अमरता के अहसास की भयावनी रात
-शरद जोशी
कल रात जब सोया तो एकाएक मैंने अनुभव किया कि हिंदी साहित्य का मोटा इतिहास मेरे सीने पर रखा है और उस पर एक स्कूल मास्टर बैठा बैंत हिला रहा है. एकाएक मेरे सीने पर वजन हो आया और मैं चौंककर उठ बैठा.
‘क्या बात है?’ पत्नी ने पूछा.
‘मैं शायद अमर हो जाऊं. मेरे हिंदी साहित्य के इतिहास में आने के पूरे चांसेज हैं.’
‘सो जाओ.’ उसने आदेश दिया और खुद उस आदेश का पालन करने लगी.
अक्सर रचना पूरी करने के बाद मुझे यह भ्रम हो जाता है कि यह हिंदी साहित्य की अमर रचना हो जाएगी. यह भ्रम कई बार आठ-दस दिन तक चलता रहता है, जब तक मैं दूसरी अमर रचना नहीं लिख लेता. कल रात भी एक रचना पूरी की और यह अहसास मुझे खाए जा रहा था कि यह रचना अमर हो जाएगी. पर धीरे-धीरे प्रसन्नता भय में बदलने लगी. अजीब अपरिचितों की जमात में पत्तल बिछाकर खाना खाने वाले को जैसा अटपटापन लगता है, वैसा मुझे अपना नाम हिंदी साहित्य की सूची में देख लगता है. यही मेरी नियति है! यहीं मुझे अमर होना है. उफ! डाल पर लगे हरे अम्बिया को अगर यह पता लग जाए कि किसी पुराने बड़े मटके में डालकर उसका अचार बनाया जाएगा तो उसे कैसा लगेगा? हिंदी साहित्य ऐसा ही मटका है और हम सब उसके भावी अचार एवं मुरब्बे हैं, जिसे भविष्य में कभी-कभी चखने के लिए सुरक्षित रखा जाता है. अचार बने रहना ही अमरता है.
कल रात जब मैं सोया तो हिंदी के महान साहित्यकार मेरा पीछा करने लगे. वे नहीं मानेंगे. वे मेरा नाम इतिहास की पोथी में लिख देंगे. इसके पीले पुराने पन्नों में मेरा नाम दिखेगा और छात्र मर-मरकर उसे रटेंगे. मैं हिंदी साहित्य के इतिहास में रहूंगा, तो मुझे याद रखना मजबूरी हो जाएगी.
हिंदी साहित्य के महान लोग मेरे पीछे पड़े हैं. मैं भागते-भागते एक भवन में घुस जाता हूं. तभी एक वृद्ध महोदय मेरा हाथ पकड़ लेते हैं. एक युवक पीछे से आकर मुझे दबोच लेता है. ‘तुम पर तो एक पीएचडी पकेगी.’ वृद्ध कहते हैं. वह युवक मेरा गला दबाता है. ‘मैं करूंगा इस पीएचडी को. बड़ा कागज रंगा है इसने. हो जाए साले पर एक पीएचडी.’
मुझे नहीं पता था यह भवन विश्वविद्यालय है और वह वृद्ध हिंदी का एचओडी. मैं टेबल पर मृत पड़ा हूं. मेरा सिर शरीर से अलग कर दिया गया है. वे मेरी जांच कर रहे हैं और नोट्स बना रहे हैं.
‘शैली पर पाश्चात्य प्रभाव है.’ ‘भाषा मुहावरेदार है.’ ‘हास्य में व्यंग्य का पुट है.’ ‘नहीं. व्यंग्य में हास्य का पुट है.’
भवन के बाहर खड़े साहित्यकार एचओडी से कह रहे हैं कि आप पीएचडी करवाय के मुर्दा हिंदी साहित्य के इतिहास को सौंप दीजिए. उन्होंने स्वीकार कर लिया है. अब कोई रास्ता नहीं. मटके में अचार बन जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं. उफ! मैं घबराकर चीख उठता हूं.
‘क्या बात है?’ पत्नी पूछती है.
‘मैं अमर हो रहा हूं. नहीं, मैं मर रहा हूं.’
‘क्या बक रहे हो?’
‘मुझे डर लगता है कि कहीं मेरा नाम हिंदी साहित्य के उस भयंकर इतिहास में न आ जाए!’
‘अब सो भी जाओ!’ वह बड़बड़ाकर करवट ले लेती है.
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