कॉलम

खूंखार मंडरा रहे हैं और इन सबके बीच एक स्त्री अपनी स्वतंत्रतता में आ जा रही है

समंदर के पास रहने वाली एक लड़की की स्मृति में

– शिवप्रसाद जोशी

कुछ वर्ष पुरानी एक रेल की धड़धड़ाहट, यादों में उभर आयी.

उसने दिन भर काम निपटाया होगा. कोच्चि में उसके ऑफ़िस में उसके सहयोगी उसके पास आकर पूछते होंगे कब जा रही हो कब तक रहोगी. कैसा है. क्या बात हुई. वह कुछ सकुचाकर कुछ हंसकर कुछ मुस्कराकर कुछ शरमाकर सवालों का गोलमोल जवाब देती होगी या चुप रहती होगी. नज़रें झुका लेती होगी. आगे बढ़ जाती होगी. वह जल्दी से काम निपटा लेना चाहती होगी. उसे रात की ट्रेन पकड़नी थी. उसने एहतायतन महिला डिब्बे का टिकट लिया था. बर्थ कंफ़र्म थी. वह शायद एक सप्ताह या चार दिन या तीन दिन की छुट्टी लेकर जा रही थी.

उसके चेहरा दमक रहा होगा. उसका पूरा व्यक्तित्व एक निराले क़िस्म के आल्हाद में डूबा हुआ होगा. हवाएं उसकी आत्मा से उठतीं और उसके आसपास ख़ुशबू की तरह फैल जातीं होंगी. इतना खिला हुआ जीवन उसके सामने प्रकट हो रहा होगा. वह विह्वल होगी लेकिन भावनाओं पर क़ाबू रख पाने की कोशिश कर रही होगी. उसे नया जीवन शुरू करना था. उसे अपना जीवनसाथी मिल रहा था. वह शादी के लिए घर जा रही थी. जो एक दिन एक रात के फ़ासले पर था.

उसने अपना काम करीने और समझदारी से निपटाया होगा. उसकी हड़बड़ी दिखती नहीं होगी पर वह होगी तो सही. उसके भीतर व्यग्रता भी होगी. कुछ चिंताएं घुमड़ते हुए आ जा रही होंगी. लेकिन ये स्वाभाविक ही था. नया जीवन बनाने जब वह शहर आई होगी तो इसी तरह की भावनाएं कमोबेश उसके भीतर रगड़ खा रही होगी. अब उस जीवन में एक नया अध्याय आने वाला था.

उसके दोस्तों ने उसे शुभकामनाएं दीं होंगी. कुछ गले मिले होंगे. वो चल दी होगी. ट्रेन पर चढ़ते हुए उसके पांव कांपे होंगे. वह महिला कंपार्टमेंट में जाकर बैठ गई. होगा दरवाज़ा बंद किया होगा. सामान बर्थ के नीचे रख दिया होगा. वह खिड़की के पास बैठ गई होगी और स्टेशन की हलचलें देखने लगी होगी. अपने मन की हलचलें भी वो नोट कर रही होगी. कंपार्टमेंट में कोई और नहीं था. उसे अटपटा तो लग रहा होगा. लेकिन चलो कोई बात नहीं, उसने ऐसा सोचा होगा. ट्रेन स्टेशन छोड़कर आगे बढ़ गई. उसका दिल धक से हुआ होगा. नया सफ़र क्यों लग रहा है. जैसे पहली बार जा रही हो. ट्रेन के किनारे किनारे ख्याल आते रहे होंगे और पीछे छूटते रहे होंगे.

यह उसका आख़िरी सफ़र था. 21वीं सदी में मद भरे महादेश में एक लड़की ट्रेन से जा रही थी फ़रवरी 2011 में अपने क़स्बे जहां उसकी शादी तय होने जा रही थी अकेले बैठी हुई ट्रेन के महिला कंपार्टमेंट में निश्चिंत और थकी हुई और आधी नींद से भरी हुई और आधे उल्लास आधी चिंता में डूबी हुई. वह लड़की कुछ ही घंटों बाद पटरी के पास गिरी हुई मुड़ी तुड़ी गठरी हो जाने वाली थी जिसमें से ख़ून बहते रहना था और जिसे कुछ लोग अस्पताल ले जाने वाले थे और जो अस्पताल में भर्ती होने के तीन दिन बाद टूटी हुई देह और कुचली हुई आत्मा और एक भीषण दर्दभरे घाव के साथ इस दुनिया से चली जाने वाली थी.

