Featured

कुमाऊँ में वस्त्र उद्योग का इतिहास

ऐसा प्रतीत होता है कि कुटीर उद्योग के रूप में वस्त्र निर्माण समूचे हिमालयी क्षेत्र में विद्यमान था. प्रत्येक गाँव में कृषक अपने गाय-बैलों के साथ भेड़ भी पालते थे, जिनके ऊन से कंबल व वस्त्र बनते थे. इनसे स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी. ऊँचे पठारी भागों एवं घाटियों में कृषि योग्य भूमि की कमी के कारण वहाँ के लोग जीवनयापन हेतु व्यवसाय के रूप में पशुपालन करते थे; पशुओं में विशेषकर भेड़-पालन अधिक था. ये लोग व्यापार के लिए भी ऊनी वस्त्र बनाते थे. दारमा-जोहार के लोगों से ‘कर’ के रूप में ‘कंबल’ एवं ‘पंखी’ लिए जाने का उल्लेख हमारे साक्ष्यों में मिलता है. कुमाऊँ में उत्तम कोटि की कपास भी होती थी, जिससे स्पष्ट है कि सूती वस्त्रों का निर्माण भी किया जाता था. परंपरागत कपड़ा बनाने का कार्य ‘कोली’ जाति के शिल्पी करते थे. इस कपड़े को ‘घर बुण’ कहते थे. गोरखा शासकों ने वस्त्र निर्माण पर ‘कर’ निरुपण किया, जिसे ‘खंडकर’ के नाम से वसूला जाता था. सन् 1811 ई. में कुमाऊँ से ‘टांडकर’ से प्राप्त आय रुपया 50741/- थी. इससे तत्कालीन कुमाऊँ के विस्तृत एवं संपन्न वस्त्र उद्योग का पता चलता है. वस्त्र निर्माण के संबंध में उल्लेखनीय है कि यहाँ पर अन्न के साथ भाँग का उत्पादन भी किया जाता था. इसके रेशे से बने वस्त्रों को भंगेला कहा जाता था तथा ‘भंगेला’ वस्त्र यहाँ से बाहर भेजा जाता था. (History of Textile Industry in Kumaon)

‘भंगेला’ अन्य वस्त्रों की अपेक्षा सस्ता होता था. कुमाऊँ से इसका निर्यात भी किया जाता था. भाँग के ‘कोथले’ बनाने वाले बोरा जाति के लोग ‘कुथलिया बौर’ कहलाए जाने लगे. ये लोग भाँग की बोरियाँ, कुथले तथा कपड़ा बनाते थे. हमारे साक्ष्यों में रेशम उत्पादन का पता चलता है. इस अंचल में उत्पादित रेशम को साफ़ करके तथा विभिन्न रंगों में रंगने वाले ‘पटुवे’ (रेशम का कार्य करने वाले) रेशमी वस्त्रों का निर्माण करते थे. स्थानीय अंचल में लगने वाले विभिन्न व्यापारिक मेलों में लोग स्वनिर्मित वस्त्र को विक्री हेतु ले जाते थे. इनमें जौलजीवी, थल एवं बागेश्वर में लगने वाले व्यापारिक मेले उल्लेखनीय हैं.

कपास की रुई से कपड़ा बुनने का कार्य यहाँ के शिल्पी 4-5 पीढ़ी पूर्व तक परंपरागत रूप से करते थे. इसके लिए यहाँ पर्याप्त मात्रा में कपास उगाई जाती थी, जिससे अपनी आवश्यकतानुसार कपड़ा तैयार किया जाता था. वर्तमान में यहाँ न तो कपड़ा बुनने का कार्य होता है और न ही लोगों को इस विषय में कोई जानकारी है. वयोवृद्ध लोग अपनी स्मृति के आधार पर बताते हैं कि इसके लिए सर्वप्रथम कपास को सुखाया जाता था. फिर कपास में से उसके बीज (बनौल) बीनकर अलग किए जाते थे. तदुपरांत उसे हाथ से फैलाकर ‘पाव्’ (परात् सदृश लकड़ी का बर्तन) में बिछाया जाता था. उसके बाद ‘पराल’ (धान के पौधे का सूखा तना) की नली के अंदर एक पतला तार डालते थे, ताकि ‘पराल’ की नली टूट न सके. तत्पश्चात् उसके बाहर नली में कपास के लच्छे बनाते हुए लपेट दिया जाता था, जिसे ‘पुड़’ कहा जाता था. ‘पुड़’ बनाने के पश्चात् पराल की नली व तार दोनों को निकाल देते थे. इस प्रकार कई पुड़ों को बनाया जाता था. ‘पुड़ों’ की एक-एक करके कताई की जाती थी. कताई करने हेतु ‘कतु’ (तकली) का प्रयोग किया जाता था. ‘कतु’ लगभग 1-12 ‘वेत’ लंबा 2 ‘सूत’ गोल एक डण्डा होता था. इसके एक छोर में लकड़ी या लोहे का गोल व भारी टुकड़ा पहनाया जाता था, तथा दूसरे छोर की सतह में लोहे का पतला एवं लगभग 2 ‘ अंगुल’ लंबा एक तार फँसाया जाता था, जिसका आधा भाग लकड़ी की सतह से बाहर रहता था. इस बाहर निकले हुए भाग को गोलाई में मोड़ दिया जाता था, जिसमें कताई का तागा फँसाया जाता था. इस प्रकार से ‘कतु’ में आवश्यकतानुसार पतला या मोटा तागा निर्मित किया जाता था. कताई के पश्चात् तागे के गोल गुच्छे बनाए जाते थे.

