हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने: 66
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हल्द्वानी (Haldwani) दूसरे अतिक्रमणकारी वे हैं जो भूमिहीन हैं, भवनहीन है और सरकार से मांग करते आ रहे हैं कि उन्हें भूमि दी जाए. तराई भाबर में एकड़ों वन भूमि पर हजारों लोग इसी मांग को लेकर अतिक्रमण कर चुके हैं. बिन्दुखत्ता का विशाल अतिक्रमण वन क्षेत्र इसका सबसे बड़ा सबूत है. प्राग फार्म कई बार भूमिहीन आन्दोलनों की चपेट में आकर रक्त रंजित हो चुका है. भूमिहीनों का कहना था कि तराई की हजारों एकड़ भूमि जो सीलिंग के अन्तर्गत आती है, आवंटित कर दी जाए. लेकिन वोटों की राजनीति और उन भूमियों पर कब्जा जमाये प्रभावशाली लोगों के कारण जब ऐसा नहीं किया जा सका तो टिड्डियों का सा भूमिहीनों का दल बिन्दुखत्ता के बेशकीमती जंगल को उजाड़ता वहां बस गया.
पुलिस और वन विभाग के साथ कई बार खूनी संघर्ष भी इस क्षेत्र में हुआ और राजनैतिक हस्तक्षेप भी भूमिहीनों के हौसले बुलंद करता रहा. इसी तरह काठगोदाम के पास हाइडिल कालोनी के पास भी लोग बस गए और अब इन अतिक्रमित क्षेत्रों को राजस्व गांव घोषित करने की घोषणायें कई चुनावों को पार कर चुकी है. इसके साथ ही यह सवाल भी पैदा हुआ कि इन हजारों-हजार लोगों को जंगल बचाने के नाम पर उजाड़ा जाना भी उपयुक्त नहीं होगा और एक नया नारा पैदा हुआ -‘आदमी जरूरी है या जंगल’. यह एक लम्बी बात-बहस का विषय है. बहरहाल इस तरह का अतिक्रमण भी एक अतिक्रमण है.
इसी तरह के अतिक्रमण की प्रक्रिया में जनवरी 1989 के अन्तिम सप्ताह वर्तमान कांग्रेसी सांसद प्रदीप टम्टा जब वे उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के सक्रिय व जुझारू कार्यकर्ता थे, को कोटखर्रा में भूमिहीनों के लिए वन भूमि पर कब्जा करते हुए पुलिस द्वारा बुरी तरह पीट-पीट कर घायल कर दिया गया और वे हल्द्वानी अस्पताल में इलाज कराते रहे. अस्पताल से ही उन्होंने मुझे याद कर अपने पास बुलाया. उन्होंने कहा कि उन पर किया गया हमला आदिम युगीन कबीलों की आपसी लड़ाई की याद दिलाता है. उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में तस्करी, जंगल चोरी, जमीन हड़पने वाले गिरोहों का जाल व्याप्त है, जिसमें स्वंय वन विभाग के अधिकारी लिप्त हैं, लेकिन गरीब भूमिहीनों के ऊपर अतिक्रमण हटाने के नाम पर जो जुल्म किया गया वह वर्तमान व्यवस्था का नंगा चित्र है.
इससे पूर्व समाजवादी पार्टी के प्रमुख नेता नन्दन सिंह बिष्ट व श्रीमती बसन्ती बिष्ट भी लोगों को सर छिपाने के लिए किए गए भूमि आन्दोलनों में कई बार जेल गए. कालाढूंगी रोड पर और हीरानगर में गुसाईनगर तथा अन्य कई स्थानों पर इसी तरह कब्जा कर लोग बस गए. बहरहाल इन भूमिहीनों को कहीं-कहीं पट्टे भी दे दिए गए. इसी तरह आपातकाल के दौरान मुखानी कालाढूंगी रोड स्थित एक बड़े बंजर भूखंड में भूमिहीनों को बसाने का एक अभियान चला. मैं भी उस अभियान में शामिल हुआ. यों वह लीज वाली भूमि थी, जिसकी लीज भी समाप्त हो चुकी थी. उक्त भूमि को लीज की तमाम शर्तों का उल्लंघन कर बेच दिया गया था.
