सबके बावजूद चुनावी एजेंडा में इस समस्या के लिए कोई जगह नहीं है. न किसी चुनावी पार्टी की घोषणा में और न ही मतदाता की चाहत में. वह दिन दूर नहीं है जब चुनावों में शराब के साथ ड्रग्स भी परोसी जाने लगेगी.
—सुधीर कुमार
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