यह 2007 की बात है. दिन-वार ठीक से याद नहीं. अक्टूबर का महीना था. उन दिनों रामलीला(एं) चल रही थीं. अल्मोड़ा से तीन जने दिल्ली के लिए रवाना हुए – बागेश्वर से केशव, अल्मोड़ा से रज्जन बाबू और मैं. हमें पूना से एक मारुति-800 कार बागेश्वर पहुंचानी थी. केशव के एक मित्र हैं चौबे जी (वे हमें भी अपना मित्र मानते हैं, उनकी कृपा है ) कार उन्हीं के ससुराल से लानी थी जो कि उनकी पत्नी को उपहार में मिल रही थी. पहले केशव के साथ चौबे जी ख़ुद जाने वाले थे पर ऐन मौके पर उन्हें पिण्डारी जाना पड़ा. प्रोग्राम गड़बड़ा गया. उनकी जगह रज्जन बाबू की भर्ती हुई. इतने लम्बे सफ़र में कोई तो साथ चाहिए. रवानगी के दिन दिल्ली के लिए बस में सीट बुक करवाते समय तक की भूमिका पटकथा में मैं कहीं नहीं था. जिस तरह माफ़िया डॉन की सिफ़ारिश के बाद फ़िल्म में उसकी पसन्द के कलाकार को लिया जाता है (नतीज़तन उस बेतुकी फ़िल्म में उसके होने की कोई तुक समझ में नहीं आती), कुछ इसी तरह मैं साथ हो लिया.
शायद ही ऐसा कोई उल्लू का पठ्ठा मिले (अपने को फ़िलहाल नहीं मिला) कि जो पूना से गाड़ी चलाता हुआ बागेश्वर तक पहुंचा हो. वह लगभग दो हज़ार किलोमीटर लम्बा सफ़र ग़ैरज़रूरी भी था और आत्मघाती भी. इस बात का अहसास सफ़र के दौरान तो होता ही रहा बाद में और भी शिद्दत से हुआ. जिस गाड़ी को हमने लगभग ढो कर पूना से हल्द्वानी तक पहुंचाया, वह जानकारों के मुताबिक ट्रेन से दिल्ली या बरेली तक आ सकती थी. वह अनावश्यक और लौंड्यारपने का सफ़र एक आदमी की सनक, ज़िद और एक हद तक अकड़ के कारण करना पड़ा. लेकिन उसने पूरे सफ़र में कहीं भी लापरवाही भरा व्यवहार नहीं किया. ख़ासकर गाड़ी चलाते हुए. हमें जैसा ले गया ठीक वैसा ही घर छोड़ गया.
इस तहरीर का मतलब गपोड़ी की गप से ज़्यादा कुछ नहीं जिसे समय बिताने के लिए सुना जाता है. इसे सफ़रनामा कहेंगे या एकालाप पता नहीं. काफ़ी कुछ याद नहीं रह गया. नोट कुछ भी नहीं किया, सिर्फ़ याददाश्त से काम चलाना है. किन-किन शहरों-जगहों से गुज़रे ज़्यादातर याद नहीं.एकाध जगह तो जहां रात गुज़ारी उसका भी नाम याद नहीं आता.’शायद’ और ‘लगभग’ शब्दों का प्रयोग बार-बार करना पड़ेगा. ऐसा भी हो सकता है कि कोई मुक़ाम पहले गुज़र जाए मगर ज़िक्र उसका बाद में आए. अच्छी याददाश्त वाले घुमक्कड़ों और गला पकड़नेवाले भूगोलवेत्ताओं की कोई कमी नहीं. इसलिए पेशगी जमानत करवा लेना ठीक रहेगा. यात्रा वृत्तान्त नहीं आपबीती इसे कहना चाहूंगा – कुल्हाड़ी पांव पर नहीं गिरी. पांव कुल्हाड़ी पर मार लिया नुमा आपबीती.
अल्मोड़ा से दिल्ली तक की यात्रा बेहद तकलीफ़देह रही. रात भर भूखे-प्यासे करीब छः घंटे जाम में फंसे रहे. हम दिल्ली पांचेक घन्टे देर से पहुंचे थे -ऐन ट्रेन छूटने के समय. इसलिए मानकर चल रहे थे कि ट्रेन तो गई हाथ से. फिर भी चलो देख लें सोचकर ऑटो वाले को मुंहमांगे पैसे देकर रेलवे स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि झेलम एक्सप्रेस तो अभी पहुंची ही नहीं, लेट है. भूख-प्यास, रतजगे और बोरियत से पैदा दिमाग और शरीर का भारीपन कहीं बिला गया. चीज़ों के मानी हमेशा सबके लिए एक से नहीं होते तो – ट्रेन के लेट होने का जो मतलब हमारे लिए था, घंटों से इन्तज़ार कर रहे लोगों के लिए वह कतई नहीं हो सकता था. उस दिन अहसास हुआ कि अव्यवस्था की भी अपनी एक व्यवस्था होती है जो कि वर्षों में अपना आकार ले लेती है. राजमार्ग में घंटों लम्बा जाम और राजधानी में ट्रेन का लेट हो जाना, इनका आपस में कहीं न कहीं संबंध है.
