गुडी गुडी डेज़
अमित श्रीवास्तव
बॉबी चचा के जज़्बात @ मौक़ा-ए-वारदात
गुडी गुडी मुहल्ले में एक पुलिस थाना खुला और जैसा कि होना चाहिए उसके खुलते ही वहां अपराध बढ़ने लगे. कुछ लोग इस घटना को ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ जैसे जुमलों से जोड़ते हैं लेकिन है ये विशुद्ध सांस्कृतिक सहजीविता का नमूना. आवश्यकता और आविष्कार दोनों की सबसे ख़ास बात और सहजीविता यही है कि दोनों ‘आ’ से शुरू होते हैं.
अपराध रोकने के बहुत से तरीके अपनाए गए जिसमें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक एनकाउंटर लगभग इसी क्रमानुसार उल्लेखनीय हैं. चूंकि हम पुरातन समय से ही सबकुछ ठोंक बजाकर पक्का करके चलते हैं इसलिए सबसे पहले शारीरिक वाला तरीका अपनाया गया. इससे हुआ ये कि बहुत से अस्पताल खुल गए जिसमें पीड़ित का इलाज कम पुलिस वालों का ज़्यादा हुआ और जिसे विभिन्न अधिकार संगठनों के रूप में पहचाना गया, लेकिन अपराध का बढ़ना जारी रहा. फिर ये प्रयास किया गया कि लोगों की सामूहिक चेतना की मरम्मत की जाए. अपराध को अपराध की तरह नहीं बल्कि सुधार आन्दोलन की तरह लिया जाए. इसका असर ये हुआ कि अपराध की गलियों से विभिन्न रास्ते निकले और सत्ता के गलियारों तक जाने लगे. इस सुधार से अपराध का ग्राफ तो नीचे नहीं आया अपराधी और सयाने वाली विभाजक रेखा गड्डमगड्ड हो गई. उसे समझने के लिए अब आध्यात्म का ही सहारा था. उसी के सहारे चढ़कर थाने के हवालात की सीलिंग पर एक अदृश्य सूत्र लिखा, पाया और अपनाया गया जिसे लेटे-लेटे पढ़ा जा सकता था- ‘चौर कर्म कर्तव्यम तौ मर्तव्यम, चौर कर्म ना कर्तव्यम तौ मर्तव्यम, त्वं किं कर्तव्यम!’ मतलब ये कि कुछ करो ना करो कुल मिलाकर इस गलत संस्कृत की तरह कबाड़ा तो होना ही है. अपराध तो बढ़ने थे बढ़ते ही गए.
बहुत चिंतन मनन और तीनों लाइफ लाइन जाने के बाद ये बात निकली कि एक्सपर्ट एडवाइस लेते हैं और दुनिया की सबसे बेहतरीन पुलिस से सहायता लेते हैं. किसी ने चाँद से पुलिस बुलाने का प्रस्ताव रक्खा जो सिरे से खारिज हो गया क्योंकि वहां तो एक ज़माने में हमारे मातादीन पेक्ट्सा ही गए थे और उन्हें पुलिसिंग के गुर सिखा कर आए थे. पाया गया कि स्कॉटलैंड यार्ड इस धरा पर उस्ताद है. झट से अनुरोध पत्र भेजा गया जो फट से स्वीकार कर लिया गया. उसकी स्वीकृति की सूचना के पहले ही मि. बॉबी थाने पर उपस्थित पाए गए. इसी बात से उनके काम शुरू करने से पहले ही उनकी कार्यप्रणाली पर शक भी पैदा हो गया. जितने समय में हमारे यहाँ फ़ाइल एक टेबल से दूसरे तक पहुँचने के बारे में स्वतः संज्ञान ले उनके वहां काम हो गया. अजीब निष्ठुर लोग हैं ये. सिल्वर फिश और दीमकों का ज़रा भी ख्याल नहीं रखते?
