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जानलेवा जोख़िम की ज़द में जोशीमठ

सरकारी ऐलान है कि जोशीमठ (उत्तराखंड) को अब ज्योतिर्मठ कहा जायेगा. आपका हुक्म सर आंखों पर, सरकार. आप वह सब बखूबी करते हैं जो आप कर सकते हो और करना चाहते हो. इसमें कोई कसर नहीं छोड़ते. पर वह सब कब करोगे जिसकी जनता को तुरंत जरूरत है. मसलन, जोशीमठ जिन्दा रहेगा तो नव-नामकरण ज्योतिर्मठ भी जिन्दा और जीवंत रहेगा. नाम बदलने से ही जोशीमठ की जान का जोखिम कम होने से तो रहा. यह आप भी भली-भांति जानते हैं. तब इस ओर आखें क्यों बंद किये हुए हो?
(Houses develop cracks in Joshimath)

विगत साल दिसम्बर में नीति-माणा घाटी की ओर यात्रा में जोशीमठ (ऊंचाई समुद्रतल से 1,821 मीटर) में रहना हुआ. दुःख हुआ कि बचपन में देखे जोशीमठ नगर के चेहरे पर आज दरार रूपी झुर्रियां जगह-जगह उभर आयी हैं. सरकार से लेकर यह हम सबकी की चिन्ता का कारण होना चाहिए. स्थानीय जनता आगामी खतरे को जान भी रही है और भुगत भी रही है. पर नीति-नियंताओं का ध्यान ऐसी स्थिति में भी यहां और अधिक कमाने की ओर ही है.

जोशीमठ क्षेत्र की हालात की गम्भीरता के लिए एक ही घटना को बंया करना प्रासंगिक है. पिछले वर्ष 2021 में जोशीमठ मेन हाईवे के सेलंग गांव में भूगर्भीय-दरार में एक भव्य होटल भूमिगत हो गया, पता भी नहीं चला कि वह कहां समाया? उस स्थल के नीचे एनटीपीसी की सुंरग बतायी जा रही है. इस दुर्घटना के बाद से ही एनटीपीसी और बीआरओ इसका ट्रीटमेंट कर रहे हैं, परन्तु यह जगह अब भी लगातार धंस रही है.

विश्वास नहीं होता कि यह वही क्षेत्र हैं जहां देश-दुनिया में प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन ने जन्म लिया था. जोशीमठ से नीति घाटी की ओर मात्र 15 किमी. की दूरी पर चिपको आन्दोलन की अग्रज गौरा देवी का रैणी गांव ऋषि गंगा और धौली गंगा के संगम तट पर स्थित हैं.

गौरा दीदी ने तब अपनी साथी महिलाओं के साथ 26 मार्च, 1974 को रैणी के सितेल जंगल पहुंच कर पेड़ों को काटने आये मजदूरों के सामने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा था कि, ‘लो पहले हमें मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका!’ तब लगता था जैसे गौरा देवी तथा उनके सहयोगियों के मार्फत सिर्फ़ रैणी नहीं, पूरा उत्तराखंड बोल रहा था बल्कि देश के सब वनवासी बोल रहे थे.’ आखिरकार, मातृशक्ति के आगे सरकारी मनमानी को झुकना पड़ा. इस तरह सितेल-रैणी का जंगल और गांव की महिलाओं का मायका लुटने से बचा लिया गया था. उसी रैणी गांव के पास तपोवन में 7 फरवरी, 2021 को ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट जो कि मात्र 12 मेगावाट का बन रहा था के क्षतिग्रस्त होने से भयंकर तबाही में अनुमानतः 200 से अधिक लोगों की मौत को अब एक साल होने को है. इससे सबक सीखने के नाम पर विगत एक साल में सरकार पर्यावरण के नाम पर सुन्दर-सुन्दर पुरस्कारों की घोषणा से आगे नहीं बढ़ पायी है.
(Houses develop cracks in Joshimath)

सामाजिक चिन्तक और जन-सरोकार के अग्रणी मित्र अतुल सती हिमालय क्षेत्र की भूर्गभीय हलचलों से उत्पन्न समस्याओं के निदान हेतु लम्बे समय से मुखर हैं. वे बताते हैं कि जोशीमठ क्षेत्र पारस्थितिकीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील है. यह जानते हुए भी आज इस नगर और नजदीकी क्षेत्र की नियति मानव निर्मित सुरगों के ऊपर टिकी है. अलकनंदा नदी में नीति से लेकर देवप्रयाग तक कुल 45 परियोजनायें संचालित अथवा निर्माणाधीन हैं. इसके अलावा कई विचाराधीन हैं.  इन 45 परियोजनाओं में से 22 पर फिलहाल रोक लगी है. इनके कारण अलकनंदा नदी दिनों-दिन सुरगों में समाती जा रही है. भविष्य में इसका दिखना ही हमारे लिए कौतुहल होगा.

