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नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 3

तुर्की की रेल में हिंदी का गीत

तेहरान से आगे की यात्रा रोचक रही. तेहरान से इस्ताम्बुल  तक का रेलवे मार्ग विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक क्षेत्रों से होकर गुजरता है. कभी रेल बर्फीले रेगिस्तान से होकर गुजरती है तो कभी लम्बी सुरंगों से होकर जाती है. जब रेल ‘वान’ नामक स्थान पर पहुंची तो उसे पूरा का पूरा पानी के जहाज पर रख दिया गया. यह अपने आप में एक अनूठा अनुभव था. समुद्र पर जहाज, जहाज पर रेल और रेल पर यात्री. यह स्थिति चार घण्टों तक रही. ‘टेटवान’ नामक स्थान पर पहुंचने पर रेल को जहाज से उतार लिया गया.

तुर्की का लैण्डस्केप बहुत खूबसूरत है. हरे-भरे खेत चारों ओर दिखाई देते हैं. जैसे-जैसे रेल तुर्की की सीमा के अन्दर बढ़ती जा रही थी, वैसे ही हमारे सहयात्रियों में तुर्क लोगों की संख्या बढ़ती गई. इनमें से अधिकांश लोग पेशे से किसान थे. खेती का मौसम खत्म हो चुका था और ये लोग फिलहाल छुट्टी बिताने के लिए इस्ताम्बुल जा रहे थे. तुर्क किसानों की पोशाक खास योरोपियन किसानों की तरह होती है. ये लोग कोट और पतलून के साथ गोल्फ कैप पहनते हैं. रंग इनका काफी गोरा होता है, एकदम लाल. नगर निवासियों की अपेक्षा ग्रामीण तुर्कों के व्यवहार में अधिक विनम्रता दिखाई दी. अंग्रेजी का ज्ञान इन लोगों को बिल्कुल नहीं था, अंतः वार्तालाप में बड़ी दिक्कत हुई. एक से एक विचित्र प्रश्न इन्होंने किये. उदाहरण के लिए क्या भारत में इस्लाम है? इन्दिरा गांधी औरत है या आदमी? आदि. ऐसे प्रश्नों से हमें आश्चर्य हुआ. साथ ही इस बात का भी भान हुआ कि हमारे देश के विषय में यहां कितना कम प्रकाशित होता है; क्योंकि ये लोग अखबारों के शौकिन दिखाई दे रहे थे.

‘‘आवारा हूं…..’’

एक स्टेशन पर हम जब प्लेटफ़ॉर्म पर टहल रहे थे, हमारी ट्रेन के ड्राइवर ने हमें इंजन में बुलाया और चाय पीने का आग्रह किया. उसके निमन्त्रण को हम अस्वीकार नहीं कर सके और इंजन में ही बैठ गये. उस ड्राइवर को भारतीय फिल्मों के बारे में अच्छा ज्ञान था. उसने राजकपूर की ‘आवारा’ फिल्म देखी थी. जिद करने लगा कि मुझे ‘आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’ वाला गाना सुनाओ. निदान हमने गाना सुनाया और अंकारा तक इंजन में ही बैठे रहे.

रात को एक बजे हम तुर्की की राजधानी अंकारा पहुंचे. रात के अंधेरे में टिमटिमाती बत्तियों के कारण शहर बहुत खूबसूरत लगा. अंकारा से रेल आगे चलने पर हम सो गये. अगले दिन प्रातः उठने पर हमारी ट्रेन समुद्र के किनारे-किनारे जा रही थी. एक ओर समुद्र था तो दूसरी ओर सड़कों पर भागती हुई गाड़ियां. अंकारा से इस्तानबूल के मध्य के इस इलाके में काफी शानदार कोठियां हैं. स्कूल जाते बच्चों को देखकर यह लग रहा था कि तुर्की की आर्थिक स्थिति खासी मजबूत है. यों भी तुर्की को देखकर पूर्वी देशों जैसा महसूस न होकर पश्चिमी राष्ट्रों का ही आभास होता है.

