भाबर के गांवों में टैक्टरों के कारण बैल रखने तो लोगों ने अब खत्म ही कर दिये हैं. दूध के लिये लोग गाय की अपेक्षा भैंस पालना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उसके दूध में फैट ज्यादा होता है और डेयरी में उसकी कीमत ज्यादा मिलती है. हर रोज दूध का फैट नापा जाता है. जिस मात्रा में फैट होता है उसी के अनुसार दूध की कीमत लगती है. गाय व बैलों को न पालने से गांव में अब दीपावली के बात गोवर्धन पूजा उस उत्साह के साथ नहीं होती जैसी कि पहले होती थी. दीवाली के अगले दिन मनाये जाने वाले गोवर्धन पूजा की जिम्मेदारी तब एक तरह से बच्चों के पास होती थी. बड़े लोग गाय व बैल को टीका लगा देते थे. उसके बाद का काम बच्चों का होता था. हर गाय व बैल के लिये फूलों की माला बनायी जाती है. जिसे उनके गले में बांधा जाता है. उससे पहले एक थोड़ा गहरे बरतन में बिस्वार का थोड़ा गाढ़ा घोल बनाया जाता है. यह चावल के आटे या चावल को भीगाने के बाद उसे पीस कर बनता है. उसके बाद माड़े (खाना बनाने के लिये चावल को मापने का बरतन, जिसमें लगभग पाव भर चावल आते हैं) में धन (+) के आकार में एक मोटा धागा बॉधा जाता है. उसके बाद उसे बिस्वार में डूबो कर गाय व बैल के पूरे शरीर में उससे ठप्पे लगाये जाते हैं. जिसे “थाप लगाना” कहते हैं. इसकी शुरुआत टीका लगाने के बाद गाय व बैल के माथे से की जाती है. जब बिस्वार के ठप्पे सूख जाते हैं तो गाय व बैल एक अलग ही रंग के नजर आते हैं. काले व भूरे रंग की गाय तो सफेद ठप्पों में और भी ज्यादा सुन्दर लगती है. ये ठप्पे तीन – चार दिन तक गाय व बैल के शरीर पर रहते हैं.
आज के दिन कुमाऊँ के हर घर में च्यूड़े भी बनाए जाते हैं जिन्हें अगले दिन दूतिया त्यार के दिन घर की सयानी महिलाएँ परिवार के हर सदस्य के सिर में चढ़ाती हैं. गोवर्धन पूजा के अगले दिन भी गाय व बैलों की पूजा की जाती है. उस दिन उनके सींग में सरसों का तेल लगाकर उन्हें चमकाया जाता है. उसके बाद टीका लगाकर उन्हें च्यूड़े चढ़ाये जाते हैं. मतलब ये कि जिस प्रकार घरों में बड़े लोग अपने से छोटे के सिर में दूब से सिर में तेल लगाने के बाद च्यूड़े चढ़ाते हैं, वैसा ही गाय व बैल के साथ भी किया जाता है. एक तरह से गाय को इतना सम्मान दिया जाता था कि उसे भी त्यौहार में अपने ही बराबर का महत्व दिया जाता था. गाय के साथ इस तरह त्यौहार मनाने की परम्परा शायद ही और कहीं रही हो ! अब गांवों में गायें ही नहीं हैं तो यह परम्परा भी एक तरह से विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हो गयी है.
दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है. लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं. इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है. इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है. इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है. गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है. शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा. गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है. देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं. इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है. इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है. गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की.
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे. सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी. तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा.
गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है. कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था. इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं ने एक लीला रची. प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे. श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया ” मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं ” कृष्ण की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं. मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं? मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है. भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए.
लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोर्वधन पर्वत की पूजा की. देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी. प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है. तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया. इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी. इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें.
इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया. ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं. ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा. आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें. इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया.
इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोर्वधन पूजा की जाने लगी. बृजवासी इस दिन गोर्वधन पर्वत की पूजा करते हैं. गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है. गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है.
जगमोहन रौतेला
विविध विषयों पर लिखने वाले जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. काफल ट्री पर उनकी रचनाएँ नियमित प्रकाशित होती रही हैं.
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