जोशीमठ ब्लाक के कुल 58 ग्रामसभाओं में से 22 विस्थापन की लिस्ट में हैं. लगभग 30 हजार की आबादी और 8 हजार परिवारों वाल इस क्षेत्र की वर्तमान स्थिति बताती है कि, 15 प्रतिशत मानव आबादी का विस्थापन होना नितांत आवश्यक है. अस्सी के दशक से शुरू हुई विद्युत परियोजनाओं के लिए सुरगों को बनाते हुए किये गए विस्फोटों और अब उनके क्षतिग्रस्त होने से खतरा बढ़ता जा रहा है. हकीकत यह है कि, अधिकतम 4 लाख रुपये और आधा/एक नाली जमीन देकर अभी तक इस क्षेत्र के केवल दो गांवों का विस्थापन हुआ है. उनमें भी अभी बहुत कुछ होना बाकी है. गांवों के विस्थापन में चारागाह, रास्ते, सार्वजनिक भवनों, मंदिरों का ख्याल नहीं रखा गया है. इस प्रक्रिया में गांव के मौलिक अधिकार सीधे खत्म हुए हैं. यह विस्थापन नई जगहों में गांववासियों की शरणास्थली से अधिक नहीं है. वास्तव में, ग्रामीणों के मौलिक अधिकारों विशेषकर जल, जमीन और जंगल को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के पास कोई स्पष्ट विस्थापन नीति नहीं है.

तीर्थयात्रा और पर्यटन से हटकर यह जोशीमठ क्षेत्र हिमालयी उपजों और पशुपालन के लिए विख्यात रहा है. विगत सदी में राजमा, आलू, चौलाई, धान, गेहूं, झंगौरा, मंडुवा, सेब, संतरा, अखरोट, नाशपाती, पोलम, माल्टा की पैदावार और पशुपालन का अब 20 से 30 प्रतिशत हिस्सा रह गया है. यहां भेड़पालन मुख्य व्यवसाय था जो कि अब लुप्त प्रायः होने को है.

सुरगों में होने वाले विस्फोटों से चारों ओर वातावरण में महीन घूल जम जाती है जिससे लगातार पैदावार में कमी आ रही है और यह धूल जानवरों तथा आदमियों को बीमार कर रहे हैं. विद्युत परियोजनाओं के उत्खनन और विस्फोटों से इस क्षेत्र के प्राकृतिक और परम्परागत जल श्रोत्र सूखने की स्थिति में पहुंच गए हैं. तो, जोशीमठ नगर और नजदीकी गांवों के घर-मकानों, होटलों और सरकारी भवनों की दरारें दिनों-दिन चौड़ी और गहरी होती जा रही हैं. इस विकट सर्दी में कई परिवारों को अपना घर-बार छोड़कर अन्यत्र शरण लेना कितना कष्टप्रद है, यह समझा जाना चाहिए. लिहाजा, सीमान्त में रहने वाली स्थाई आबादी निरंतर घट रही है. और यह बेहद संवेदनशील समस्या है.

अतुल सती बताते हैं कि जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति, वर्ष 2004 से इस क्षेत्र के पारस्थितिकीय समस्याओं को सार्वजनिक करने और उसके समाधान के लिए संघर्ष कर रही है. जनता का ही प्रभाव था कि वर्ष-2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी एक विद्युत परियोजना के उद्घाटन करने जोशीमठ नहीं आ पाये तब आनन-फानन में उन्होने देहरादून से ही प्रतीकात्मक उद्घाटन कर दिया था.
(Houses develop cracks in Joshimath)

अतुल सती का मानना है कि 100 साल पहले हम विकट भौतिक स्थितियों में थे परन्तु मानसिक स्तर पर बेहतर अवस्था में थे. तब रास्ते पैदल थे पर हमारे दिमाग पैदल नहीं थे. वे अपना भला-बुरा समझते और उनके प्रति हमेशा सजग और मुखर रहते थे.

आज बड़ी-बड़ी परियोजनायें बन रही है परन्तु हमारे दिमाग सुन्न होते जा रहे हैं. इन योजनाओं के पैरोकारों के विज्ञापन का इतना ग्लैमर है कि हम सोच ही नहीं पा रहे हैं कि हमारे क्या ठीक है और क्या नुकसानदेह?

अतुल सती इस बात को पुरजोर तरीके से कहते हैं कि जोशीमठ क्षेत्र की गम्भीर होती हुई पारिस्थिकीय स्थिति को किसी भी तरह से नज़र अंदाज नहीं किया जाना चाहिए. आज स्थिति यह है कि जो स्थानीय लोग अपने तात्कालिक हितों के वशीभूत होकर अब तक इन परियोजनाओं के समर्थक थे, अब विरोध में आने लगे हैं. सरकार को चाहिए कि नीति-नियंताओं और विशेषज्ञों की इसके लिए एक हाईपावर कमेटी बने. लेकिन उस कमेटी में अनिवार्य रूप में स्थानीय लोगों का उचित और समुचित प्रतिनिधित्व हो. बिना किसी दबाव के उनकी बातों, अनुभवों और सुझावों को प्राथमिकता से माना जाय.

वर्ष 1976 में इस क्षेत्र की पर्यावरणीय संवेदनशीलता को देखते हुए विकास कार्यों के लिए तत्कालीन कमिश्नर महेश चन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता में बनी मिश्रा कमेटी के सुझावों पर गम्भीरता से विचार किया जाए. साथ ही, इस क्षेत्र में आपदा की ज़द में आये परिवारों का तुरंत और सम्मानजनक विस्थापन किया जाय. और, एक जरूरी सुझाव यह भी कि इस क्षेत्र के सभी स्थानीय निवासियों की सम्पत्तियों का बीमा सरकारी स्तर पर होना चाहिए.
(Houses develop cracks in Joshimath)

– डॉ. अरुण कुकसाल

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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.

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