यों तो प्राचीन समय में कपड़ा बुनने की अनेक विधियाँ पाई जाती हैं, लेकिन वर्तमान में लोगों को उन विधियों की जानकारी नहीं है, क्योंकि इन विधियों से कपड़ा बुनने का कार्य 5-6 पीढ़ी पहले ही लुप्त हो गया था. सीमांतिक क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया जनजाति के लोग ऊन के गरम कपड़े, आदि बनाते हैं, लेकिन उनके उपकरणों में आधुनिकता है और वे परंपरागत उपकरणों से भिन्न बताए जाते हैं, अतः यहाँ पर केवल उसी विधि के वर्णन का प्रयास किया जा रहा है जो सर्वेक्षण के दौरान वृद्ध शिल्पियों से ज्ञात की जा सकी. इस हेतु सर्वप्रथम बिनाई हेतु प्रयुक्त उपकरण के अधोलिखित भाग तैयार किए जाते थे.

इसे भी पढ़ें : कुमाऊँ में कपड़े और रस्सियाँ बनाने के लिए रेशा निकालने के परम्परागत तौर-तरीक़े

डंड (डण्डा ) – यह एक 2 से 2/2 ‘हाथ’ लंबा डण्डा होता था. इसके अतिरिक्त लगभग 2 से 22 ‘हाथ’ लंबा व 2-3 ‘अंगुल’ व्यासयुक्त दो अन्य ‘डण्डे’ भी बनाए जाते थे, जिनका एक ओर का लंबवत् भाग छीलकर चपटा बनाया जाता था.

चरयठ – यह लकड़ी का बना एक डण्डा होता था, जो लगभग 1 से 11/2 ‘हाथ’ लंबा व 2 ‘ अंगुल’ व्यासयुक्त होता था. इसमें ‘बान’ (तिरछा वाला तागा) लपेटा जाता था.

हथवान् – यह भी लकड़ी में निर्मित होता था, जो 112 से 2 ‘हाथ’ लंबा 4-5अंगुल चौड़ा व 2-3 अंगुल’ मोटा डण्डा होता था. इसकी चौड़ाई वाला एक 2-3 अंगुल मोटा और इसका विपरीत छोर छोटा क्रमशः पतला चाकू की धार सड्स बनाया जाता था. इसे बिनाई के समय तागे को ठोकने हेतु प्रयुक्त किया जाता था. धातू – यह भी लकड़ी का लगभग 14½ ‘हाथ’ लंबा, 4-5 ‘अंगुल’ चौड़ा व ‘अंगुल ‘ मोटा डण्डा होता था. इन भागों को अधोलिखित विधि से प्रयुक्त किया जाता था.