रिज़र्वेशन सिर्फ़ दो ही लोगों का था, मैं बीच में अचानक आ टपका. मेरे लिए वहीं पर जनरल क्लास का टिकट लिया गया. ठीक बारह बजे ट्रेन आई. स्टेशन पर अफ़रातफ़री मच गई अपनी सीट और डिब्बा तलाशने के लिए. इस काम के लिए हमें भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. करीब १५ मिनट बाद ट्रेन रेंगने लगी. दिल्ली पीछे छूटने लगा.
उसके बाद दौर शुरू हुआ चाय-कॉफ़ी, सूप और फिर दोपहर के खाने का. अरे हां, एक विचित्र किन्तु सत्य किसम की बात यह हुई कि टीटी साहब से घंटे भर के अंतराल में दो बार कहा गया कि हमें एक टिकट स्लीपिंग का बनवा दीजिए. बर्थ खाली नहीं है मगर हम आपस में एडजस्ट कर लेंगे. उन्होंने हां कहने के बावजूद टिकट नहीं दिया और न फिर उसके बाद उनकी शकल ही दिखी. भला हो उनका, इतनी ऊपरी कमाई हो कि तनख़्वाह बैंक में पड़ी-पड़ी सड़ जाए.
हमारे सामने दो महिलाएं बैठी हुई थीं. एक अधेड़ावस्था को तेज़ी से पार करती हुई – मोटी थुलथुल और पांव-दर्द की मरीज़. दूसरी ३०-३५ के आसपास की. निकला कद, छरहरी, हंसमुख. थोड़ा अल्हड़पन उसमें था अभी भी. संगीत की धुन पर पांव हिलाकर आंखें मटका कर मुस्करा कर अपनी पसंदीदगी जाहिर करने की अदा अभी भूली नहीं थी. वे दोनों महिलाएं पूना तक हमारे साथ रहीं मगर उनका आपस में रिश्ता क्या था हमें पता नहीं चल पाया. बातूनी हम तीनों में से कोई नहीं वरना इतने लम्बे सफ़र में लोग सामनेवाले का वंशवृक्ष रट लेते हैं और ‘वाली’ का फ़िगर, बायोडाटा फ़ोन नम्बर सहित पूछ लेते हैं. एक साहब पूना किसी इन्टरव्यू के सिलसिले में जा रहे थे. दूसरे एक साहब वर्दी में तो नहीं थे पर थे शर्तिया फ़ौजी. बग़ल की सीट पर एक बूढ़े दम्पत्ति थे. जहां तक याद आता है उन्हें आपस में बतियाते नहीं देखा. एक दूसरे के प्रति अरुचि और बेगानापन उनके बीच पसरा हुआ साफ़ नज़र आता था. अन्दाज़ा लगा पाना मुश्किल था कि वे थे ही वैसे, किसी बात पर ख़फ़ा थे, उन्हें कोई दुख था या कि विवाह ही अनमेल था.
ट्रेन के अन्दर बेनूर आंखों वाला एक आदमी गाईड मैप बेचने आया जिसे हमने ख़रीद लिया. उस नक्शे ने बाद में कई बार हमारी मदद की. दोपहर के खाने के बाद जबकि ज़्यादातर मुसाफ़िर ऊंघ रहे थे किसी स्टेशन पर एक गवैय्या हमारे डिब्बे में चढ़ा एक छोटी बच्ची के साथ और ऐन हमारी बगल में आ बैठा. उसने सधी हुई उंगलियों से हारमोनियम छेड़ा और बिना किसी फ़रमाइश के गाना शुरू किया – “सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…” हारमोनियम के सुर और बच्ची के साथ उसकी की पाटदार आवाज़ ट्रेन की गटरगट्ट से कुछ देर होड़ लेती रही फिर पूरी तरह उस पर छा सी गई. गाना उस तपती दुपहरी में ठंडी बयार सा लगा. थोड़ी देर तक ख़ुमार की तरह छा गया – ” … इस दिल के तारों में मधुर झनकार तुम्हीं से है और ये हसीन जलवा ये मस्त बहार तुम्हीं से है …” गाने की कुछ लाइनों को बड़ी चालाकी से उसने गाया ही नहीं. ऐसी लाइनें जिन पर कई बार लोग आवाज़ें कसते होंगे, सीटियां बजाते होंगे जिससे बच्ची के साथ उसे शर्मिन्दा होना पड़ता होगा. दसेक साल की वह बच्ची किसी तज़ुर्बेकार औरत की सी भावभंगिमा लिए कोने में खड़ी हो गई और वहीं से उसके (वह उसका पिता रहा होगा शायद) सुर में सुर मिलाती रही. लड़की की आंखों में बच्चॊम का सा भाव नहीं था. किसी की आंखों में सीधे उसने नहीं देखा. लोगों के बारे में उसके अनुभव यकीनन बुरे रहे होंगे. गवैय्ये की अच्छी कमाई हुई. पैसा बटोरने के दरमियान ही कोई स्टेशन या झंक्शन आ गया और पेटी मास्टर सभी लोगों के बहुत कहने के बावजूद और आगे चलने को तैयार नहीं हुआ. वह वहीं उतर गया. ” … दिल तो ये मेरा सनम तेरा तलबगार था …”
मथुरा के स्टेशन पर सिगरेट सुलगाने की हमारी झिझक को पुलिस वाले की तज़र्बेकार आंखों ने पकड़ लिया. नतीज़तन दो रुपल्ली की गोल्ड फ़्लेक सौ या दो सौ की पड़ गई. पैसा सिपाही जी की जेब में गया. पेड़ानगरी में कड़वाहट! शाम हुई, खाना खाया और सो गए. रज्जन बाबू और मैं एक बर्थ पर एक दूसरे की ओर पांव करके बल्कि यूं कहना ज़्यादा अच्छा लगेगा कि एक दूसरे के चरणों में सर रख कर सो गए. फ़ौजी भाई जो थे वे भी पता नहीं कैसे बिना बर्थ के सफ़र कर रहे थे. केशव ने उनसे बहुत इसरार किया कि आइये मेरे साथ सो जाइए. पर वो माने नहीं, फ़र्श पर चादर बिछाकर लेट गए. रज्जन बाबू का मोबाइल जेब से निकल गया जो इ उन्होंने सम्हाल रखा था. इसकी एवज़ मैंने सुबह उन्हें कंधा हिलाकर जगाया और चाय पेश की.