थाने के मौजूदा थानेदार साहब ने उनको कोई अदृश्य सी लुकाठी थमाई जिसे कागज़ी भाषा में चार्ज कहा गया और लम्बी छुट्टी पर चले गए. इस बारे में कोई विवाद नहीं हुआ कि चले गए या भेजे गए. बॉबी चा के जज़्बात उफन उफन कर आ रहे थे. पहली बार उन्हें किसी दूसरे देश की धरती पर अपना पेशेवर अंदाज़ दिखाना था. बहुत कुछ सिखाना था इन्हें. जल्द शुरुआत करनी होगी सोचकर अभी लुकाठी को अलट-पलट ही रहे थे मतलब थाने के अपराध, अपने शस्त्र और उपलब्ध शास्त्र का अध्ययन कर ही रहे थे कि उनकी मेज के दाहिने कोने पर रक्खे यंत्र, जिसे शारीरिक सौष्ठव के हिसाब से टेलीफोन कहा जा सकता था, में घरघराहट होने लगी. बॉबी चा की निगाह और उसके साथ-साथ ध्यान और उसके साथ-साथ हाथ उस तरफ खिंच गए. इस यंत्र को देखकर विश्वास होता था कि सूचना प्रौद्योगिकी का कुछ और नहीं बल्कि विस्फोट ही हुआ होगा. क्योंकि इतनी टूट-फूट उसी में सम्भव है. चोगा उठाने के बाद भी उसमें घरघराहट ही होती रही. थाने के प्रसिद्ध घुभाषिए हेड मुहर्रिर ललपा बुलाए गए इस घरघराहट को समझने के लिए. लल्लन पांडे संयोग से दुभाषिये भी थे जिन्हें बॉबी चा को नीड टू नो बेसिस पर मतलब की बात बताने और उनकी क्वामा, फुलस्टॉप के साथ बोली गई हर बात का मतलब की भाषा में तर्जुमा करने का काम भी सौंपा गया था. उन्होंने बताया कि झगड़पुरी तिराहे से दाहिने तीन मकान छोड़कर एक खाली प्लाट में एक लाश मिली है. बॉबी चा तत्काल हरकत में आ गए, दरोगा सज्जन सिंह झुंझलाहट में और थाने की जीप का गियर सकते में.
“मामला क्या है” पूछा बॉबी चा ने (माना ब यानि बॉबी चा ने हिन्दी सीख ली है और वो स्वतः हिन्दी में ही बोलेंगे बिना किसी द यानि दुभाषिये की सहायता के) “तेल खत्म हो गया क्या गाड़ी का?”
“ख़तम होने वाली चीज़ थी सर खतम हो गई” सज्जन ने सज्जनता से कहा “आज तो पचीस तारीख़ है तेल तो बाईस को ही खतम हो लिया”
“तो गाड़ी चलती कैसे है… हम घटनास्थल पर कैसे पहुंचेंगे?” बॉबी चा के गुलाबी माथे पर तीन रेखाएं उभर आईं
इसके जवाब में सज्जन ने वो कहा जिसका अर्थ जानने के लिए उधर कम से कम एलएलबी की डिग्री चाहिए होती है, हमारे यहाँ मसि-कागद छुए बिना भी इसे आत्मसात किया जा सकता है- “जुगाड़ ! सर जुगाड़ से चलती है.” बॉबी के उसी गुलाबी माथे पर रेखाओं की संख्या अब चार हो गई थी. सज्जन ने आगे कहा “और अगर ज़रुरत पड़े… अगर… तो कभी-कभी हम घटनास्थल को ही इधर बुला लेते हैं.”
बॉबी की आवाज़ घरघराहट जैसी हो गई- “तो… तो तेल भरवाते क्यों नहीं?”
