दिन था 30 मई 1930 का. जगह थी चांदाडोखरी के पास तिलाड़ी का मैदान. नत्थूसिंह सजवाण के नेतृत्व में महाराजा नरेंद्र शाह के सिपाही गांव-गांव में लूटखसोट और लोगों की धर-पकड़ कर रहे थे. इसी संबंध में तिलाड़ी के मैदान पर आजाद पंचायत के नेतृत्व में सेना के आगमन और समझौते की शर्तों पर विचार विमर्श होने लगा. महाराजा नरेंद्रशाह के सिपाहियों ने गांव वालों को तीनों ओर से घेर लिया.
रंवाई क्षेत्र का एक सैनिक अगमसिंह भी सेना में था उसने आगे बढ़कर आन्दोलनकारियों को सचेत करना चाहा लेकिन तब तक दीवान चक्रधर जुयाल ने सीटी बजा दी और सैनिकों ने गोलियों की बौछार शुरू कर दी.
सैनिकों की गोलियों से बचने के लिये निहत्थे गांव वाले इधर से उधर भागने लगे. जान बचाने के लिये कोई पेड़ पर चढ़ा तो कोई प्राण बचाने के लिये जमीन पर लेट गया. कुछ लोग पास में बह रही यमुना में जा कूदे.
400 गोलियां चली और न जाने कितनों की जान गयी. सेना घेरा डालकर जीवित व्यक्तियों को राजतर की ओर ले जाने लगी. रास्ते में जो व्यक्ति प्राण बचाने के लिये भागने की कोशिश करता उसे दीवान चक्रधर जुयाल स्वयं गोली मार देता. कहा तो यहां तक जाता है कि एक रात दो घायल बंदी दर्द से कराह रहे थे चक्रधर जुयाल ने अपनी नींद में बाधा पड़ने के कारण दोनों को जहर देकर मरवा दिया.
सैनिकों की एक टुकड़ी को बाद में गांव वालों की लाश ठिकाने लगाने के लिये चांदाडोखरी भेजा गया. उन्होंने मृत व्यक्तिओं के साथ भारी पत्थर बांधकर यमुना में फेंक दिये.
1927-28 के दौरान नई वन नीति ने सम्पूर्ण उत्तराखंड के लोगों के वन अधिकार छिन लिये थे. कुमाऊं और गढ़वाल दोनों जगह इसका तीव्र विद्रोह किया जा रहा था. ब्रिटिश सरकार की वन नीति के कारण इस क्षेत्र में पहले से ही असंतोष व्याप्त था. नई वन नीति द्वारा निर्धारित वन वनों की सीमा में तो लोगों के आंगन तक शामिल कर दिये गए थे.
रंवाई परगने में तो गांव वालों के आने जाने वाले रास्ते, खलिहान, पशुओं को बांधने वाले छाने भी इस वन सीमा के अंतर्गत आ गये थे. राज्य के वन नियमों के अनुसार समस्त वन संपत्ति राजा कि व्यक्तिगत संपत्ति में शामिल थी जिसे प्रजा भूल से भी बिना मूल्य प्राप्त नहीं कर सकती.
पहाड़ के गांवों में पशुचारण जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होता है. ऐसे में जब गांव वालों ने राजा से पूछा कि अब हमारे पशु कहां जायेंगे तो जवाब आया ‘ढंगार में फेंक दो’.
1930 में पूरे भारत में महात्मा गांधी के आवाह्न पर स्थानीय कानून तोड़े जा रहे थे. गांधी ने स्वयं डांडी में नमक कानून तोड़कर सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा था. चकरोता से रवांई के रास्ते पर राजतर नामक जगह पर लाला रामप्रसाद की दूकान समाचार पत्र पढ़ा जाता था. रंवाई के लोग बड़े उत्साह से इन खबरों को सुनते थे.
जब मध्य प्रांत और बंबई प्रांत में वन कानून तोड़ने की ख़बर सुनकर रंवाई क्षेत्र के लोग उत्साहित हो गए और नगाणगांव के हीरासिंह, कसेरू गांव के दयाराम और खमुंडी-गौडर के बैजराम ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला. राजतर के लाला रामप्रसाद ने इन तक लगातार ख़बर पहुंचाने का काम किया.
रंवाई के लोगों ने अपनी ‘आजाद पंचायत’ बना डाली और घोषणा कर दी की जंगल पर पहला अधिकार जंगल के बीच में रहने वाले लोगों का होगा. रंवाई में क्रांति की ऐसि लहर दौड़ी की अधिकांश राज कर्मचारी वहां से भाग गये. रंवाई के लोगों ने अपनी एक समान्तर सरकार बना दी.
