उन दिनों बच्चों के हाथों में रखे जाने के लिए रूपयों से ज़्यादा पैसे प्रचलन में थे. दस, बीस, पच्चीस व पचास पैसे अमूमन घर आए मेहमान वापसी के समय बच्चों के हाथों में टॉफी-बिस्कुट खाने के लिए रख जाते थे. बीस पैसे में तो बीस टॉफियाँ आ जाया करती थी उस जमाने में. बच्चों को मेहमानों के लाए फल व मिठाई से ज़्यादा इस बात की उत्सुकता रहती थी कि जिस दिन मेहमान वापस जाएँगे उस दिन हाथ में कितने पैसे रख कर जाएँगे.
(Ija Aama Memoir Kamlesh Joshi)
खासकर मामा के घर से किसी के आने या फिर उनके घर जाने पर इस बात की पूरी गारंटी रहती थी कि कुछ न कुछ तो मिलेगा ही. दिल्ली जैसे शहर से आए किसी रिश्तेदार से अमूमन यह उम्मीद रहती थी कि बात पैसों में नहीं रूपयों में होगी. दो रूपये से पाँच रूपये तक की उम्मीद सपनों के उस शहर से आए रईसों से बच्चों को हमेशा ही रहती थी.
मेहमानों की वापसी के समय बच्चे सड़क में सबसे आगे खड़े रहते और उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता कि मेहमान कब-कब अपनी जेब में हाथ डालते हैं और कब-कब अपने पर्स से रूपये निकालते हैं. जिन मेहमानों को देख उन्हें लगता कि इनकी जेब ढीली होना मुश्किल है उनको हवा हवाई प्रणाम कर वो खेलने-कूदने निकल जाते और जिन्हें देख लगता कि ये मोटी पार्टी है बच्चे उनकी तमाम बातें मानकर उनकी सेवा टहल में लगे रहते.
कई बार तो दिल्ली जैसे शहरों में काम कर रहे घर आए छोटे मामा, चाचा टाइप रिश्तेदार समय से पहले बाल सफेद हो जाने पर बच्चों को एक पैसा एक बाल के हिसाब से सफेद बाल तोड़ने के काम में लगा देते और बच्चे एक-एक बाल तोड़ उन्हें दिखाकर इतनी उत्सुकता से गिन रहे होते कि अगर सौ सफेद बाल तोड़ दिये तो सीधा एक रूपया मिलेगा. लेकिन होता यह था कि इस काम के अमूमन पैसे नहीं ही मिलते थे. तब बच्चे आमा से शिकायत करते और आमा भी हँसी में टाल जाती और कहती “पैस पैलि क्याहान ना लिना तुम? आब खा घोत्य” (पैसे पहले क्यों नहीं लेते तुम? अब चूसो अंगूठा).
गाँवों में उन दिनों खेती व गाय भैंसों के चलते खाने पीने की कोई कमी नहीं होती थी लेकिन बाजारू चीजें खाने के लिए या तो मेहमानों के लाए बिस्कुट, नमकीन, टॉफी, फल, मिठाई आदि का इंतजार करना पड़ता था या फिर मेहमानों की वापसी के समय हाथ में रखे जाने वाले पैसों का. बच्चों की उम्मीदें बहुत बड़ी नहीं होती थी और न ही उनकी जरूरतें. पॉकेट मनी टाइप कॉन्सेप्ट तब नहीं चलता था. अदला-बदली का सिस्टम था. गेहूं व धान के बदले में घर का बहुत सा सामान आ जाता था. अधिकतर सामान फेरी लगाने वालों से ही लिया जाता था.
कई बार दोपहर की धूप में जब घर वाले सो रहे होते तो बच्चे घर से एक थाली गेहूं निकालकर आइसक्रीम के ठेले के पास जाकर गेहूं के बदले आइसक्रीम लेकर चुपचाप खा आते. वैसे भी एक बोरे से एक थाली गेहूं निकल जाने का भान घर वालों को कहाँ होता था. लेकिन कभी पता चल जाता तो फिर सुताई भी जबरदस्त होती थी.
उस समय में मेलों से सामान खरीदने का प्रचलन बहुत था. घर की तमाम जरूरी चीजें साल-छह महीने में लगने वाले मेलों से ही खरीदी जाती थी और यह सब सामान खरीदने के लिए घरवाले एक-एक रूपया जोड़ा करते थे. बच्चों के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं था कि घर किस तरह चलता है वह गाँव की अपनी दुनिया में मस्त रहते. उन्हें सबसे ज़्यादा गुस्सा व तकलीफ तभी होती थी जब घर आया कोई मेहमान उनके हाथ में रूपये रखकर जाता.