दो संस्कृतियों के बीच

इसी प्रकार देखते-सुनते और विभिन्न प्रकार के अनुभवों से गुजरते हुए पांचवे दिन हम लोग इस्ताम्बुल  पहुंचे. इस्ताम्बुल के लिए कहा जाता है कि यह संसार का वह शहर है, जहाॅं पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का मिलन होता है. इसका कारण तुर्की का एशिया और योरोप महाद्वीपों के मध्य होना है. बौसफोरस की जल प्रणाली दो महाद्वीपों को पृथक करती है. इसी जल प्रणाली के दोनों और इस्ताम्बुल नगर बसा हुआ है. बासफौरस की जल प्रणाली के ऊपर अब एक विशालकाय पुल का निर्माण हो चुका है, जो योरोप और एशिया को स्थल मार्ग से जोड़ता है.

इस्ताम्बुल नगर में हमारा स्वागत हवाई चुम्बन देती हुई एक महिला क्लर्क ने किया. यह छोटा चुम्बन पश्चिमी सभ्यता का पहला परिचय था. ऐसे शहर में हमें मुफ्त आवास खोजना था.

भाग्य हमारा इतना साथ दे रहा था कि लक्ष्यहीन घूमते-घूमते भी हम ठीक यूथ हाॅस्टल के सामने पहुंच गये. अन्दर जाकर वार्डन को अपनी समस्या बताई तो वह हमें मुफ्त आवास देने को राजी हो गया.

ठस प्रारम्भिक सफलता के बाद हमारे हाथ असफलता ही लगी. इस्ताम्बुल में वे कुछ दिन हमने अत्यन्त मानसिक संकट में बिताये .हम तीनों में नैराश्य की भावना घर करने लगी. विदेशी भूमि में कदम रखने के बाद पहली बार यह विचार भी कोंचने लगा कि जब घर लौट जाना चाहिए.

इस निराशा का कारण योरोपियन राष्ट्रों का वीसा न मिल पाना था. यूनान का वीसा इसलिए नहीं मिल पा रहा था, क्योंकि जेब में वे दो सौ डाॅलर नहीं थे, जो वीसा लेते समय दूतावास में दिखाने होते हैं. स्विटजरलैण्ड का वीसा तब मिलता जब यूनान का वीसा होता. इटली का वीसा इसलिए नहीं मिल पा रहा था कि दिल्ली से वीसा लेकर क्यों नहीं आये. जब हम अपनी विवशता जाहिर करते और उन्हें समझाने की चेष्टा करते कि जब हम भारत से चले थे तो हमारे पास सिर्फ 7 डाॅलर थे, तो दूतावास वालों का कहना होता कि ऐसे पर्यटकों की हमारे देश में कोई जरूरत नहीं है. इस सारी समस्याओं का सामना केवल भारतीय और पाकिस्तान नागरिकों को ही करना पड़ता है. इन देशों के पासपोर्ट हेय दृष्टि से देखे जाते हैं.

अस्तित्व के लिए चोरी

इसी मानसिक ऊहापोह में हम डूबते उतराते रहे. इसी बीच कई लोगों ने हमें यह सुझाव दिया कि तुम बेमतलब के चक्कर में न पड़कर वापस अपने देश चले जाओ. दो-चार दिन इस्ताम्बुल में रूककर दर्शनीय स्थानों को देख लो. सुझाव बुरा नहीं था किन्तु हमारी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि 15 लीरा देकर विश्व प्रसिद्ध टापकापी संग्रहालय को ही देख पाना हमारे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था. हमने महसूस किया कि पाश्चात्य जगत की यह चकाचैंध बिना पैसे के यात्री के लिए अन्धकार है.

घर से हम जो दाल-चावल लाये थे, वह भी समाप्तप्राय था. कुछ ही दिनों में खाने के भी लाले पड़ने वाले थे. इस बीच हमने दो-चार रोज दुकानों के सामान की मामूली चोरी भी की. अपने अस्तित्व के लिए ऐसा करना उस स्थिति में हमें जरा भी नहीं अखरा. भारत से लाई अंगूठियों तथा रूद्राक्ष की माला आदि को बेचकर भी कुछ धन अर्जित किया. पश्चिमी युवक भारतीय साधुओं की वस्तुएं खूब पसन्द करते हैं. यह बात हमें पहले से मालूम थी. इसीलिए इस प्रकार की कुछ वस्तुएं हमने आने से पूर्व तिब्बती शरणार्थियों से खरीद ली थीं. इसका लाभ हमें उन घोर अंधकार पूर्ण दिनों में इस्ताम्बुल में मिला.

