गुडी गुडी डेज़
अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 19
अमित श्रीवास्तव
दुखवा कासे कहूं…
बात ही बात में बस बात हुई जाती है
सुबू तो होती ई नहीं रात हुई जाती है
कैसे कहूं? जब से तुम्हें देखा है जिया धड़क-धड़क जाए. हाँ. पहले जित्ते समय में एक बार होता था अब दो बार धक्क हो रहा है. ना-ना, उनकी ना सुनो जो दुगने समय में एकी बार धड़का देने को कहे हैं. जानते हो क्यों? हुंह! नहीं बताती. हां, नहीं, तो!
जानते ही हो मेरा ब्रेकअप और पैच अप होता रहता है. नहीं केचप नहीं. वो तो… अब तुमसे क्या छिपा है? समझ गए ना? मेरा तो इस बार इत्ता मन है ब्रेकअप का, कि क्या कहो. गुदगुदी सी हो री. भले उस्सी के साथ फिर से पैचअप करना पड़े. मजदूरी का नाम… मजबूरी नहीं, वो तो पहले होती थी, यू तो नो न! अबकी बार, ब्रेकअप पक्का यार!
खैर छोड़ो. अपनी सुनाओ. हाल कैसा है जनाब का? सुना है आजकल आँखों में नींदें न दिल में करार. मुझे कैसे पता? होता है. तुम्हें आश्चर्य तो नहीं हो रा ना कि मैं कित्ती बोल्ड (एंड ब्यूटीफुल) हूँ. खुदी लिखे दे रही हूँ ख़त.
जानती हूँ तुम्हारा जवाब हाँ है, पर जेठ के आने से पहले अमावस की रात या पूनम के दिन, मैं छत पर तुम गली में… आओगे न?
तुम्हारी याद में
सo
फाल्गुन चौथ, 2019
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सुबह-सुबह का समय था. ऐसा वो लोग मानते थे, जो अँधेरा नापने का यंत्र लेकर सैर पर निकलते थे. प्रकृति के अनुसार तो अभी रात ही थी. अक्षांश-देशांतर जैसे फालतू की कल्पनाएँ सूरज के निकलने का इंतज़ार ही कर ही रही होती थीं अभी, पर इन लोगों को देखकर झट से भोर-भोर कह उठतीं. कौन पंगा ले? रोज़ का मामला था आख़िर. एक और जुमला था जिसने पीढ़ियों से उनका दिमाग़ खराब किया था. स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क को लेकर. इसके चक्कर में पिछले ही साल जाड़ों में मुंह-अँधेरे दौड़ने निकले लौंडो का झुण्ड बुरी तरह से पिट के लौटा था. उन्हें चोर समझ कर दूसरे ग्रुप के लोगों ने पीट दिया था. वो ग्रुप भी वैसे इसी जुमले के चक्कर में निकला था.
बोर्ड की परीक्षा लड़कों के सर पर थी. इसलिए सर भारी हो गया था. उसे हल्का करने के लिए टहलना ज़रूरी था. ऐसा ही वैज्ञानिक विचार लेकर गुडी गुडी के लड़कों के झुण्ड मुंह अँधेरे सुबह की सैर पर निकले थे. भोर का मन तो नहीं था लेकिन वही बात! कौन पंगा ले! इसलिए जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धोकर होने लगी थी. उसके होने से ‘मजदूरी पर निकलने का समय हो गया’ सोचकर पंक्षी अनायास चटर-पटर करने लगे थे. उनकी चह-चह से तंग आकर पेड़ हिलने लगे थे और अंधरे में हिलते पेड़ देख कर ऐसा लग रहा था, जैसे कोई चुड़ैल रात भर लोगों को डराने के काम से लौटकर पेड़ में वापस एडजस्ट होने के फिराक में है. टहलने के लिए निकले लड़के बीच-बीच में दौड़ लगा रहे थे. कसम खाकर कहा जा सकता था कि उसका कारण वर्जिश- अर्जिश नहीं, बल्कि वो हिलते हुए पेड़ थे.
