मई जून की गर्मियों में उत्तराखंड (Uttarakhand) के पहाड़ों में कंटीली झाड़ियों के बीच उगने वाला एक रसदार फल होता है जिसे हिसालू (Hisalu) कहते हैं.
उत्तराखंड के आदि कवि गुमानी हिसालू की प्रसंशा में कविता लिखते हैं और कहते हैं –
छनाई छन् मेवा रत्न सगला पर्वतन में,
हिसालू का तोपा छन बहुत तोफा जनन में.
पहर चौथा ठंडा बखत जनरो स्वाद लिण में,
अहो मैं समझछुं अमृत लग वस्तु क्या हुनलो.(पर्वतों में अनेक रत्न हैं, हिसालू की बूंदे उनमें तोहफे हैं. चौथे पहर में इनका ठंडा स्वाद लेने में, मुझे लगता है कि अमृत जैसी वस्तु इसके सामने क्या हुई.)
हिसालू को हिमालय की रास्पबेरी भी कहा जाता है. इसका लेटिन नाम रुबस इलिप्टिकस (Rubus elipticus) है , जो कि Rosaceae कुल की झाड़ीनुमा वनस्पति है. विश्व में इसकी लगभग 1500 प्रजातियां पायी जाती है.
हिसालू का दाना कई छोटे-छोटे नारंगी रंग के कणों का समूह जैसा होता है. हिसालू खाने में खट्टा और मीठा होता है. अच्छी तरह से पका हुआ हिसालू बहुत अधिक मीठा होता है.
पका हुआ हिसालू इतना कोमल होता है कि हाथ में पकड़ते ही टूट जाता है और जीभ में रखते ही पिघल जाता है. ज्यादा हिसालू खाने से नींद भी आ जाती है.
हिसालू पर गुमानी एक अन्य जगह लिखते हैं –
हिसालू की जात बड़ी रिसालू,
जां जां जांछे उधेड़ि खांछे,
यो बात को कोइ गटो निमान,
दुध्याल की लात सौनी पड़ंछै.(हिसालू की नस्ल बड़ी गुस्से वाली है, जहां-जहां जाती है खरोंच देती है, तो भी कोई इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लात सहनी ही पड़ती है.)
उत्तराखंड के अलावा हिसालू भारत में लगभग सभी हिमालयी राज्यों में उच्च उंचाई पर पाया जाता है. भारत के अलावा यह नेपाल, नेपाल, पाकिस्तान, पोलैण्ड, सर्बिया, रूस, मेक्सिको, वियतनाम आदि देशों में पाया जाता है.
हिसालू के केवल खाने में ही स्वादिष्ट होता है ऐसा नहीं है इसके बहुत से औषधीय गुण भी हैं. हिसालू को एंटीआक्सीडेंट प्रभावों से युक्त पाया गया है. इसकी ताजी जड़ों के रस का प्रयोग पेट से जुड़ी बिमारियों के लिये किया जाता है.
हिसालू में अनेक पोषक तत्व पाये जाते हैं. हिसालू में कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, पोटेशियम, सोडियम व एसकरविक एसिड उपलब्ध होते हैं. इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत, मैंगनीज़ 32 प्रतिशत तक पाया जाता है. हिसालू में शुगर की मात्रा सिर्फ 4 प्रतिशत तक ही पायी गयी है.
हिसालू के दानों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में भी फायदेमंद होता है.
तिब्बती चिकित्सा पद्धति में हिसालू की छाल का प्रयोग सुगन्धित एवं कामोत्तेजक प्रभाव के लिए किया जाता है.
हिसालू के दानों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में भी फायदेमंद होता है.
हिसालू जैसी वनस्पति को सरंक्षित किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आई.यू.सी.एन . द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है.
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी हिसालू पर देखा गया है. अमूमन 2500 से 7000 फीट की उंचाई पर सामान्य रुप से पाया जाने वाला हिसालू अब अधिक उंचाई पर पाया जाने लगा है.
पहाड़ के फलों को लेकर भारत सरकार कितनी अधिक गंभीर है इसका एक नमूना अक्टूबर 2018 में पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार की के प्रेस विज्ञप्ति में देखा जा सकता है जिसमे एंटी-ऑक्सिडेंट्स से संबंधित एक लेख में हिसालू को स्ट्राबेरी लिखा गया है. आज भी यह लेख पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार की वेबसाइट पर जस का तस लगा है.
उत्तराखंड में हिसालू का उत्पादन कहीं पर नहीं होता है. इसके बावजूद गर्मियों में नैनीताल जैसे हिल स्टेशन की सड़कों पर 30 रुपया प्रति सौ ग्राम की दर से हिसालू बिकता दिखता है. सैलानी जिसे 300 रुपया किलो खरीद कर खा रहे हैं सरकार की नज़र में वह जंगल में उग जाने वाले एक जंगली फल से ज्यादा कुछ नहीं है.
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पहाड़ी समाजै पुराणी और नई काथ लेखि बेर तुम हमार जास उन पहाड़ियों पर बहुत अहसान कर्णाछा, जो पहाड़ है भैर रूण पर मजबूर छन पर आपड़ पहाड़ कैं भुला लै नै सकन।
भौत भौत धन्यवाद आप लोगन कैं।
शंकर दत्त पांडे
राजकोट, गुजरात