1930 तक हल्द्वानी अपनी छोटी सी बसासत के साथ विभिन्न क्षेत्रों से आकार बस गए लोगों का केंद्र बन गया था. पहाड़ और मैदानी मूल के संगम इस शहर में हर त्यौहार बहुत तबियत से मनाया करता था. इस दौर में शहर का रामलीला मेला दूर-दूर तक मशहूर था. यहाँ की प्रेरणा पाकर रामचंद्र महोबिया, भीमदेव वशिष्ठ, होतीलाल उस्ताद, कन्हैया लाल चतुर्वेदी, ने एक रामलीला नाटक रच डाला. उस दौर में रासलीला, नौटंकी वाले भी यहाँ खूब आया करते थे. मनोरंजन के इन साधनों के अलावा कवि सम्मलेन, नाटक और संगीत की महफ़िलों के विभिन्न नज़ारे भी यहाँ होते थे.
कुमाऊँ की रामलीला में शास्त्रीय संगीत के साथ नौटंकी का भी प्रभाव भी है. तब मनोरंजन के साधन नौटंकी, रासलीला ही हुआ करते थे. हल्द्वानी पीपलटोला लछिमा, सरस्वती और न जाने कितनी कर्णप्रिय गाने-नाचने वाली कलाकारों के साथ शंकर लाल तबला बजाय करते थे. यहीं पर भगत जी का मंदिर था जिसे अब पिपलेश्वर मंदिर कहते हैं. संगीताचार्य चंद्रशेखर पन्त ने भी यहाँ कुछ समय गायन किया. उनका गायन सुनने के लिए नक्काशीदार छज्जों से तवायफें झाँका करती थीं. उस समय बिजली की व्यवस्था नहीं थी. लैंप, लालटेन व पेट्रोमैक्स की रोशनी में महफिलें सजती थीं. तब एक पैसे में शुद्ध देशी घी में बनीं आठ जलेबियां आ जाती थीं. उस दौर में भी संगीत के ऐसे दीवाने थे जो पीपलटोला में अपना सब कुछ लुटा चुके थे. सितार, वायलिन, तबला, गायन सीखने की कई लोगों ने कोशिश की लेकिन लुट जाने के बाद भी नहीं सीख सके.
( जारी )
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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