अन्ततः एक सरदार जी ने हमें सीरिया जाकर काम करने की सलाह दी. सीरिया में रोजगार प्राप्त करने की सम्भावना अच्छी थी. हम आगे जाने के लिए कुछ पैसा जुटा सकते थे. उन अनुभवी सरकार जी को धन्यवाद देकर हम सीरिया की ओर चल पड़े. लेकिन फिर भी टापकापी संग्रहालय नहीं देख सके.

सीरिया में सार्वजनिक स्नान

रात के सवा दो बजे का समय था, जब हम सीरिया के हलीव नामक शहर में पहुंचे. प्लेटफार्म पर मुर्दानगी सी छायी थी. ठंड से सिकुड़े-सिमटे कुछ यात्री प्लेटफार्म पर उतरते ही इस तरह क ही गायब हो गये जैसे जल्द दहशत बरना होने वाली हो हम तीनों भारतीय उन यात्रियों को कारों व टैक्सियों में अपने-अपने घरों या होटलों की ओर खिसकते देखते रहे. कुछ ही क्षणों में रेलवे स्टेशन खाली हो गया. हमारे और कुछ रेलवे कर्मचारियों के अतिरिक्त वहाॅं कोई नहीं रहा. चारों और सन्नाटा तथा भीष्ण ठंड. जेबें टटोलीं तो कुछेक डालर के नोट कड़कड़ाये. स्थिति का तकाजा था कि आराम पाने का ख्याल छोड़कर हम स्टेशन पर ही रात गुजारते. किन्तु ड्यूटी पर तैनात चैकीदार ने हमें बताया कि स्टेशन पर सोने की सख्त मनाही है. हमने बहुत हाथ-पाॅव जोड़े, तब जाकर वह हम पर दयालु हुआ. प्रातः 6 बजे हम अंगड़ाईयाॅं लेते हुए उठ पड़े, क्योंकि उस सिपाही की ड्यूटी समाप्त हो रही थी और वह हमें कोचता हुआ शीघ्र बाहर निकल जाने का निर्देश दे रहा था.

निदान हम प्लेटफार्म से बाहर निकल पड़े. शहर के विभिन्न मार्गों पर सीरिया के असंख्य झण्डे लहरा रहे थे. पूछने पर मालूम हुआ कि आज मजदूर दिवस है. हम तो उस वक्त किसी मजदूर से भी बदतर हालत में समुन्दर, धरती और आसमान फाॅदते हुए एक शहर से दूसरे शहर तथा एक देश से दूसरे देश की खाक छान रहे थे. हमें लगा कि जैसे हलीब शहर हमारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है. दुल्हन की तरह सजे इस शहर को देखकर हमें अपार प्रसन्नता हुई.

सबसे पहले हमने पर्यटक विभाग से सम्पर्क किया. हमें बताया गया कि हलीव एक छोटा सा कस्बा है, जहाॅं एक मस्जिद के अतिरिक्त कुछ भी देखने योग्य नहीं है. किंतु यहां से 8 किमी दूर ‘हामा’ नाक का शहर काफी बड़ा और दर्शनीय है. हमने तुरन्त हामा जाने का निर्णय लिया और मुख्य सड़क की ओर चल पड़े. लगभग 2 किमी चलने के बाद हम किसी गाड़ी वाले से लिफ्ट पाने के लिए सड़क के किनारे खड़े होकर बारी-बारी से अंगूठा दिखाने लगे. सनसनाती हुई एक के बाद एक कई गाड़ियाॅं निकल गई. हमें लिफ्ट नहीं मिलनी थी, नहीं मिली. सच तो यह है कि किसी गाडी वाले ने हमारी ओर झांककर भी नहीं देखा. हमारे चेहरे उत्तरोत्तर निराश होते गये. लेकिन उस असहायता में भी जब हम एक-दूसरे के चेहरों को झांकते, तुरन्त मुस्कुरा  उठते.