वह जो ट्रेन में घर जा रही थी वह लड़की काश जानती कि एक ख़ौफ़नाक बर्बर समाज उसके पीछे पीछे और उसके आगे आगे और उसके दाएं बाएं और उसके ऊपर नीचे बढ़ता आ रहा था. वह उसके सपनों से पहले पहुंच जाता था. वह उसके उल्लास की हत्या करने आ गया था. वह उसकी देह का बलात्कार करने की फ़िराक में वहीं कहीं छिपा हुआ था.

वो भक्षक न जाने कैसे न जाने कैसे डिब्बे में घुस आया. और उस लड़की पर उसने हमला कर दिया. वह अपनी देह की आखिरी घुटन और आत्मा की आखिरी छटपटाहट तक लड़ती रही लड़ती रही. फिर बेसुध हो गई. उसे उस बर्बर ने खिड़की से नीचे फेंक दिया. हम कभी नहीं जान सकते कि वो ट्रेन एक बलात्कारी को और एक लड़की को लेकर जा रही थी क्या सिर्फ़, क्या वो ट्रेन थी भागती हुई हमारी तरक्की की रेल. महान संस्कृति सभ्यता और धार्मिकताओं की गर्जना से भरे इस देश में ये किसी लड़की के साथ हुई पहली ज़्यादती उस पर हुआ पहला आक्रमण नहीं था. वह बर्बरता की शिकार दुनिया की पहली लड़की भी नहीं थी.

क्या करें स्त्रियां. क्या करें लड़कियां. क्या करें वे. क्या वे अपने सारे कपड़े उतारकर हमारे सामने खड़ी हो जाएं. क्या अपनी देहों से टुकड़े टुकड़े काटकर हमारे हवाले कर दें. क्या करें वें. बेदख़ल हो जाएं हमारे सामने से. या हमारे सामने नृत्य करती रहें. हमारी फ़रमाइशें पूरी करती रहें. क्या वे रहें नहीं. क्या वे दिल्ली न जाएं. कोच्चि न जाए अहमदाबाद गोधरा न जाए. सहारनपुर बांदा न जाएं. मिज़ोरम न जाएं. उड़ीसा न जाएं. जंगल में छोड़ दी जाएं, जला दी जाएं, कर्नाटक बंगलुरू न जाएं, दावतों को अपने मुंहों पर ज़ोर से मारकर ख़ुद को लहुलूहान कर लें. कश्मीर न जाएं, बाहर न निकलें, जुलूसों से दूर रहें, अपने प्रेमियों का पता बता दें, अपनी संतानों को सड़कों पर छोड़ दें, प्रेम न करें. विवाह न करें. रोएं रोती रहें. कोलकाता से हट जाएं वहीं हुबली में गिर जाएं या पटना में उस लंबे विशाल पुल से कूद जाएं या ऋषिकेश में पतितपाविनी कही जाने वाली गंगा में जलसमाधि ले लें.

वे सब की सब क्या करें वें. क्या वे हमारे साथ काम न करें. वे फ़ैक्ट्री न जाएं घास काटने लकड़ी लाने पशुओं को चराने खेत पर काम करने स्कूल कॉलेजों मे पढ़ने. कोचिंग सेंटरों में, ट्रेनिंग कैंपों में भाग लेने न जाएं. पेड़ पर न चढ़ें. दीवारें न फांदे. ट्रेन पर न चढ़ें. बहुत सारे पर्दों के भीतर चली जाएं. चली जाएं भीतर और भीतर हमारे घरों मकानों इमारतों के पीछे और पीछे कहीं किसी कबाड़ में मलबे में जाकर पड़ी रहें.

महिला कल्याण की रटंत खोखली है. स्त्री की कथित सुरक्षा के लिए बुनी गई योजनाएं ध्वस्त हैं. घात लगाये खूंखार मंडरा रहे हैं और इन सबके बीच एक स्त्री अपनी स्वतंत्रतता में आ जा रही है.

 

शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों  बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: joshishiv9@gmail.com 

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