कपड़ा बुनने हेतु सर्वप्रथम लगभग 11½ ‘हाथ’ लंबे व 7-8 ‘अंगुल’ चौकोर दो खम्भे जमीन में एक सीध में अगल-बगल गाढ़े जाते थे, जो ज़मीन से एक ‘कुन’ उबर रहते थे. आपस में इनकी दूरी 1½ ‘हाथ’ होती थी. इन डण्डों के पीछे आवश्यकतानुसार ऊँचाई के अनुरूप पत्थर/ लकड़ी का आधार बनाया जाता था. फिर उपरोक्त तैयार किए हुए दो (एक मोटा तथा दूसरा अपेक्षाकृत पतला) ‘डण्डे’ ज़मीन के समानांतर इस प्रकार रखे जाते थे कि इनकी आपस की दूरी लगभग 3-4 ‘हाथ’ हो जाए, फिर पूर्व में कते तागे को दोनों डण्डों में ऊपर से ले जाकर नीचे से निकालते हुए लपेटा जाता था. इस प्रकार डण्डों में इनकी आपसी दूरी के अनुसार तागों की बजार दो सतहों (ऊपरी एवं निचली) में हो जाती थी. तागे के दोनों छोर (पहला एवं अंतिम) इण्डों में बाँध दिए जाते थे, ताकि डण्डों में लिपटा हुआ तागा खिसक ना सके. इस प्रकार लपेटे हुए तागे को ‘तान’ कहते थे. पतले डण्डे के दोनों छोरों में एक-एक रस्सी बाँधी जाती थी. तदुपरांत दोनों डण्डों को तागा लपेटे हुए स्थिति में दो व्यक्तियों द्वारा सावधानीपूर्वक उठाया जाता था तथा मोटे डण्डे के दोनों छोरों को गढ़े हुए खम्भों के पीछे बने आधार के ऊपर रख दिया जाता था, ताकि तागा ज़मीन में न लगे. उसके विपरीत दिशा में ‘बुनकर’ (अधिकांशतः महिला) बैठता था, जो तान् लपेटे हुए पतले डण्डे को अपने पेट के पास सटाए रखता था और उसके दोनों छोरों पर बँधी रस्सी को अपनी कमर में कस लेता था. इस प्रकार कमर में रस्सी से बँधे डण्डे को बुनकर द्वारा अपनी ओर खींचने से तागा स्वयं तन जाता था. इसके बाद ‘तान्’ के प्रत्येक तीसरे तागे में तागे के छोटे-छोटे छल्ले पहनाए जाते थे. इन छल्लों में 1½ ‘हाथ’ लंबा व दो ‘अंगुल’ व्यासयुक्त डण्डा फँसाया जाता था. इस डण्डे को ऊपर उठाने से छल्ले में बँधे हुए ‘तान्’ भी उपर उठ जाते थे. छल्ले बँधे हुए तान को नीचे तथा बिना छल्ले वाले तान को ऊपर करके इनके मध्य ‘पात्’ को चपटा आकार में डाल दिया जाता था. तदुपरांत बिनाई करने हेतु ‘पात्’ को खड़ा कर इससे साते हुए ‘बान’ लिपटे हुए ‘चरमठ’ को एक छोर से दूसरे छोर को डाला जाता था. इसके उपरांत ‘पात्’ को चपटा कर दिया जाता था, और छल्ले वाले ‘तान्’ युक्त डण्डे को ऊपर खींचा जाता था, जिसमें छल्लों की सहायता से वे ‘तान्’ (ताने) भी ऊपर आ जाते थे तथा तागों की दूसरी कतार नीचे अपनी ही अवस्था में रहती थी. तदुपरांत ‘चरयठ’ को इन तागों की दोनों कतारों के मध्य से एक छोर से दूसरी छोर को डाला जाता था. इस प्रकार डाले हुए तागे को ‘बान्’ कहते थे. चूँकि ‘बान्’ ढीला होता था. अतः तागों की दोनों कतारों के मध्य ‘हथवान्’ डालकर उसके पतले धार से ‘बानू’ में ज़ोर-से आघात कर उसे ठोस किया जाता था. फिर छल्ले वाले डण्डे को छोड़ दिया जाता था. तदुपरांत चपटी अवस्था में डाले हुए ‘पात्’ को खड़ा किया जाता था, जिससे छल्ले वाले तागे नीचे एवं बिना छल्ले वाले तागे उपर आ जाते थे. फिर इनके मध्य बने खाली स्थान से ‘चरयठ’ को वापस दूसरी ओर लाया जाता था. पुनः ‘हथवान्’ से ‘वान्’ को ठोककर ठोस बनाया जाता था. यही प्रक्रिया बार-बार दुहराई जाती थी. इस प्रकार कपड़ा बनता जाता था. जब कपड़ा अधिक बनता था तो डण्डों में तागे को खिसकाकर बिने हुए भाग को नीचे किया जाता था, तथा ‘तान्’ को उपर लाया जाता था. इस प्रकार जब पूरी बिनाई तैयार हो जाती थी, तो तागे को बुनाई के आदि व अंत के जोड़ से काटकर अलग कर दिया जाता था. तदुपरांत हाथ की सुई से सिलकर आवश्यकतानुसार कपड़े बनाए जाते थे.

इसे भी पढ़ें : इतिहास का विषय बन चुकी हैं उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचलों की पारम्परिक पोशाकें

कपड़ा बिनाई की उपरोक्त परंपरागत विधि वर्तमान पीढ़ी के शिल्पकार त्याग चुके हैं.

कुमाऊँ में माप हेतु प्रयोग की जाने वाली परंपरागत शब्दावली

अंगुल = 3/4 इंच : तर्जनी अंगुली की चौड़ाई.
कुन = 7 इंच : तर्जनी अंगुली से अँगूठे के मध्य की फैलाने पर अधिकतम दूरी.
बेत = 9 इंच : कनिष्टिका से अँगूठे के मध्य की फैलाने पर अधिकतम दूरी.
हाथ = 1½ फुट : कोहनी से मध्यमा अंगुली के मध्य की अधिकतम दूरी.

(साभार : मध्य हिमालय की अनुसूचित एवं पिछड़ी जातियाँ : परंपरागत शिल्प और उद्यम, सम्पादक-महेश्वर प्रसाद जोशी)

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

3 days ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

3 days ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

6 days ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

1 week ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

2 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

2 weeks ago