“पेट्रोल पम्प वाला पिछले अट्ठारह महीनों का पेमेंट मांग रहा है… ऊपर से बजट रिलीज़ होता नहीं” सज्जन दांत खोदते हुए बोले “पम्प वाला तेल रिलीज़ करता नहीं”
बॉबी अटक गए. सज्जन ने सज्जनता दिखाई. उसी सोशल इंजीनियरिंग के बल पर जिसके स्तुति गान में लिख-लिख कर अखबारों, तमाम कमेटियों और भ्रष्टाचार-निवारण रिपोर्टों ने कागज़ काले कर डाले हैं, तेल डलवाया और घटनास्थल को रवाना हुए. घटनास्थल पर लोगों का हुजूम अपने सामाजिक दायित्व के निपटान और “क्या हुआ-कैसे हुआ-क्यों हुआ” की तान पर मुंह बाए खड़ा था. सामाजिक दायित्व के निभाने और निपटाने के बीच जो बारीक दूरी होती है उसका पता ऐसे ही मातमी मजमों में लगता है. पुलिस की गाड़ी देखते ही “आ गए-आ गए” की तर्ज पर रास्ते की शक्ल लेने लगा हुजूम. उनके पहुँचते ही “पुलिस प्रशासन-हाय हाय, पु प-हा हा” की निर्णायक धुन पर आ गया. बॉबी चा के लिए एकदम से किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाली बात थी ये. उनके गुलाबी माथे पर पांचवीं रेखा और पसीने की दो बूँदें एक साथ, जैसा कि होती आई हैं, चुहचुहा आईं- “ये क्या मरने वाले के घर वाले हैं?”
“नहीं सर उसके घर वाले तो वहां लाश के पास बैठे हैं” सज्जन ने अपनी प्रखर प्रज्ञा से जानकर बताया- “ये तो तमाशबीन हैं”
“लेकिन ये यहाँ से बीनेंगे क्या” बॉबी चा, आप मानो या न मानो, हिन्दी सीखते ही हाजिर जवाब हो गए थे.
लगभग यही वो समय था जब सज्जन दार्शनिक हो उठे- “कुछ मृतक के परिवार की सहानभूति बीनने आए हैं, कुछ टीवी के लिए अपनी फोटो तो कुछ आन्दोलन करने वालों में फलाना-फलाना में अपना नाम. कुछ जो नेता टाइप आगे-आगे हैं वो थोड़ा भविष्यद्रष्टा हैं. पुलिस प्रशासन को गालियाँ लगवाएंगे, प्रभाव जमाएंगे और अगले इलेक्शन में वोट बीनेंगे. सबके लिए कुछ-कुछ है. ऐसा ही हमारा समाज है, यही समाजवाद” थोड़ी देर इन शब्दों की जुगाली करने के बाद सज्जन आसमान में देखते और ज़मीन पर थूकते हुए पुनः बोले- “लेकिन किसी आवश्यक बुराई की तरह हमें इनकी ज़रूरत सी हो गई है सर. आप मौक़ा मुआयना कर लें हम इनसे निबटते हैं.”
बॉबी चा मुआयने में मशगूल होने को आए. साथ आए सिपाहियों को घटनास्थल कॉर्डन करने को कहा. सिपाहियों को ये बात, भाषा जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है हिन्दी ही थी इसलिए बात, समझ में न आनी थी सो न आई. आज तक की उनकी सिखलाई और कुछ-कुछ इसी समाजवाद से व्यावहारिक ज्ञान लेने की वजह से सिपाही पक्के समाजवादी हो चुके थे. हिन्दी फिल्मों का भी गहरा असर रहा होगा. घटनास्थल पर देर से आने की परिपाटी वहीं से ली गई थी. “फिल्मी पुलिस देर से आती थी” और “पुलिस देर से आती थी” इन दो वाक्यों में अंतर बस फिल्मी है. वैसे आना भी आ से ही शुरू होता है. उनके आने तक लोग महज कौतूहलवश आधी छानबीन कर चुकते थे. घटनास्थल पर पहुंचकर कुछ अलग से करने की ज़रुरत लगभग समाप्त हो जाती थी. जो लोग कर चुके होते थे ये भी उसे बिना किसी इगो हैसल के अपना लेते थे. यहाँ भी लाश के पास इतने लोग इतनी बार इतने तरीके से आ-जा चुके थे कि कॉर्डन ऑफ जैसी चीज़ की ज़रूरत ख़तम हो चुकी थी. बॉबी चा ने थाने से डॉग स्क्वायड और फोरेंसिक टीम को तलब करने को कहा. तब तक सज्जन भीड़ से निपट चुके थे. उन्होंने ये आवश्यक जानकारी दी कि थाने पर डॉग स्क्वायड नहीं है. फोरेंसिक कला सीखे हुए दोनों सिपाही, जिन्हें अगर एक साथ काम करते हुए न देखें तो हम टीम कह सकते हैं, आजकल मेला ड्यूटी में गैर जनपद गए हुए हैं.