टुटहे चबूतरे के पास एक तरफ को पड़ा ये पत्र ऐसे ही किसी झुण्ड को मिला था, जिसका नेतृत्व, न चाहते हुए भी, पप्पा यानि पप्पन पांडे कर रहे थे. इस बारे में स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता था कि `किसके न चाहते हुए’ क्योंकि पप्पा के चेहरे की मासूमियत और झुण्ड की शारीरिक जुम्बिश या बॉडी लैंग्वेज, दोनों ही यही क्लेम करते दीखते थे. चूंकि पप्पन को सबसे आगे किया गया था, इसलिए उनकी पहली निगाह पड़े या न पड़े, चिट्ठी को उठाने का पहला कर्तव्य तो उन्हीं का था. `कांपते हांथो पे भी फिकरे कसे जाएंगे’ जानते हुए भी उन्होंने काम को बखूबी अंजाम दिया. पत्र अपने हिसाब से भरपूर कांपते हुए उठाया. उठाया और अपने चेहरे के समानांतर लाए. पढ़ा. मुस्काए. हाथ नीचे किया. फिर उठाया. चेहरे के समानांतर लाए. पढ़ा. मुस्काए. हाथ नीचे किया. फिर उठाया. चेहरे के समानांतर लाए. पढ़ा. मुस्काए. हाथ नीचे किया. कुल मिलाकर ये पूरा सिद्ध करने का प्रयास किया कि कागज़ के उस क्षणभंगुर टुकड़े में कोई कालजयी चीज़ सिमट के ख़ास पप्पन के वास्ते आई है. जब छटवीं बार वो इस लगभग अनैक्छिक हो चुकी क्रिया को करने को आए उनके मित्र माधो ने हाथ थाम लिया
-`क्या है?’ माधो ने गोल आँखें और गोल-गोल घुमाते हुए पूछा
-`तुम खुद ही देख लो’ भाव से पप्पन ने उस कागज़ को माधो की तरफ बढ़ाया. `दुखवा कासे कहूं…’ माधो ने शुरुआत के शब्द ऊंची आवाज़ में पढ़े जैसा कि झुण्ड के अन्य लड़कों की अपेक्षा थी, फिर अचानक से स्वर मद्धम `बात्रात्सुबू…’, से कोमल `जियाध्द्क्धादाक्जाए’, से फुसफुस `बोब्यूख़ स’ पर आ गया. माधो ने अब तक निर्लिप्त भाव से पकड़े गए कागज़ के उस टुकड़े को पूरी निष्ठा से पकड़ लिया और उसी क्रिया को करने को उद्यत हुए जो अभी तक पप्पन कर रहे थे. उन्हें भी ये लगने लगा कि ख़त उनके लिए ही है. उनका दिल अभी कुछ ही दिनों पहले टूटा था और उस ख़त से वो, वो करने वाले थे जो बीमार लोग दवाई के पर्चे से करते हैं.
वो पत्र किसने लिखा था पत्र के हिसाब ये स्पष्ट नहीं था, क्योंकि हस्ताक्षर वाली जगह पर स लिखकर बिंदा (बिंदु का सगा बड़ा भाई) लगाया गया था लेकिन मुहल्ले के हिसाब से भरपूर स्पष्ट था. लिखावट, गद्य में पद्य की मिलावट और स के साथ एक बड़े से बिंदे की सजावट, चीख-चीख के कह रही थी, कि हो-न-हो ये चिट्ठी सरिता देवी… सुंदरी… सरिता सुंदरी… सस्सु… अरे अपनी सस्सु ने लिखी है. किसको लिखा था ये ख़त, जानना ज़रा मुश्किल था. पत्र, खुला पत्र नहीं था, लेकिन जिस सार्वजनिक जगह वो मिला था, मुहल्ले के हर लड़के का हक़ बनता था उसे उसके लिए लिखा गया मानने में. कहने की हिम्मत हालांकि सबकी नहीं थी. लेकिन दिल पर किसका ज़ोर चलता है. इसलिए उसी के जोर से सब उसे अपना मानने में जुट गए थे.
पहले तो चिट्ठी मिलने की ख़बर को, रुसवाई के डर से, परम्परागत रूप से उन्हीं लोगों द्वारा दबाया गया, जिनकी रुसवाई हो सकती थी और ये वही लोग थे, जो दबी ज़ुबान ख़बर को चटखारे ले-लेकर फैला रहे थे. ज़ुबान दबी होने की वजह से ख़बर चटपटी हो-न-हो, चपटी ज़रूर होकर फैल गयी थी. कुल मिलाकर दोपहर तक ये ख़बर जंगल में आग, विधवा के चरित्र पर दाग और शैम्पेन में झाग की तरह फैल गयी. तुक भिड़ाने की कोई ज़रूरत तो नहीं थी, लेकिन अपने आप में ये इतनी बेतुकी बात थी कि उसका असर कम करने के लिए ऐसा करना पड़ा.
ख़बर अक्कू तक पहुँची. कम उम्र थे, खेल के नए खिलाड़ी थे, लेकिन लीग मैचेज़ में ओपनिंग हो चुकी थी उनकी. इस हिसाब से उन्हें लोकल नवाब पटौदी कहा जा सकता था. इसी हिसाब से सम्भवतः पिता-चाचा-ताऊ खानदान में और किसी की हुई हो, न हो, उनकी अपनी नाक ऊंची हो गई थी. यहाँ तक कि ऊंची होते-होते टेढ़ी हो गई थी. ऐसा नहीं था कि इससे घ्राण शक्ति में कोई इज़ाफा हुआ, हो बस नकेल का साइज़ बढ़ गया था.
