कुषाण शासन के विघटन के उपरान्त उत्तर भारत में जिन राजाओं ने अपने छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित किए उनमे से एक का नाम घटोत्कच गुप्त था. गुप्त वंश का संस्थापक इन्हीं को माना जता है. कुछ इतिहासकार इस वंश के संस्थापक श्री गुप्त को भी मानते है. उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त और पौत्र चन्द्र प्रथम था. इस वंश के राजाओं के जो अभिलेख प्राप्त है उनमें महाराज श्री गुप्त महाराज घटोत्कच गुप्त और महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त लिखा मिलता है.
श्री गुप्त का उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग (671-695) ई ने किया है. उसके अनुसार चीन से भारत की ओर आने वाले यात्रियों के लिये श्री गुप्त के द्वारा पांच सौ वर्ष पूर्व बनाया गया एक मन्दिर उसे मिला था.
घटोत्कच और कुमाऊँ – घटोत्कच का नाम काली कुमाऊं के प्राचीन इतिहास के संदर्भ में भी हुआ है. आज भी काली कुआऊं की धारा में घटोत्कच का मन्दिर है और वहां घटकु एक देवता के नाम से पूजा जता है.
घटोत्कच का काली कुमाऊं का मन्दिर चम्पावत से एक मील पूर्व पुनगाड (फुंगर) के पास स्थित है. जनश्रुति के अनुसार घटोत्कच भीमसेन (पांडव ) की राक्षसी पत्नी हिडिम्बा का पुत्र था. उसे अंग देश के राज कूर्म ने पराजित करके मार डाला. अपने पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिये भीमसेन काली कुमू आये और उन्होंने इस स्थान पर स्थित सरोवर को तोड़कर लधिया (लोहावती) नदी का रूप दिया.
यद्यपि यह कथा पौराणिक भीम से सम्बन्धित है किन्तु अंग राजा का उल्लेख महत्वपूर्ण है और घटोत्कच के ऐतिहासिक व्यक्तित्व का लक्षण है. उसे सामन्त होने का एक और प्रमाण निकट ही डोमकोट के अति प्राचीन दुर्ग के अवशेषों से भी मिलता है.
श्री गुप्त के पूर्वज ब्रात्य – चन्द्रगुप्त के सिक्कों में एक कुमारदेवी की आकृति भी उत्कीर्ण है. उसके अधिकांष अभिलेखों में उसे लिच्छवि वंश की कन्या से विवाहित कहा गया है. यह मानो बड़े गौरव की बात है. इस विषेशण से लगता है कि वह लिच्छवि लोगों से भी नीच जाति का था. ईसा पूर्व की पांचवी -छठी सदी में उत्तर भारत के गणतंत्रो में लिच्छवि गणतत्र सुप्रसिद्ध था. कौटिल्य ने लिच्छवि गणराज्य को ‘राजशब्दों पजीव संघ’ कहा है अर्थात राज्य के कुछ प्रतिनिधियों द्वारा शासित संघ- जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त थे- डा राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार -लिच्छवी राज्य का शासन आठ या नौ सदस्यों की समिति करती थी.
मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रिय ब्रात्यों (संस्कार हीनों ) से उत्पन्न लोग, झल्ल-मल्ल, लिच्छवि, नट, कान और खस हैं. इसी स्मृति के अनुसार वैश्य पिता और क्षत्रिय माता से उत्पन्न संतान मागध कही जाती है.
डा एस बी विद्याभूषण लिच्छवि लोगों को पश्चिम एशिया (ईरान) से आकर हिमालय में बसी हुयी जाति कहते हैं. स्पष्ट है कि यह जाति कस्म जाति समूह की उन असुर अथवा शूद्र कही हुयी जातिययों में से एक होगी जिन्हें पश्चिम एशिया से निर्वासित होकर हिमालय की उपत्यका में आकर बसना पड़ा होगा. इस प्रकार घटोत्कच को राक्षस या असुर कहा जाना उसके पश्चिम एशियाई खस अथवा उसके सम्बन्धी असुर जाति का वंशज होने का द्योतक है. चन्द्रगुप्त के साथ महाराजाधिराज आस्पद का लगना प्रमाणित करता है कि उसका विवाह लिच्छवि वंश के साथ होने से उसे मगध का राज्य भी मिल गया होगा. तदन्तर चन्द्रगुप्त और कुमार देवी के सम्मिलित शासन के सिक्के प्रचारित किए गए होंगे. काली कूमाऊं के मगध के साथ दुलू (नेपाल) के माध्यम से परम्परागत सम्बन्ध के प्रमाण कराचज देव के उस अभिलेख से भी मिलते है. जिसका उल्लेख आगे किया गया है.
( जारी )
(श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ के अंक-11 से साभार तिलाराम आर्या के आलेख के आधार पर )
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