इस भूमि पर कब्जा करने वाले लोग तमाम कानूनी पहलुओं से अनभिज्ञ थे और भूमि को अपना बताने वाले भारी असरदार. उन्होंने पुलिस व लड़ाकू मजदूरों की सहायता से भूमि पर से अतिक्रमण हटा डाला और हम सब 53 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
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इस अभियान में तत्कालीन जिला कांग्रेस अध्यक्ष भोला दत्त पांडे के पुत्र सुरेश पांडे व अन्य कांग्रेसी भी शामिल थे इस लिए हम सब पर डीआईआर के तहत कार्यवाही नहीं की गई और जमानत पर छोड़ दिया गया. किन्तु भूमि की कानूनी पेचीदगियों से यहां के अधिवक्ता वर्ग को भी अनभिज्ञ मैंने पाया. यदि वह इन पेचीदगियों को समझने का प्रयास कर रहा होता तो आज भी नगरवासियों के सिर पर लीज के नियमों की तलवार न लटक रही होती, किन्तु अंग्रेजों के समय से चले आ रहे तमाम अन्य कानूनों के अलावा भूमि सम्बंधी कानूनों पर चिन्तन करने की कोई कोशिश नहीं कर रहा है.
दो पक्षों के बीच हुए इस भूमि विवाद पर दोनों पक्षों को शान्ति भंग के आरोप में गिरफ्तार किया जाना चाहिए था और भूमि विवाद पद कानूनी प्रक्रिया से कार्यवाही होनी चाहिए थी. किन्तु ऐसा कुछ इसलिए नहीं हो सका क्योंकि कोई वकील इस पेचीदा मामले को अपने हाथ में नहीं लेना चाहता था. यों भी असरदार लोगों के इशारे पर ही सारी व्यवस्थायें हांकी जाती रही हैं.
इसी तरह नगर के मुख्य मार्गों पर खाली पड़ी कैनाल विभाग, लोक निर्माण विभाग, रेलवे आदि की भूमि पर कच्चे फड़ बनाकर लोगों ने अपना व्यवसाय शुरू कर दिया और नगरपालिका ने तहबाजारी इनसे वसूलनी शुरू कर दी. यद्यपि तहबाजारी सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही हुआ करती है. इसके बाद व्यवसायी को वहां से हट जाना होता है किन्तु चलते फिरते ठेलों के अलावा लोग अपना मुस्तकिल कब्जा जमा लिया करते हैं. यह भी एक प्रकार का अतिक्रमण ही है किन्तु रोजी-रोटी के लिए किए गए इस अतिक्रमण को एक प्रकार से मान्यता जैसी मिल जाती है.
किन्तु हद तो तब पार हो जाती है जब वही अतिक्रमणकारी अपने हाथ-पैर पसार कर सड़क घेरना शुरू कर देता है, यातायात में बाधक बनने लगता है और तमाम तरह की बाधायें उत्पन्न करने लगता है. इस तरह के अतिक्रमण के लिए जिम्मेदार कौन है, यह भी एक विश्लेषण का विषय है. अतिक्रमणकारी तो जिम्मेदारी है ही इसके अलावा सरकारी अमला, नगरपालिका और राजनैतिक हस्तक्षेप भी इस अव्यवस्था के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं.
इसके अलावा शहर की उन बाजारों में जहां चालीस-चालीस फुट की चौड़ी सड़कें हों और आम पैदल आदमी को भी चलने में परेशानी हो, अपनी तमाम हदें पार कर दुकानदार शहर को बदसूरत बना डालें और बदइंतजामी का राज हो जाए तो इसे क्या कहेंगे. इस बदइंतजामी से परेशान हाल हर व्यक्ति अतिक्रमण हटाने का शोर तो मचाने लगता है और चाहता है कि उसे बचा कर अतिक्रमण हटाया जाए.