साइकिल से भागते हुए आए. ‘से’ का आशय यहां ‘समान’ से है. अपनी साइकिल चबूतरे से टिकाई, क्योंकि उसका स्टैंड टूट गया था और उसे बनवाने दे रक्खा था. ग्रीस और कड़वे तेल की खुशबू फ़ैल गई आस-पास. कलपुर्ज़े ताज़ा-ताज़ा वर्क शॉप से मरम्मत करवा के आ रहे लगते थे.
-`ज़रा दिखाओ तो है क्या तुम्हारे पास’ कहते हुए पप्पन की ओर बढ़े
-`क्यों हम क्यों दिखाएं पहले तुम…’ कहना चाहते थे पप्पन लेकिन चुप रहे. ये गुण उन्होंने बतखोर चा से ताज़ा-ताज़ा सीखा था. एन मौके पर चुप रह जाना. वैसे भी इस चिट्ठी के मिलते ही अत्यधिक उदार हो चले थे. उन्होंने कुहनी तक मोड़ी हुई बांह में खोंसी चिट्ठी निकाली और थमा दी.
‘अक्कू द एगलेस’ एक सांस में पढ़ गए. एगलेस पढ़कर इससे पहले कि आप भाषा की एनोटमी के भदेस तक जाएं, बता दें, कि अक्कू एगलेस केक पसन्द करते थे, इसलिए ये नाम पड़ा. बाकी अब आप केक प्रकारों को जानने में जहां तक जाना चाहें, जाएं. फिर दूसरी सांस में ये मान बैठे अक्कू, कि वो उन्हीं के लिए लिखी गई है. और यही मानते-मानते चबूतरे से पीठ टिका के बैठ गए. उमर भी थी, समा भी था, मौक़ा भी था और हो-न-हो लेकिन कहा जाता था, कि दस्तूर भी था. उनके श्री मुख से एक लम्बी ग़ज़ल के चंद शुरुआती मिसरे टपक पड़े
`चांदी की साइकिल सोने की सीट
चलो चलें डार्लिंग चलें डबल सीट.’
ऐसा कोई कारण नहीं था कि वो इस चिट्ठी को अपना समझने से कोताही करें. उन्होंने तो सस्सू की मौसी को अपनी बुआ बना लिया था, ये जानते हुए कि उनके पिता उनके साथ साली-जीजा वाली चुहल में मुब्तिला रहे हैं. मौसी से गाहे-ब-गाहे अपनी ही सिफ़ारिश भी लगवा लेते थे. `कमाने का तो क्या है बुआ एक बार सस्सू की ज़िम्मेदारी सर पे आ गई, तो टोयोटा से लेकर टोंटी तक, सब अपने पैसे से कमाने भी लग जाऊँगा… तो मैं ये रिश्ता पक्का समझूं?’
अक्कू को ये ख़बर थी कि सस्सू की नजदीकियां चाहने वालों में खुद बुआजी भी हैं. क्या कर सकते थे. मज़े की बात कि सस्सू को चाहने वालों में कुछ दीदियां, मौसियां, माएँ भी थीं. जाने उनमें ममता का घनत्व ज़्यादा था या मोह-माया का आयतन, लेकिन इतना तो तय है कि उनके होने से सस्सू की चाहत के किस्सों में भरपूर तरलता आ जाती थी.
कुछ और भी लोग थे ‘मनै-मन भावे मूड़ी हिलावै वाले.’ जैसे रब्बू और लोलारक. रब्बू पासिंग द पार्सल खेलते थे और खुद ही पास हो जाते थे. उनकी कला यही थी और हो-न-हो उन्होंने विज्ञान भी यही पढ़ा था, कि म्यूजिकल चेयर रेस में, हर फेरे में एक कुर्सी हथिया ली जाए. दाढ़ी के बाद बचे हुए चेहरे के फेशियल एक्सप्रेशन से ये फील देते रहें, कि उनका कोई ख़ास मन नहीं था बैठने का. म्यूज़िक कोई भी लगा हो, रेस कैसी भी हो रही हो, रब्बू की कुर्सी पक्की. लौंडे उनकी इस अदा से रश्क रखते थे. रखते रहें. उन्हें जो चीज़ रखनी थी, वो उनके पास-पास थी. लोलारक का भी हाल कुछ ऐसा ही था. विरोधी गुटों में सरल लोलक की तरह लटकते रहते थे. हवा का रुख देखना हो, तो उन्हें देखा जा सकता था. ये दोनों ही घटनास्थल पर लगभग एक साथ पहुंचे. जायजा लिया. वही मिला भी क्योंकि तब तक चिट्ठी बतकुच्चन मामा के अंटी में जा चुकी थी. लगने लगा था कि इस बार रेस के म्यूज़िक डायरेक्टर वही हैं.
