यह मंदिर पिथौरागढ़ से 18 किमी दूर बुंगाछीना की पहाड़ी पर स्थित है. यहाँ वैष्णव मूर्तियों के अलावा शिव तथा नंदा के मंदिर भी हैं. कर्क संक्रान्ति, श्रावण प्रथम मास में हरियाले के मौके पर यहाँ रात का मेला लगता है.
यहाँ नंदा मंदिर के प्रवेशद्वार पर एक पर्दा लगा रहता है. यहाँ मां नंदा के अनवरत रूप में कोई नहीं देख सकता है, पुजारी भी नहीं. इस बारे में किवदंती है कि एक बार मां नंदा इस क्षेत्र में नरभक्षी राक्षसों को मारते हुए इतनी व्यस्त हो गयीं कि उन्हें अपने शरीर की सुध ही नहीं रही. युद्ध के बाद जब वे आराम करने के लिए वहां लेटीं तो उनकी शाटिका के विश्लथ हो जाने के कारण उनका गुप्तांग अनावृत हो गया. माता को उनका कोई पुत्र या भक्त इस रूप में न देख ले इसलिए यहाँ सदा पर्दा लगा रहता है.
मान्यता है मां को इस रूप में देख लेने वाला व्यक्ति अँधा हो जाता है. अतः स्वयं पुजारी भी उनको आँख बंद कर स्नान करवाता है और श्रृंगार-पूजा इत्यादि करता है.
कभी कोई व्यक्ति दुस्साहस या गलती से वहां पहुंचकर पर्दा हटाकर दर्शन न कर ले इसके लिए समूचे मंदिर को बाहर से ढंकने वाला एक मंदिर बना दिया गया है.
इस मंदिर के द्वार के बायीं ओर दीवार पर 3 अधीनस्थ योगियों की मूर्तियों को अंकित किया गया है जिनमें बीच की मूर्ति बड़ी है और उसका स्वरूप वज्रयानी शैली की तिब्बती बुद्ध की मूर्ति जैसा है.
बुन्गाछीना के अलावा इसकी मान्यता जोहार क्षेत्र में अधिक पायी जाती है. वहां इसे वर्षा के अवरोधक देवता के रूप में पूजा जाता है.
गौरतलब है कि बिलकुल इसी तरह की परंपरा पिथौरागढ़ के चंडाक क्षेत्र के छाना गाँव के निकट वैष्णवी मंदिर के विषय में भी देखी जाती है. हरदेवल की तरह यहाँ भी देवी के विग्रह को उसके चारों ओर 3-4 फीट ऊंचे काले संगमरमर की दीवार से घेर दिया गया है.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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