“नतिया, तु पूछण लाग रोछे यो सैणी कमर में के बांधनी?किले जे बांधनी? त यो भै भाऊ पट्ट, कमर में बांधणी पट्ट. येक भौते फैद भै”.
(Hard Life of Pahadi Women)
ये बताते कहते आमा ने अपनी कमर में बांधा करीब ढाई तीन गज के मुलायम धोती जैसे कपड़े का पट्टा उतार कर सामने रख दिया. इसे पुरानी सूती धोती से ही फाड़ कर तैयार किया गया था. कपड़े का यह टुकड़ा पुराना था.कई बार धुल जाने के बाद साफ घिसा हुआ दिख रहा था.
सुबह से शाम तक घर का खेत का, घा पात सारने से लकड़ी सारने और गौर बाछ का हर काम करने वाली औरतों के लुकुड़ों वस्त्रो वेशभूषा का अभिन्न अंग हुआ ये पट्टा.ये सफ़ेद खददर का भी बन जाता तो रंग बिरंगी छींट का भी. ज्यादा ही ठंड पड़ रही हो तो मलेशिया या जूट के कपड़े से भी बस वो नये ज़माने के टेरेलीन टेरीकोट जैसे फुसफुस फिसलने वाले विलेती कपड़े न हों.और न बहुत ही जर्ज़रे जो कमर को किरमोले पिस्सू सा चटकायें.गोखरू से बुड़ें.ये तो बस नरम मुलेम गरम हो.
अब इस पट्टे को कमर में लपेट ऐसे खोंसा जाना होता है कि रीढ़ की हड्डी जहां से शुरू हो, उसके तीन चार अंगुल ऊप्पर का पूरा घेरा ये पूरी मुलायमियत के साथ पकड़ जकड़ में रखे.इस पूरे इलाके की घेर -बाड़ ही कर दे. अब ये बिलेती डॉक्टर लोग जिस कमर पीड़ को स्लिप डिस्क बताते और एस वन से एल वन की गिनती बढ़ाते जाते उसकी नौबत ही न आने देने का इलाज हुआ ये कमर पट्टा.एक हंतरा कई निदान.
(Hard Life of Pahadi Women)
पहाड़ की घर गृहस्थी के कामकाज सब औरतों के हाड़ पर ही टिके हुए. सुबे दिन रात रसोई में हाथ पाँव हिले तो पानी सारने में फ़ौला सर पर रखा. दूध दन्याली पाने को जानवरों के साथ भी काम ही काम. सुबे होते ही उन्हें गोठ से बाहर लाओ. ज्योड़े से बांधो. घास का पूला मुंह के आगे रखो. थोड़ी घा पात लक्कड़ भी सुलगाओ कि बड़े डांसी मच्छर भागें. फिर गोबर साफ कर उनका थोबड़ा खेत तक सारो.फिर लोटे में साफ पानी भर गोर भैंस के थन धोओ. पतेली बाल्टी में दूध लगाओ. उसे आँचल में ढांप रसोई में ला तताओ. अभी रात से जो भट्ट मक्का झुंगर उनके दनेले के लिए रखा है वो बाहर के चूल्हे पे चढ़ाना बाकी है.औरों के खाने खिलाने के लुकुड़े छपकाने के उखल में मडुआ फोकने जैसे हज़ार काम अलग. जोर तो हाड़ मांस की काया पे ही पड़ा.
अपना नहाना धोना तो सुबे ही हो जाने वाला हुआ. बिना नहाए और देबता का दिया जलाये चाय भी न बने. चाय के लिए दूध तौली में उबल तैयार तो फिर रात तक खाने की तैयारी. दाल भात रोटी सब्जी तो रोज के ऊपर से नानतिन हर समय भूकान. पर्व त्यौहार भी एक गया दूसरा तैयार. साफ सफाई भी रोज की ठहरी. गेरू बिस्वार के ऐपण भी डालने हुए. जबतब मंदिर थान जाना भी हुआ.
