गुडी गुडी डेज़
अमित श्रीवास्तव
बतखोर चा का सपना
(बतखोर चा की झूठी डायरी का पन्ना जो उन्होंने जान-बूझकर हवा में उड़ाया था, कल हाथ लग गया. पाठकों को हिदायत दी जाती है कि इसे पढ़कर अपने रिस्क पर ही अपने इतिहास बोध में टांकें लगाएं.)
दिनांक- एक एक इक्यानबे
स्थान- गुडी गुडी
भयानक थी रात. बहुत काले बादलों वाली. आंधी-तूफ़ान के साथ बारिश आनी चाहिए थी लेकिन एक सपना आया. बिलकुल मध्यमवर्गीय सपना. देखा कि देश राशन की लाइन में खड़ा है. पसीने से तरबतर. अपनी बारी आने का इन्तजार कर रहा है. उधर सरकारी लाला तौल रहा है, हाथों से राशन और नजरों से लाइन में खड़ी महिला की लम्बाई-चौड़ाई.
बड़ा ही मल्टी- फैसेटेड टाइप का लाला है. कहते हैं मल्टी लैटरल काम हैं इसके. अपनी भाषा में नवाजें तो सर्व गुण संपन्न. चीनी भी देता है, मिट्टी का तेल भी, गेहूं, चावल सब. पेट पालने भर की सब जुगत. मुझे तेल लेना था. (सपने में, कम से कम सपने में तो ऐसा जुगाड़ होना चाहिए कि `मै’ `देश’ समझ सके खुद को). पिछले कई महीनों से अड़ोसी से कटोरियाँ भर भर के चीनी उधार मांग रहा था और पड़ोसी से बोरियां भर भर के गेहूं. उन्होंने कहा इसके बदले तेल चाहिए उन्हें. मेरा पीपा सूख चला था सो उन्हें देने के लिए तेल चाहिए था मुझे. हमारे यहाँ अभी भी बार्टर सिस्टम लागू था. हम बिटिया देते थे बहू लाते थे. लेने देने में हमेशा उत्पाद बदल जाता था. हमने बिटिया लाने का या बेटा देने का कभी नहीं सोचा. कम उपयोगी चीज़ थी.
मेरा नंबर आ गया था, मैंने लाला को याचक की दृष्टि से देखा और खाली पीपा उलट दिया. लाला अदा से मुस्कुराया. मुस्कुराने की उसकी ये शैली थोड़ी नयी थी. लाला को जिन्होंने लाला बनाया था ये अदा भी उन्होंने ही सिखाई थी. इसमें भ्रूस्मिति का ज्यादा रोल था. होठों से ज्यादा ये भौहों की सिधाई और टेढ़ाई से मापी जाने वाली थी. इसी के आधार पर मोटे तौर पर उसने तीन तरह के ग्राहक बना रखे थे. पहले तो वही थे जो ग्राहक कम लाला के मालखाने के साझीदार अधिक थे. उनके लिए मुस्कराहट में कोई वक्रता नहीं थी. दूसरे मेरी तरह के थे जो खालिस मध्यमवर्गीय मानसिकता से लैस किसी काल्पनिक विकास रेखा के पार जंप लगाने के लिए पोल-पाईप के जुगाड़ में थे. मजे की बात कि इस काल्पनिक रेखा की ऊंचाई भी लाला या उसके गुर्गे तय करते थे फिर अकौर्डिंगली पोल वोल भी वही सप्लाई करते थे. तीसरे प्रकार के ग्राहक काफी नीचे गहराई में थे. उन्हें बाहर लाने जैसा पुण्य का काम लाला का `कारपोरेट सोशल रिस्पौन्सिबिलिटी’ जैसा था जिसके नाम पर बहुत सारी काली दाल पीली हो जाया करती थी.
`तुम्हारा अभी नया खाता नहीं खुला है. पुराना हमने सब क्लोज कर दिया है. के वाई सी भरो, गारंटर लाओ, नया खाता लो तब उधार की बात करो.’ लाला ने भौहों को थोड़ा टेढ़ा करते हुए कहा.
`पर मेरे पास तो कोई गारंटर नहीं है. ये मेरा डेबिट-क्रेडिट स्टेटमेंट है, अगर इसी से कुछ…’ मैंने अपनी आवाज़ में घबराहट महसूस की, लाला ने तो उसका घनत्व भी माप लिया.
