अठारहवीं शताब्दी के आगरा के शायर नजीर अकबराबादी (Nazeer Akbarabadi 1740-1830) ने अपने आसपास के साधारण जीवन पर तमाम कविताएँ लिखीं. होली पर उनकी यह रचना बहुत विख्यात है.
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे
कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की
सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को, अँगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की
इस रंग रंगीली मजलिस में, वह रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो औऱ आँख भी मय की प्याली हो
बदमस्त, बड़ी मतवाली हो, हर आन बजाती ताली हो
मयनोशी हो बेहोशी हो ‘भड़ुए’ की मुँह में गाली हो
भड़ुए भी भड़ुवा बकते हों, तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की
यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, टिक्कड़ हो
लड़-भिड़के ‘नज़ीर’ फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की
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