याद नहीं आ रहा है कि जब सुबह हुई थी तो रेक किस जगह से गुज़र रही थी. खिड़की का शीशा उठाकर बाहर झांकना शुरू किया. बीच-बीच में रेल बस्तियों के पास से गुज़र रही थी तो देखा कि नर-नारी हवा की ओट में बैठे एक स्वाभाविक और अपरिहार्य कर्म से निबट रहे थे. जिन लोगों की सुबह ऐसी वीभत्स हो, उनका बाक़ी दिन कैसा होता होगा. बहुत देर तक ख़याल आता रहा कि क्या ये वही लोग हैं जो मन्दिर-मस्ज़िद जैसी फ़ालतू और फ़ुरसत की चीज़ों के लिए भेड़-बकरियों की तरह कट मरते हैं जबकि इनके अपने पास एक अपरिहार्य आड़ तक नहीं. सोच का यह कौन सा स्तर है कि अपनी कोख का जाया कुपोषण से मर जाता है पर बेजान मूर्तियों को दूध से नहलाने पर अपराधबोध नहीं होता. हमारे अन्दर जड़ के लिए क्यों इतनी आस्था है जबकि चेतन आस्था के अभाव में अचेत पड़ा है. तमाम होहल्ले और शाइनिंग के बावजूद सोच के इस स्तर को बनाए रखने में जिन लोगों का हाथ है, वो कब तक इतने निर्दयी बने रहेंगे. अपना स्वार्थ साधते रहेंगे. यह लावा आख़िर फूटता क्यों नहीं! ताकि धरती नए सिरे से उर्वरा हो, नए अंकुर फूटें, फूल खिलें जिनमें न छल हो न बनावट. जहां ऐसा न हो कि जो फूलों को उगाएं, उन्हें सींचें मगर उनके रंगो-बू और उनके निकलने वाले मधु में उनका हिस्सा न हो.
ऐसे ही बे-गोर-ओ-कफ़न लोगों की ओर इशारा करते हुए बहुत पहले कवि ने कहा था – पहले इन के लिए एक इमारत गढ़ लूं फिर तेरी मांग सितारों से भर जाएगी. प्रेयसी ने अगर कवि की बात का भरोसा किया होगा तो उसकी जवानी सर्द रातों को चांदनी की तरह बेकार गई हो्गी. कवि या कविता शब्द सुनते ही ढेला लेकर मारने दौड़ती होगी.
सफ़र में हमें चौबीस घन्टे हुआ चाहते थे. अपने सहयात्रियों से ज़्यादा बातचीत तो नहीं हो पाई पर इतना तो घुलमिल गए ही थे कि एक दूसरे की हवाई चप्प्लें बिना पूछे ही इस्तेमाल करने लगे थे. धीरे-धीरे पूना क़रीब आता जा रहा था. रज्जन बाबू और मैंने कपड़े बदले और जूते पहन लिए. पूना से कुछ पहले एक साहब रेल में चढ़े, उनके पास ओशो की किताबें, सीडी और कैसेट थे. बातों-बातों में वे यह भी पता कर लेते थे कि आपको पूना में रहने की कोई परेशानी तो नहीं. उनके पास लॉज और होटलों के पते थे. हमें कोई परेशानी नहीं थी. केशव ने उनसे दो सीडी, एक ओशो टाइम्स खरीदी. ट्रेन की रफ़्तार धीमी होने लगी. पूना आ गया था. ट्रेन खड़ी हो गई. हमने ऑटो लिया और विश्रांतवाणी पहुंच गए – चौबे जी की ससुराल.
( जारी )
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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कमाल!