`पर तुम तो ओवरड्राफ्ट हो चुके हो.’
`क्या करें सर इतने लोगों का पेट पालना पड़ता है.’ मैंने खालिस मध्यमवर्गीय इमोशनल पञ्च मारा.
`अच्छा ठीक है – ठीक है’ लाला ने गंभीरता की चादर ओढी जिसके अंदर उसने उस तोंद को छिपाने का प्रयास किया जो पोषण-विकास-सहायता के बोरों से झरे अनाज का स्टॉक था. `करते हैं कुछ तुम्हारे लिए, बस तुम्हारी खातिर हाँ…’ हालांकि यही बात उन्होंने कलुआ, बबुआ और नटुआ के लिए भी कही थी. `हम करेंगे तुम्हारी सहायता बस छोटे-मोटे स्टेप्स उठाने होंगे तुम्हें.’ अब लाला भौहों की वक्रता अबूझ हो चली थी.
मैंने अपना दाहिना स्टेप उठाया `नहीं… अरे ऐसे नहीं’ लाला ने कहा `देखो ये कुछ कठोर कदम हैं जो अपना हाजमा दुरुस्त करने को तुम्हे उठाने ही पड़ेंगे वर्ना…’
मरता `क्या’ न करता के साथ `क्यों’, `कितना’, `कब तक’ भी शामिल था मेरी मजबूरी में. लाला ही भगवान नजर आ रहा था. अनेक अनेक रूपों में. `प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ वाला मामला हो गया `जी बताएं…’ मैंने कहा
`अव्वल तो आपके पेड़ों की ट्रिमिंग माँगता है. कांटना पड़ेंगा, छांटना पड़ेंगा. उदर प्लेन में बाहर से मंगाकर कुछ घास लगाना पड़ेंगा.’ लाला ने माली के भेस में बदलते हुए कहा
`पर वो तो कॉंग्रेस ग्रास है बाहर, जहां लगेगी अपने अलावा सब खत्म कर देगी.’
`वहम है तेरा बच्चा… सबको उगने बढ़ने का अधिकार हो कहीं भी कभी भी.’ लाला अब बाबा रणपकड़ दास हो गया था.
`वो तो ठीक है बाबाजी लेकिन ये उन आवश्यक ज़रूरी जगहों पर भी उग जाती है… हम दिशा-मैदान को भी न जा सकेंगे.’ मैंने अपनी शंका (जो लघु-दीर्घ के सम्बन्ध में थी मात्र इसी बात से दीर्घ न थी) जताई.
बाबा ने अपनी ललछौर आँखें तरेरीं -`तू यहाँ कुछ पाने आया है या उपदेश देने?’
मैंने उपदेश लेना बेहतर समझा क्योंकि उसके साथ तेल मिलने की संभावना थी. बाबा ने उपदेश देकर देश ले लिया. खैर !
`मेरा दूसरा इसरार है राधारानी’ मेरी झपकी मारने भर के वक्फे में लाला, कन्हैया लाल हो चुका था. कन्हैया लाल ने ऐनक ऊपर चढ़ाई और कहा `ज़रा अपने घर में थोड़ी जगह तो बना वहाँ हाट-बाजार-मंडी से कुछ लोग आयेंगे. सब अपने ही बंधु हैं राधारानी’
`पर ये तो मेरा घर है यहाँ बाजार…’ मेरी आँखें चुंधिया रही थीं शायद नाम का असर था. असल में वो चोंधी शीशे के गिलास से लग रही थी जो मैकमोहन बन चुका लाला के हाथ में था.
`घर में बाजार या बाजार में घर ये सोचना अब सरजूडा का काम है. सरजूडा ये कह रहे हैं कि रात खाने पर चाचा-काका-ताऊ के बच्चे आयेंगे उनके लिए बंदोबस्त रखना. मतलब गेटपास, कूपन सूपन मत मांगना’ मैक मोहन ने गिलास बजाते हुए कहा.
`पर सर ये तो इतने मालेमस्त हैं, इतनी कमाई है, दोनों हाथ मलाई है फिर यहाँ क्या पाने आयेंगे, हमारी सूखी रोटी खाने आयेंगे’? घबराहट में मैं तुकबंदिया हो चला था.