मेहमान के जाते ही ईजा या आमा वह रूपये बच्चे को बहला फुसलाकर कर ले लेते. एक रूपए तक खर्च करने की छूट मिल जाती थी लेकिन पाँच, दस या बीस रूपये यदि कोई मेहमान देकर जाता तो आमा या ईजा कहती “बाबू तू हेरा देले तन रूपयों के. लौ मैंथै दि. मि लुका दिछु” (बाबू तू खो देगा इन रूपयों को. ला मेरे को दे. मैं छुपा देती हूँ). बच्चे के मना करने पर उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिये जाते और कहा जाता कि उसे टॉफी खाने के लिए उन रूपयों में से हर रोज एक रूपया दिया जाएगा लेकिन वह रोज शायद ही कभी आता था.
बच्चे अमूमन ईजा को रूपये नहीं दिया करते थे लेकिन आमा को बच्चों को मक्खन लगाकर रूपये लेना बखूबी आता था. वह कहती “त्यार पैस हम खर्च थोड़ी करना. बचा बेर राखि दिना. भोलन तू ठुल है जाले तब सब पैस एकट्ठा त्वे दिद्यून” (तेरे पैसे हम खर्च थोड़े ही करते हैं. बचा के रख देते हैं. कल तू बड़ा हो जाएगा तो सारे पैसे इकट्ठे तुझे दे देंगे).
(Ija Aama Memoir Kamlesh Joshi)
बच्चे रूपये देने में ज़्यादा आनाकानी करते तो फिर आमा दूसरा पैंतरा फैंकती और कहती “पैस बच रॉल त म्याव मेहे नई-नई कापड़ और खेलनन कार लेले नतर एस्सी के भुसी रौले” (पैसे बचे रहेंगे तो मेले से नए-नए कपड़े और खेलने के लिए कार लेगा, नहीं तो ऐसे ही खाली रहेगा). मेला, नए कपड़े और कार का नाम सुनते ही बच्चों के कान खड़े हो जाते और वो छट से सारे पैसे आमा को पकड़ा देते. उस समय में बच्चे छोटी-छोटी चीजों में खुशियाँ ढूँढते थे. साइकिल के पुराने टायर को डंडे से मारकर दौड़ाना भी उनके लिए साइकिल चलाने जैसा ही था.
आज समझ में आता है कि आमा या ईजा की नजर उन दिनों बच्चों को मिलने वाले रूपयों पर नहीं होती थी बल्कि इस बात पर होती थी कि उन रूपयों का सदुपयोग कैसे किया जाए. बच्चे के लिए पाँच या दस रूपये खर्च कर देना मिनट भर का खेल होता था लेकिन वही पाँच या दस रूपये घर के बजट के लिए जोड़े जा रहे रूपयों में एक अहम भूमिका निभाते थे जिससे न सिर्फ बच्चे की बल्कि घर की तमाम जरूरतें पूरी की जा सकती थी. उन दिनों दो चार सौ रूपये में घर की जरूरत का सारा सामान आ जाया करता था. लेकिन इतने रूपये जोड़ने में भी महीनों लग जाते थे. बच्चे अपनी जरूरतें फिर भी रो धोकर पूरी करवा लेते थे लेकिन ईजा और आमा एक ही साड़ी को फटने पर भी सिल-सिल कर सालों पहन के गुजार देते थे.
आज वही बच्चे बड़े होकर शहरों में नौकरी कर लाखों कमाने लगे हैं. ये बच्चे जब छुट्टियाँ पूरी होने के बाद वापस नौकरी के लिए घर से शहर जाते हैं तो आज भी ईजा या आमा इनके हाथ में 500 या 1000 रूपये रखकर विदा करती है. ऐसा लगता है मानो कहना चाह रही हो “बाबू आब तु ठुल है गेहे, नान छना त्यार बचाया पैस त्वेखन वापस करनया” (बाबू अब तू बड़ा हो गया है, बचपन के तेरे बचाए रूपये तुझे वापस कर रहे हैं).
बच्चा भी जानता है कि घर के खर्चे के लिए वह हर महीने हजारों रूपये घर भिजवाता है लेकिन इन 500-1000 रूपयों को ईजा और आमा का आशीर्वाद समझ कर वह लेने से कभी मना नहीं करता.
(Ija Aama Memoir Kamlesh Joshi)
–कमलेश जोशी
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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