नेपाल के महाराजा और महामंत्री का अनुकरण कर हीरासिंह को पांच सरकार और बैजराम को तीन सरकार कहा जाने लगा. ‘आजाद पंचायत’ लोटे की छाप को मोहर बनाकर अपने आदेश पारित करने लगी.
आजाद पंचायत ने चांदाडोखरी को अपनी बैठकें करने के लिये चुना. स्थानीय थोकदारों ने इन क्रांतिकारियों का अपने हित में उपयोग करना चाहा और इनसे संपर्क साधना चाहा लेकिन थोकदारों की मंशा क्रांतिकारी भांप गए. जिसके बाद इन थोकदारों ने राजा के गुप्तचरों के रूप में काम किया.
आंदोलन को देखते हुए राजा के दरबार से भूतपूर्व वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को बातचीत के लिये रंवाई भेजा गया. बातचीत में रतूड़ी जनता की मांगों से सहमत हुए और उनकी मांग मानने का आश्वासन देकर लौट गए.
एक तरफ बातचीत चल रही थी दूसरी ओर रंवाई के अंतर्गत राजगढ़ी के एस.डी.एम. सुरेन्द्र दत्त ने आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर वन हानि का मुक़दमा चला दिया. यह मुकादम वन विभाग के डी.एफ.ओ. पदामदत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया और आंदोलन के प्रमुख नेता दयाराम, रूद्रसिंह, रामप्रसाद जमनसिंह को कारावास का दण्ड सुनाया गया.
राजगढ़ी से टिहरी कारावास तक आंदोलनकारियों को पहुंचाने के लिये पटवारी और कुछ सिपाहियों के साथ एस.डी.एम. सुरेन्द्र दत्त और डी.एफ.ओ. पदामदत्त रतूड़ी ने 20 मई 1930 को दयाराम, रूद्रसिंह, रामप्रसाद जमनसिंह को गिरफ्तार किया.
गिरफ्तारी के बाद जब डंडियाल नामक गांव में ये लोग पहुंचे तो कुछ आन्दोलनकारियों ने क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिये एस.डी.एम. सुरेन्द्र दत्त और डी.एफ.ओ. पदामदत्त रतूड़ी आदि पर हमला कर दिया. डी.एफ.ओ. पदामदत्त रतूड़ी ने अपनी रिवाल्वर से नगाण गांव के ज्ञानसिंह, अजीत सिंह और जूनासिंह की हत्या कर दी. डी.एफ.ओ. पदामदत्त रतूड़ी वहां से भाग गया और एस.डी.एम. सुरेन्द्र दत्त को बंदी बना लिया गया.
इन दिनों महाराजा नरेंद्रशाह यूरोप में थे. जब दीवान चक्रधर जुयाल को इसकी ख़बर लगी तो उसने रंवाई के लोगों को सबक सिखाने की ठानी. दीवान ने सयुंक्त प्रांत के गवर्नर से आंदोलन के दमन हेतु शस्त्रों के प्रयोग की अनुमति ले ली.
इस दौरान टिहरी की सेना के प्रधान सेनापति कर्नल सुन्दर सिंह ने टिहरी की प्रजा पर गोली चलाने से इंकार कर दिया. तब दीवान चक्रधर जुयाल ने नत्थूसिंह सजवाण को रातों रात प्रधान सेनापति नियुक्त किया.
जब राज्य की सेना राजगढ़ी पहुंची तो उनका स्वागत थोकदार रणजीरसिंह से शराब, नृत्य और संगीत के साथ किया. रातभर शराब पी गयी और नाच गाना हुआ. अगले दिन गावों की ओर सेना गयी थोकदार रणजीरसिंह और थोकदार लाखीराम जिसे बागी कहते उसे धर लिया जाता. सैनिकों को लूटखसोट के खुले आदेश दिये गए थे.
और फिर रंवाई के लोगों का सामना हुआ तिलाड़ी के मैदान में उत्तराखंड के जनरल डायर चक्रधर जुयाल के क्रूर अत्याचारी आदेश से.
यूरोप से लौटने के बाद महाराज नरेन्द्रशाह ने चक्रधर जुयाल की प्रशंसा की और 68 लोगों पर मुक़दमा चलाया जिन्हें एक से बीस बरस तक के कारावास तक की सजा हुई. 15 क्रांतिकारी कारागार में ही मर गए जिन्हें गंगा नदी में बहा दिया गया.
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– काफल ट्री डेस्क
सन्दर्भ ग्रन्थ – शिवप्रसाद डबराल की किताब टिहरी-गढ़वाल राज्य का इतिहास – 2.
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