ऐसी स्थिति में कई बार नगर प्रशासन पुलिस की मदद से अतिक्रमण हटाने का प्रयास तो करता है लेकिन शाम की रोटी जुटाने वाले छोटे दुकानदारों, ठेले वालों पर इस अभियान की गाज गिरती है और सीधा-साधा संदेश आम जनता तक जाता है कि व्यवस्था गरीबों को उजाड़ रही है और असरदार लोग हमेशा की तरह बच जाया करते हैं. यही बात तत्कालीन जिलाधिकारी के संज्ञान में भी आयी और उन्होंने सबसे पहले बड़े अतिक्रमणकारियों को हटाने का बीड़ा उठाया. उन्हेांने समाज के तमाम असरदार लोगों, वन-भू माफियों, असरदार सरकारी बकायेदारों की सूची जारी की, राजनैतिक हस्तक्षेप की परवाह किए बगैर जब उन्होंने अतिक्रमण हटाना शुरू किया तो राजनैतिक संरक्षण प्राप्त लोग नगर छोड़ कर ही भाग गए.
माना कि बड़े लोग अतिक्रमण हटाने जाने से अधिक प्रभावित नहीं हो पाते हैं और छोटे व्यवसायी के सामने भूखों मर जाने की स्थिति पैदा हो जाती है, किन्तु जिलाधिकारी द्वारा बड़े लोगों पर हाथ डालने के कारण असली प्रभावित तबका उनके पक्ष में हो गया. उसे अपने उजड़ जाने का दुःख नहीं था उसे दबंगई पर अंकुश से खुशी थी. वह उनके इस आश्वासन से भी संतुष्ट हो गया कि उन्हें पुनर्वासित किया जाएगा और नगर का जो भी व्यक्ति यह समझता था कि उसने कितना अतिक्रमण किया है, स्वयं छेनी-हथौड़ी लेकर रात-रात दिन-दिन तोड़ने में लग गया. प्रशासन ने जहां-जहां बुलडोजर लगा कर अतिक्रमण हटाए उससे भी अधिक लोगों ने शहर को अतिक्रमण मुक्त स्वयं करने का अभियान छेड़ दिया.
नित्य ही जिलाधिकारी सांय 5 बजे पत्रकारों से वार्ता करते, दिन भर की उपलब्धियां बताते कि कितने माफियागर्द लोगों को चिन्हित किया गया, कितनों पर कार्यवाही की गई और कल क्या-क्या होगा. उन्होंने शहर के तमाम ऐसे सफेदपोशों के नाम व उनकी करतूतों का पर्दाफाश करना शुरू कर दिया जिन पर सहज ही विश्वास नहीं होता था. लेकिन जब उनकी करतूतों की फेहरिश्त के साथ वे बताते कि इन पर अब क्या कार्यवाही होगी तो ऐसे लोगों का घर से निकलना ही बन्द हो गया. उजड़ गए फड़ व्यवसायियों के लिए कालाढूंगी रोड, नैनीताल रोड, आदि कई स्थानों पर पक्की दुकानें बहुत सस्ते में नगरपालिका के माध्यम से बनवायी गयीं.
उन दिनों हर कार्यालय चुस्त-दुरूस्त हो गया, जिलाधिकारी का भय कामचोरी और भ्रष्टाचार के भूत को भगा गया. उजड़ जाने के बाद भी आम लोगों को लगा कि उन्हें उनका ‘सुराज’ मिल गया है. लेकिन अराजकता पसंद एक गिरोह ‘त्राहिमाम्-त्राहिमाम्’ करता हुआ नारायण दत्त तिवारी के दरबार में लखनऊ पहुंच गया और जिलाधिकारी सूर्यप्रताप सिंह का तबादला हो गया. उनके तबादले की सूचना पाते ही नगर में भारी अफरातफरी फैल गयी. लोग नारायण दत्त तिवारी को गालियां बकते, उनके पुतले फूंकते सड़कों पर उतर आए. इस तरह की अफरातफरी तीन दिन तक सड़कों पर छाई रही और इसके बाद नगर की व्यवस्था, अतिक्रमणों का हाल, अराजकता और नेतागर्दी, माफियागर्दी सब ‘पुनर्मूषको भव’ की स्थिति प्राप्त कर गयी.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर\
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