खेति पाति के मोटे काम तो मर्दों ने पकड़े.तमाम मसीणे जतन सेणियों के जिम्मे हुए. हाथ में कभी कुटला है कभी दराती. वन जाने में ये दराती भी बाज बखत कमर में खुंस जाने वाली हुई. घा पात इसी से कटे. शाख तरासी में यही काम आए. सारे धा पात लकड़ी का बोझ सर से कमर तक पड़ने वाला हुआ. उस पर घर कुड़ि से बन -जंगल तक जाना. कितने किसम के बाटे-डाणे. कभी चढ़ो,कहीं धार, कहीं भ्योल फिर उतार. हर बखत की चुस्ती -फुर्ती. बाघ सुवर से भी बचना हुआ.तरह तरह के कीट झिमोड़ों से भी. ऊप्पर से पतरोल अलग हुआ. इनकी सूंघ लगते ही फट्ट से सरकने के जतन तो करने ही ठेरे. वो तभी हों जब आंग में पीड़ा व्याधि न हो.लचकदार रहे कमर.
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अब सारे काम काज में सबसे ज्यादा वजन तो कमर पे पड़े. ये बोझ भी तो डोटियाल जितना हो जाने वाला हुआ. घा- पात -चारा कोस दो कोस में तो सपड़ता नहीं. कभी तो सुबे गए तो शाम ही हुई. घर पहुँच आंग पड़े सुन्न -झस्स. वो तो कमर में जो पट्टा बंधा इसने रीढ़ सीधी रखी. बड़े ज्ञानी- ध्यानी गुणी बैद कहते नहीं थकते कि हज़ार रोग न घेरें अगर रीढ़ सीधी तने. इस पर उल्टा -सुलटा जोर पड़े तो पहले तो आए चसक और अगर फिर और जोर पड़ गया तो पूरी पीठ ही फड़फड़ाने लगेगी. ऐसे ही पैदा होता है औरतों का हज़ार लक्षणों वाला महा रोग भड़भड़ेट -फड़फडेट. ये कमर के दरद से बिडोव पड़ने वाली दशा के लक्षण. अब कहाँ तक कड़ुए तेल में लाषण भून मालिश हो. इनसे बेहतर ये कि इस छनीचर को टाल लो पहले ही. जतन भी साफ नये से फटे पुराने कपड़े की तीन चार लपेटों में छुपा है बस.
अभी दूसरी आपदा- विपदा भी हुई जतकाली होने के बाद. पहाड़ में हर काम में खूब चलना डोलीना हुआ तो पेट बढ़ने का भैम कम ही हुआ पर जतकाली कितनी ही पज़ीरी खा ले ठन्डे गरम के परहेज कर ले ये झस झस तो बनी ही रहती कि पेट बाहर को न आए कहीं! मेद न चढ़ जाये. इसीलिए जरुरी हुए घाघरा आंगड़ा धोती जो आंग को ठंडे शीत से बचाये रखें तो वहीं कमर का पट्टा भार- वहन में रीढ़ की हड्डी को सीधा रखने स्थिर रखने में तो मदद करे तो करे पेट को भी फैलने लटकने से बचाने का कारगर जतन बन जाये. खुद सैणीयों का स्वयं अनुभूत कथन हुआ कि ‘और तो जे हूं कमर में पट्टू बांधो त कमर पीड़ पुठ पीड़ नी हुनि.. भली के आंग ढक ओड़ राखो त सूजन ले नी हुँ और प्रसूत ले नि चिपटों. बस ठंड गरमेकि फाम धरण भै.’
(Hard Life of Pahadi Women)
पहाड़ में सर्वव्यापी इस पट्टे को कमर में ऊन की लम्बी पट्टी के रूप में रवाईं जौनपुर में “गातर” कहा जाता है. तो सीमांत में टकनौर इलाके में इसका नाम है “पागड़ा”. यहाँ पहाड़ों में जहां खूब ठंड रहती और बरफ काफी पड़ती मर्द लोग भी पागड़ा बांधते जिससे रीढ़ और कमर पर बात का प्रकोप नहीं होता और गर्मी बनी रहती.
जोहार इलाके में घाघरा “घघोर” कहा जाता तो ब्लाउज जैसा “कमौल”और सबसे जरुरी होता “पगौर” जिससे कमर बाँधी जाती. ज्यादातर ये सफ़ेद रंग का होता और दुपट्टे के बराबर चौड़ा पर दुपट्टे से कहीं अधिक लम्बा होता. ऊन की बनी “खोपी”औरतें ठंड से बचने को सर पर पहनती. पहाड़ बचाये सैणीयों णे और उनकी रीढ़ कमर बचाई पट्टे ने.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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Bahut dhanyawad ,rochak jankari ke liye.