“तो जिले के दूसरे थाने से मंगवा लो और…” बॉबी चा के गुलाबी माथे पर छटवीं रेखा उभर चुकी थी. उन्हें सबसे ज़्यादा आश्चर्य फोरेंसिक के साथ कला शब्द के उपयोग पर हुआ था. उन्होंने पूछ भी लिया- “कला… मतलब… हायं?”
“सर डॉग स्क्वायड तो तीन जनपदों में एक ही है और वो… हमारे वाले में नहीं है. बुलवाने को साहब से बोलना पड़ेगा.” दूसरे प्रश्न के जवाब में दरोगा जी ने पहले सूरदास का एक पद सुनाया. “किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत/ मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत!” और फिर ये व्याख्या दी कि “फिंगर प्रिंट उठाना किसी परछाईं को उठाने के बराबर है. बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है. जैसे धूप-छाँव का एक निश्चित अनुपात में घोल, कनक जैसा धरातल जो रिफ्लेक्ट कर सके और घुटने के बल चल सकने की कला क्योंकि उसे उठाने के लिए आपको कहीं भी घुसना पड़ सकता है. ये सब बातें समझने के लिए आपके ह्रदय में एक कलाकार जैसी भावना होनी चाहिए.”
इस व्याख्या के बाद बॉबी चा का भी विश्वास फोरेंसिक के विज्ञान होने वाली फेक न्यूज़ से उठ गया. उन्होंने फिर भी कलाकारी देखने के लिए ही सही, सज्जन सिंह से उनकी अपनी इन्वेस्टीगेशन किट निकालने को कहा. दरोगा जी ने मुस्कुराते हुए अपना सहदेवसेनी लट्ठ निकाल लिया. कहते हैं इसका प्राचीन नाम भीमसेनी था. कालान्तर में घिस कर कमजोरी की हालत में पहुँचने की वजह से पहले नकुल और अब सहदेवसेनी हो गया. नाम बदलने की परम्परा ठहरी यहाँ. बॉबी चा के गुलाबी माथे पर आश्चर्य की सातवीं रेखा ने प्रवेश किया- “इसका क्या काम? मैं तो प्राइमरी इन्वेस्टीगेशन किट जिसमें हैण्ड ग्लव्ज़, कॉर्डन टेप, लेंसेज़, कलेक्शन बॉक्स जैसी चीज़ें होती हैं की बात कर रहा था”
“अच्छा वो!” कहा सज्जन सिंह ने फिर थोड़ा सा माथा खुजाकर अनभिज्ञता जाहिर कर दी. बॉबी चा ने आला कत्ल करार दिए जाने को बेकरार पड़े एक चाकू की ओर इशारा करते हुए इशारे में ही पूछा कि उसे लैब कैसे भेजोगे जिससे चाकू पर उंगलियों के निशान का मिलान आस-पास की चीज़ों पर मिले निशान और उसपर लगे खून के धब्बे का मिलान लाश के खून से हो सके. दरोगा जी ने प्रतिउत्तर में एक आँख दबाते हुए खोपचे में चलने का इशारा किया. किनारे ले जाकर उन्हें बताया कि इतने महत्वपूर्ण सबूत कम सुराग को लैब क्यों भेजना, कि लैब में एक साल की वेटिंग चल रही है, कि जितना यहाँ लोगों को मरने का शगल है उसके लिए इतनी लैब की संख्या इतनी होनी चाहिए कि मुहल्ले के हर दूसरे घर में लैब का एक बोर्ड टंगा होगा, कि वो जिसे सबूत समझ रहे हैं वो असल में सुराग है और उसे वैसा ही ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, कि प्रचलित परिपाटी के अनुसार हम पहले अपराधी ढूंढते हैं फिर अपराध का तरीका और फिर अपराध, कि पहले मुर्गी फिर अंडे या अंडे फिर मुर्गी जानने के झमेले से अच्छा है कि फल खा लिए जाएं पेड़ तो न्यायालय गिन ही लेगा जैसा हम बताएंगे, कि न्यायालय के बारे में बताऊँ कि अगला जनम लेने में कुछ विश्वास है, कि इन बोल्ड एंड इटैलिक्स हम सीखते कम हैं सिखाते ज़्यादा हैं.