ये जानकर भी पप्पन मंद-मंद मुस्किया रहे थे. ये चिट्ठी उनके लिए ही थी, ऐसा उनका पूरा विश्वास था. चिट्ठी जब बतकुच्चन के अंटी में फंसी तो या तो विश्वास के हिलने से या हिलके वापस लगने में एक झटके से उच्छ्वास ली, जिसका नेट रिज़ल्ट ये आया, कि उनके नाक के नीचे जो चीज़ खुली थी, उससे एक सीटीनुमा आवाज़ बाहर आ गई. ऑकवर्ड हो गया मामला. सीटी दबाने के लिए मुंह फिराया तो आंख दब गई. मामला डबल ऑकवर्ड. इसे छिछोरापन समझा गया. छिः-छिः वाला मौसम बन गया.
जाने क्यों उन्हें लगने लगा कि सस्सू को पटाना उनके अकेले की बात नहीं है. ये पवित्र भाव बस उनके मन में ही आया हो ऐसा नहीं है. बतकुच्चन के मन में भी यही भाव आने लगा था. उनके मन में पहले भाव-ही-भाव आता था. यहाँ तक कि ऐसा लगने लगा था, कि वो बहुत भाव खाने लगा है. उससे ज़्यादा भाव हालांकि उसके चुर्रैट-मुर्रैट खाते और उगलते थे. लेकिन उन दिनों बतकुच्चन इस बात से परेशान रहने लगे थे कि उनके डाले गए डोरे में बल पड़ गए थे. बहुत से लोगों ने उसका इस्तेमाल डारे की तरह करना शुरू कर दिया था. अपने गंदे पाजामे सुखाने डाल देते थे उसपर. कुछ करना पड़ेगा. कुछ करना भी पड़ेगा. कुछ करना ही पड़ेगा. ऐसा सोचने लगे थे बतकुच्चन उन दिनों. क्योंकि अगर सस्सू से प्यार की पींगे बढ़ानी हैं तो सद्दी नहीं, मंझा बनाना पड़ेगा वर्ना लाग लड़ाने वाले बहुतेरे पैदा हो गए हैं.
बतकुच्चन खतरे को न केवल भांप लेते थे, बल्कि नाप भी लेते थे और तत्काल काटकर बाहर आ जाते थे. इसके लिए उनके पास यंत्र, मन्त्र और तंत्र के ख़ास अनुपात का फॉर्मूला था जिसकी आर एंड डी टीम की आपात बैठक बुला ली गई. इसके इस्तेमाल का ख़ास तरीका उन्ही का तैयार किया हुआ था. डार्क रूम में आई टीम. न! न! चबूतरे पर नहीं! डार्क रूम में! जिसमें बस टीम की एंट्री थी. कभी कोई दूसरा घुसना चाहे, तो मार्गदर्शक की ज़रूरत पड़ती थी. सुनते हैं, क्योंकि देख नहीं सकते वहां, क्योंकि अन्धेरा घना है वहां, बतकुच्चन और अमृत लाल अनोखे के अलावा एक तोता भी था. कुछ लोग कहते हैं, क्योंकि वो भी सुनते हैं, देख तो सकते नहीं, कि सुग्गा तिवारी कोई और नहीं वो तोतवा है. कौन जाने क्या सही है. अन्दर की बात. टीम के वहां, अन्दर जाते ही मुहल्ले के लौंडे बेचैन हो जाते थे कि कोई नया शिगूफा पेश होने को है. इस बार बेचैनी और बढ़ गई थी, क्योंकि अंदर जाते समय, बतकुच्चन ने पप्पन की झपक-झपक जाती आंखों से आलमोस्ट छुआते हुए अपनी अर्द्ध निमीलित आंखों की तरफ तर्जनी और मध्यमा के त्रिकोण से अनोखा इशारा सा किया और तब अंदर गए थे.
सस्सू ने चिट्ठी लिखी किसे थी? बतकुच्चन जब डार्क रूम से बाहर आए तो क्या हुआ? और कौन-कौन से लौंडे थे जिनकी साँसें सस्सू के दीदार के लिए चढ़ी हुई थीं? किसकी साँसें ठिकाने से और किसकी निशाने से लगने वालीं थीं? इसकी तफ्सील मिलने में समय है अभी. फिलहाल तो सस्सू की चिट्ठी थी, सस्सू के लिए आहें थीं और सस्सू के लिए ही गुडी गुडी के एस्पाइरिंग लौंडों की दो सौ तिहत्तर अंश के कोण पर खुली हुई बाहें थीं.
इंतज़ार कीजिये. (और आपने अब तक किया ही क्या है?) अमावस की रात या पूनम का दिन बस आने ही वाला था !
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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