हम थक गये थे कि तभी एक गाड़ी के ब्रेकों की तेज आवाज हमें सुनाई दी. पास ही एक पेट्रोल पंप था और एक पिक-अप उस ओर मुड़ रही थी. ताकत बटोर कर हम बेतहाशा उस ओर भागे. गाड़ी चालक से बात की. पर सब व्यर्थ! हम क्या कहना चाहते थे, वह कतई नहीं समझा. हमारे लगातार ‘हामा’-‘हामा’ चिल्लाने पर जैसे उसके कुछ पल्ले पड़ा. उसने हमें लिफ्ट दे दी और शीघ्र ही उसकी पिक-अप से हम हामा पहुंच गये. ड्राईवर को ‘तस्कुरे हास्म’ यानी धन्यवाद कहा और पास ही एक पार्क की ओर बढ़ गये. यहां शौचालय के बाहर लगे नल को देखकर नहाने का विचार हो आया. नहा ही रहे थे कि हमारे चारों और क्रुद्ध भीड़ एकत्र हो गई. बगैर कोई परवाह किये हमने नहाना जारी रखा. लगो बड़बड़ाते रहे, लेकिन हमने कान नहीं दिया. इस प्रकार जब हम पर कोई प्रतिक्रिया होती नजर नहीं आयी तो भीड़ से आगे आकर एक व्यक्ति ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में एकत्रित जन समूह के आक्रोश से हमें अवगत कराया. उसने बताया कि मुस्लिम राष्ट्र होने के कारण वहां पर्दा आवश्यक है. हमने मुस्कराकर संकेत से अपनी क्षमा जाहिर की. वह इस संकेत को समझा या नहीं, किंतु हमने तब न तो इसकी परवाह की और न ही आधे स्नान से उठे.

हामा शहर में एक सांस्कृतिक केन्द्र है. हमारे पास भारत संबंधी कुछ स्लाइड्स तथा पोस्टर थे. अतः हमारी टोली बेझिझक इस केन्द्र पर पहुंच गई. हमें पैसे की तंगी थी और हमारा ख्याल था कि इस तरकीब से कुछ धन अर्जित किया जा सकता है. पूछताछ करते-करते संयोगवश रास्ते में एक ऐसे व्यक्ति से मूलाकात हो गई, जिसने रूड़की विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग का कोर्स किया था. भारत से वह सज्जन काफी प्रभावित हुए थे. भारत में शिक्षित, किंतु सर्वथा अपरिचित इस व्यक्ति की मदद से हम सांस्कृतिक केन्द्र पहुंचे.

परन्तु वहां जाकर भी निराशा ही हाथ लगी. वहां कोई भी व्यक्ति अंग्रेजी का जानकार नहीं था और हम अरबी बोलने में अनाड़ी थे. कोई समाधान हो नहीं पाया. अतः हमें वापस लौटना पड़ा.

वही अपरिचित इंजीनियर हमें अपने घर ले गया. घर से सटा हुआ उसका दफ्तर भी था. उसने चाय पिलाई और काफी देर तक भारत के बारे में अपने संस्मरण सुनाता रहा. कुछ समय बाद हमने उससे विदा ली और पार्क में जाकर अपना लंच लिया. लंच क्या था, नमक मिले प्याज के साथ सूखी रोटियाॅं!

लंच के बाद हमारा कारवां पुनः हाइवे की ओर रवाना हो गया. लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद एक पेट्रौल पम्प के पास बैठकर हम कुछ सुस्ताये. स्टोव जलाया और चाय बनायी. बगैर दूध की काली चाय! पूरे यात्राकाल में इस चाय का आनन्द हमने अनगिनत बार लिया. चाय की चुस्कियों के साथ हम आती-जाती गाड़ियों पर नजर गड़ाये थे. पैसों की जबर्दस्त कड़की के बावजूद आगे बढ़ने का हमारा निश्चय अटल था.
डमास्कस में

एक ट्रक पेट्रोल पंप पर रूका. उसे देखकर हमारा उत्साह दुबारा ताजा हुआ. हमने ट्रक ड्राइवर को अपना आशय समझाया तो उसने सहृदयता पूर्वक हमें लिफ्ट दे दी. अंग्रेजी भाषा का बिल्कुल ज्ञान न होने के बावजूद उस ट्रक चालक मंइ किसी बात को समझाने की पूरी क्षमता थी. वह लगातार कुछ बोलता रहा. मार्ग में कई स्थानों पर उसने ट्रक रोककर हम लोगों को चाय सिगरेट पिलाई. एक बार अचानक उसने कोई गीत सुनाने की फरमाईश हमारे सामने रख दी. हम तीनों ने एक दूसरे को देखा और सम्मिलित स्वर में गाना शुरू कर दिया, ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’. स्टेयरिंग छोड़ कर बार-बार वह हमारे गाने के साथ हाथों में ताल देता रहा. भजन उसे सचमुच पसन्द आ रहा था. हालांकि वह कुछ भी समझ पाया हो, ऐसा संभव नहीं था.