`हाँ तो मेहरबान, कदरदान (ओ मेरे विशाल पीकदान) आपने अपने आप को नहीं पहचाना, अपनी ताकत को नहीं जाना, अब ये लोग जमूरे का स्वांग रचाएंगे, इसी सूखी रोटी से लहसुनिया नान बनाएंगे. इसी से पानी, पेप्सी, लस्सी, चाकू, बल्लम, रस्सी, इसी से खिलौने, टीवी, मकान, कमीज, पैन्ट, बनियान सब इसी से बनाकर दिखाएंगे ऐसे कि आप अपनी शकल, इनकी नक़ल, रॉ मैटेरियल कुछ भी पहचान नहीं पाएंगे. हाँ तो जमूरे खेल दिखाएगा…’ उस्ताद मुंह बना बनाकर बोलता रहा. मै सर के बाल नोचता रहा क्योंकि जाने क्या घालमेल था कौन जमूरा बन गया था कौन उस्ताद समझ नहीं आ रहा था. मैं गिडगिडाने पर आ गया
`पर माई-बाप हमारी औलाद… उनका क्या होगा… एक जो खलिहानों में खाद-पानी के इन्तजार में टेसुएँ बहा रही है, एक उधर दिहाड़ी के पैसों से इकाई-दहाई गा रही है, वो जो ठेले-खोमचे गली मुहल्ले में है, वो जो पायदान के निचले तल्ले में है. सब पिस जाएंगे, भूखे मरेंगे ये तो बहुत बड़ा लगान है मी लॉर्ड’ कहते-कहते मैंने सामने देखा न उस्ताद था वहां न ही कोई चेला बल्कि हाथ पीछे बांधे एक अंग्रेज मुस्कुरा रहा था.
`टुम हमको बातों में क्यों फंसाता मैन, हमारे यहाँ भी कीड़े-मकोडों का कोई फ्यूचर नईं होटा. एक वो जो हमारे से टक्कर लेने को आया वो कीड़ों को सहेजता टा, सबको बराबर रोटी की बाट करटा टा, अबी कहाँ है बोलो, टुकरा-टुकरा होकर बिखर गया ना. टुम हमारी बाट मानों तो टीक वर्ना टुमारे पास ऑप्शन बी क्या है.’ एंड्रू रसेल ने मूंछे हिला-हिला कर आख़िरी चेतावनी सी दे डाली.
मुझे वास्तव में लग गया कि मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है. मैंने लाला की सारी बातें मान लीं, पड़ोसियों का कर्जा जो चुकाना था. मैंने हामी में सिर ऊपर-नीचे किया और दाहिना हाथ उठा दिया. अगला आदेश लेना था लाला से लेकिन लाला अपनी गद्दी पर जा बैठा था. गद्दी ज़मीन से कई फिट ऊंची हो गई थी. उसपर एक बहुत क्रूर चेहरे वाला टेढ़ी मुस्कान के साथ बैठा दिखा.
`मोगैम्बो खुश हुआ.’ उसने ग्लोब पर त्रिताल सा बजाया और आदेश दिया. `मिस्टर इंडिया… तेरी जादू की घड़ी मेरे कब्जे में है… तेरा समय, तेरा वर्तमान मेरे कब्जे में है, तेरा तारीखों वाला कैलेण्डर मेरे कब्जे में है… तेरा इतिहास मेरे कब्जे में है, तेरे सारे बच्चे मेरे कब्जे में हैं… तेरा कल मेरे कब्जे में है. तेरे घर में अब मेरे गुर्गों का राज चलता है. तू अब `लाल’ क्या सफ़ेद, केसरिया, हरा किसी भी शीशे से दिखाई नहीं दे सकता इसलिए तू अब गायब हो जा… गायब हो जा तू…’
और फिर एक झटके के साथ मेरी आँख खुल गई. मैं पसीने से तरबतर. ये सोचता रहा कि कैसी अजीब डिज़ाइन का सपना था. न सिर पता चल रहा था न पैर! सुबह नहीं हुई थी. मैंने एक गिलास पानी पिया और सिर-पैर ढूंढने को दोबारा आँखें भींच लीं .जानने के लिए कि आगे लाला ने और कौन से भेस धरे… सपने में ही सही हमारे दिन बहुरे या नहीं… और राशन…
घनश्याम
नोट- जो लोग ये जानना चाहते हैं कि सपने में आगे क्या हुआ वो यही जान लें कि देश में पीछे क्या हुआ.
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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