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वह जो पहाड़ पर नमक लाते रहे

मैंने अपने पुरखों के जितने भी किस्से सुने उनमें टनकपुर से पैदल नमक लाने के किस्से सबसे रोमांचक किस्सों में से थे. पहाड़ के भट, मडुवे, मक्के फांफर को स्वाद देने के लिए नमक चाहिए था. उस समय सड़कें तराई से कुछ ही ऊपर चढ़ी थीं और नमक के लिए माल भाभर की मंडियों तक का सफ़र ज्यादातर पैदल ही करना पड़ता. Himalayan sheep

दूर दराज से लोग जत्थे बनाकर माल भाभर जाते. लेकिन बहुत श्रमसाध्य निर्वाह खेती वाले समाज में इतना वक्त हमेशा कहाँ होता कि हफ़्तों की थकाऊ और जोखिम भरी यात्राएं की जाएँ. फिर इस बंद समाज में बाहर निकलने में एक ख़ास तरह का डर भी था जिसकी छाया अभी तक हमारे मानस में बची है.

लेकिन शिवालिक और बर्फीले महाहिमालय के बीच के इस सलवटदार भूगोल में ऐसी लकीरें थीं जिनका एक सिरा हिमालय पार तिब्बत के पठार में था तो दूसरा गंगा के मैदान की बड़ी-बड़ी मंडियों में. इन लकीरों को रेशम की लकीरें भी कहें तो कोई गुरेज न होगा. Himalayan sheep

महान रेशम मार्ग से जुड़ने वाली इन बारीक लकीरों में शौका और रं व्यापारी अपने ख़ास पशुओं के साथ सफ़र करते. ये ख़ास पशु थे मांस और ऊन के चलते फिरते गोदाम यानी भेड़ें. तिब्बत से आते हुए इन भेड़ों की पीठ पर लदे करबच भरे होते चट्टानी नमक, छिरबी, ऊन, हिमालयी जड़ी बूटियों और मसालों के अलावा कुछ अनमोल पत्थरों से.

नमक मध्य हिमालय की जरुरत था और अनाज इन व्यापारियों की. खुद के लिए भी और अपनी भेड़ों के लिए भी. माल भाभर से आते हुए भी इनके पास समुद्री नमक और बाकी असबाब होता जो तिब्बत में बिकता था. अक्सर गाँव-गाँव में ये व्यापारी या इनके अणवाल नमक के बदले अनाज और दालें लेते.

दारमा के दुग्तु गाँव में शरद के पहले नीचे को उतरती आखिरी भेड़ें.
लॉकडाउन के सातवें दिन विनोद द्वारा बनाई गयी पेंटिंग.

इन गाँव को जम्बू, गन्द्रेण, लाल जड़ी, मासी- गुग्गल जैसी जड़ी बूटियाँ भी इन यायावरों से मिलते. कुछ संपन्न लोग दन, थुलमे और चुटके भी इनसे लेते. इस सारे व्यापार का जो आधार था वह थी शांत अनुशासित और लकीर पर चलने वाली भेड़ें. किसी कलमकार ने तो इन्हें पहाड़ की रेल गाड़ी तक कहा है.

समय के साथ चीजें बदली और हमारी थाली में नमक आने के बहुत सारे रास्ते बन गए. चीन तिब्बत को निगल गया तो एक पूरा समृद्ध व्यापारी समाज अपनी जड़ों से पलायन कर गया. भेड़ें हमारी जरूरतों की टोकरी से निकलने लगी. लेकिन बुग्यालों की सुनहरी घास और घाटियों के पथरीले रास्ते अभी भी इस रिश्ते को तोड़ नही पाए. आज भी भेड़ें आती हैं अपने अन्वाल के साथ. भले ही कितनी चौड़ी बन जाएँ सड़कें भेड़ें आज भी पैदल आती हैं. अपने करबच में अब भी लाती है जम्बू की महक और हिमालय की गरम तासीर. Himalayan sheep

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विनोद उप्रेती

पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं. विनोद काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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