इस तरह हॅंसते-हॅंसते हमारी चालीस किमी यात्रा पूरी हो गई. अब हम सीरिया के खूबसूरत शहर होम्स में थे. विश्राम नितांत आवश्यक हो गया था. लेकिन चूंकि जेबें कई दिनों से ढीली थीं, अतः किसी होटल में जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. हमारी नजर एक कब्रिस्तान पर पड़ी और हमें यह काफी माकूल लगा कि अल्प विश्राम के लिए थोड़ी देर वहीं पसर जाये. आधा घंटा सुस्ताने के बाद हमने एक विचित्र प्रस्ताव पास किया. हमारे पास अपने भारतीय कपड़े थे, जिनमें कुछ गर्म बनियानें भी थीं. हमने सोचा कि विशेष परिस्थितियों में इनको बेचकर कुछ धन एकत्रित किया जा सकेगा. अब जरूरत आ पड़ी थी, अतः हमने इन कपड़ों को बेचने का निर्णय लिया.

जब हमने अंगूठियां बेचीं

एक पुराने कपड़ों की खरीद फरोख्त करने वाले दुकानदार की तलाश कर हमने उससे बात की. किंतु हमारी योजना व्यर्थ साबित हुई. दुकानदार किसी भी तरह उन कपड़ों को खरीदने के लिए तैयार नहीं हुआ. खीझ और झुंझलाहट से भरे हम दुकान से बाहर आ गये.

अब क्या हो? हमारे दिमाग सक्रिय थे. भूखे पेट उसे बराबर उकसा रहे थे. कुछ न कुछ बेचना और कुछ पैसे कमाना जरूरी था.

हमारे पास कुछ अंगूठियां थीं, जिनमें भारतीय देवी-देवताओं के चित्र थे. हमने इनको बेचने की ठानी. इस बार काम बन गया. हमें खरीददार के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिल गया, जिससे इन अंगूठियों के हमें १२ सीरियन पाउण्ड (एक डालर 3065 सीरियन पाउण्ड के बराबर होता है) प्राप्त हो गये. यही नहीं उस व्यक्ति ने हमें बकायदा चाय भी पिलाई. उस स्थिति में हमारे लिए यह चाय नहीं, मंथन से निकला अमृत था.

गिनती के कुछ पाउण्ड हाथ में आते ही हम कब्रिस्तान को छोड़की किसी ज्यादा उपयुक्त आवास की तलाश में भागे. एक यूथ हाॅस्टल में दो सीरियन पाउण्ड खर्च कर हमें विश्राम के लिये चारपाइयाॅं मिल गई. भोजन में हमने एक सस्ते और विशिष्ट खाने का आदेश दिया- कच्चे जामुन के तेल के साथ लिया जाने वाला चने से बना व्यंजन, जिसे शहर के नाम पर ‘होम्मस’ कहा जाता है. तब से इस व्यंजन को हम मिश्र तक खाते रहे. इस सस्ते भोजन का मधुर स्वाद हम आज तक नहीं भूल पाये हैं. यूथ हाॅस्टल में हमने टेबल टेनिस का भी आनन्द लिया. जब हम पसीने से तर हो गये तो हमने स्नान किया और खालिद नाम के एक लड़के के साथ होम्स शहर देखने चल दिये. भ्रमण के दौरान हमने टेलिविजन में प्रसिद्ध मुक्केबाज क्ले की बाॅक्सिग का दृश्य देखा. क्ले और ब्रूसली का नाम सारे अरब में प्रसिद्ध है. यह जानकर हमें दुख हुआ कि भारत के पहलवानों या खिलाड़ियों के बारे में किंचित भी जानकारी या उत्सुकता लोगों को नहीं है.

हमारी वह रात निहायत चैन से कटी. प्रातः नौ बजे हम अंगड़ाई लेते हुए उठे. कुछ कपड़े धोये और लगभग दो बजे डमेस जाने के लिए हाइवे की ओर रवाना हो गये.

(जारी)

पिछली कड़ी का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा-2

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Sudhir Kumar

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