आख़िरी बात तक आते-आते बॉबी चा के गुलाबी माथे पर इतनी रेखाएं नमूदार हो चुकी थीं कि माथा छोटा पड़ने लगा. उन्होंने गले में अटकी कोई चीज़ गटकी और पूछा- “केस खुलता कैसे है? अपराधी को पहचानते कैसे हैं? बिना सबूत के केस में सज़ा कैसे दिलवाते हैं आप लोग?” उनके मन में स्थानीय पुलिस के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था. इसके जवाब में सज्जन ने दूसरे शब्दों में फिर वही कहा जिसका अर्थ जानने के लिए उधर कम से कम एलएलबी की डिग्री चाहिए होती है, हमारे यहाँ मसि-कागद छुए बिना भी इसे आत्मसात किया जा सकता है- “खुलते-खुलते! केस तो जनाब खुलते-खुलते ही खुलता है. ये पकड़ना-पकड़वाना सब भ्रम है सर! हम तो बस अच्छे को पकड़ लेते हैं बुरा को देखन नहीं चलते अपने आप मिल जाता है और वैसे भी सर…” कहते-कहते सज्जन दार्शनिक हो उठे “सर जैसे ज़िन्दगी के लिए कहा गया है कि साँसों की ज़रूरत होती है, ये नहीं बताया गया कि गर्म या ठंडी वैसे ही अपराध साबित करने के लिए बस एक अपराधी की ज़रूरत होती है. हम इसमें भेदभाव नहीं करते कि उसने ये वाला अपराध किया है या वो वाला. हम होते कौन हैं ये डिसाइड करने वाले. मारने-जिलाने वाला तो वो है” इस समय सज्जन की एक उंगली आसमान छेद देने के भाव से ऊपर उठी, “और सर रही बात सज़ा की तो उसके लिए सबूत पर ज़्यादा विश्वास नहीं करते हम लोग. उसके लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत होती है” यहाँ पहुंचकर सज्जन, वक्त की मांग के अनुसार, दर्शन से छिछोरेपन पर उतर आए, एक आँख दबाई और वही उंगली जो ऊपर उठी थी उसे तीन बार एंटी क्लॉकवाइज़ घुमाया और कान में घुसाते हुए बोले “वो कुछ और ही है. धीरे-धीरे समझ जाएंगे आप.”
बॉबी चचा को कि उन्हें वाकई समझ में आने लगा. लगा कि उन्होंने न केवल घटनास्थल निरीक्षण कर लिया बल्कि केस भी खोल दिया है. केस क्या उनकी तो जीवन की गुत्थी खुल गई. उन्होंने एक गिलास पानी माँगा और एक कोरा कागज़. पानी का इस्तेमाल उन्होंने पीने के लिए किया और कागज़ का लिखने के लिए. बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि बॉबी चा उस मनःदशा में थे कि इसका उल्टा भी कर सकते थे. जीवन की गुत्थी खुलने पर ऐसा हो जाता है. लौटने की तैयारी करने लगता है इंसान. उन्हें लिखते देख ऐसा ही लगा कि बॉबी चा भी तैयारी में हैं.
ये गुत्थी अभी खुलनी बाकी थी कि बॉबी चा को यक ब यक जीवन की गुत्थियों वाली कोई कविता सूझी थी या केस के बारे में कुछ नोट्स ले रहे थे. स्कॉटलैंड वापसी के लिए रिमाइंडर लिख रहे थे या तबादले की अर्जी. इतना तो अवश्य था कि कम से कम उनके सिर से गुडी गुडी में अपराध रोकने का जज़्बाती मुगालता उतर चुका था.
केस का क्या है वो तो खुलते-खुलते खुल ही जाएगा.
(फ्लैश फॉरवर्ड एक माह! बॉबी ने अर्जी स्कॉटलैंड वापस जाने की लगाई थी पर हो गया तबादला. सी आई डी में. बॉबी कई खाने वाला काला बैग और लाल जूता हो गए थे… )
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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