अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 16
अमित श्रीवास्तव
(पिछली क़िस्त: तीसरी कसम उर्फ मारे गये चिलबिल)
`कविता लिखने के लिए कवि होना ज़रूरी नहीं.’ ये ब्रह्म वाक्य मुझे एक `कविता: कल, आज, कल और परसों’ नामक भ्रामक गोष्ठी के दौरान मिला. भ्रामक इसलिए क्योंकि मैं इसके निमंत्रण पत्र/ सूचना को मोटापा कम करने की किसी जादुई मशीन का विज्ञापन समझ बैठा था और तत्काल उलट-पुलट कर कविता नामक किसी स्थूलकाय स्त्री को कमनीय काया में रूपांतरित हो जाने वाली तस्वीरें ढूँढने लगा था. तस्वीरें थीं मगर `कविता लिखने वालों’ की. यहाँ `कवियों’ की भी लिखा जा सकता था लेकिन ब्रह्मवाक्यों से मुखालिफ़त करना मेरी औकात में नहीं. इसे भी उसी श्रद्धा से देखता हूँ जिससे `आह से उपजा होगा गान’ को देखा गया. `कारण तात्कालिक है लेकिन प्रासंगिक है.’ कुशल-कवि-गुच्छ (जिसे प्रायोजक महोदय ने कविता-गुच्छ माने जाने की सिफारिश की.) जैसी किसी पुस्तक के विमोचन के अवसर (जिसे सबसे ज्यादा पुस्तक विक्रेता केंद्र ने भुनाया) पर हिन्दी के मूर्धन्य कवि ने खोला `जैसे समाजसेवा के लिए किसी न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता नहीं होती, आप सत्ताईस माला की अट्टालिका में रहकर भी इसे `परफोर्म’ कर सकते हैं, अपराध करके भी `प्रायश्चित फॉर्म’ में निभा सकते हैं, एक हाथ बाएँ से ले आधा हाथ दाहिने को दे सकते हैं, वैसे ही कवि न होकर भी आप कविता लिखने का जुगाड़ कर सकते हैं. न्यूनतम योग्यता यहाँ से भी हटा ली गयी है.’
इस ब्रह्मवाक्य का पूरक वाक्य भी मुझे इसी गोष्ठी में डकार से लथपथ वाक्य के आख़िरी शब्दों को असीमित रूप से फाड़ते हुए एक वरिष्ठ आलोचक ने दिया… `जब तक कवितायेँ लिखी जाती रहेंगी तब तक कविता के लिए कवि होना ज़रूरी नहीं.’ इससे पहले कि मैं `लिखी’ शब्द पर उनके अतिरिक्त दबाव को सरल शब्दों में हल्का करने का आग्रह करता वो किसी शारीरिक दबाव को, जो इस प्रकार की गोष्ठियों में `वरिष्ठता के आधार पर गरिष्ठता’ के फॉर्मुला लगा होने के कारण हो ही जाता है, हल्का करने के लिए मंच के पिछवाड़े लपक लिए. गोष्ठी में आते समय मेरे पास सुनाने के लिए बहुत सी कवितायेँ थीं वापस जाते वक्त चबाने के लिए बस ये दो वाक्य.
(पार्वती-महादेव और निठल्ले इंसानों की कथा)
मैं `लिखी’ पर अटक गया था. दौड़ चाल और तेज चाल के ज़माने में मुझ जैसे कमअक्ल और धीमी चाल वालों के लिए `कमी नहीं है विषयों की वरन आधिक्य ही उनका सताता है और कवि ठीक चुनाव नहीं कर पाता है’ कभी नहीं आता है. सुबह उठता हूँ सोचता हूँ किसपर लिखूं किसान झपट लिया गया, महंगाई दाब दी गयी, स्त्री पकड़ी गयी, दलित उठा लिए गए, मजदूर चांप लिये गए यहाँ तक कि बाल श्रम, घरेलू हिंसा, विश्वग्राम में अमरीकी दादागिरी, ग्लोबल वार्मिंग, अद्यतन-नव-पश्च-उत्तर आधुनिक मानव की जिजीविषा जैसे अभी अभी बिलकुल अभी के विषय भी किसी न किसी कविता लिखने वाले के हत्थे चढ़ चुके हैं. आज का कविता-लेखक चौकन्ना है. चौंक बिल्लौटा टाइप कान खड़े रहते हैं उसके. आशंका और चिंता की गहरी रेखाएं साफ़ पढ़ी जा सकती हैं उसके माथे पर. आजकल बहुत से हैण्डलेंस हैं मार्केट में जो ये सूचना लीक कर सकते हैं कि आखिर किस चिंता में घुल रहा है कवि. थोड़ी देर चिंता मथती है माथा, खट से एक कविता जन्म ले लेती है. `रोता हूँ लिखता जाता हूँ…’ से बहुत आगे आ गया है कवि वो कहता है `खाता हूँ… पीता हूँ… गाता हूँ… यहाँ तक कि सोता हूँ… लिखता जाता हूँ… कवि को बेकाबू पाता हूँ.’
मेरे लिए क्या बचा है लिखने को, मैंने एक स्थापित (इसे व्यवस्थापित से बदलना संभव हो चुका है) कवि से पूछा कि कविता किसपे लिखें भला. उन्होंने `किससे’ सुना और बोले
-`खून से! मैं तुम्हें हर धर्म-सम्प्रदाय का खून लाकर दूंगा तुम मिलाकर एक भयंकर कविता लिख मारो.’
-`पर ये तो अति हुई न सर… और प्रामाणिकता?’ मैं खून के जिक्र से ही अवाक था
-`भाड़ में गई प्रामाणिकता… अरे ऑमलेट खाने के लिए अंडा देना ज़रूरी है क्या?’ कवि बिफरा.
प्रश्न दीगर था और मानीखेज भी. अंडे की कविता या कविता का अंडा मेरे लिए नितांत नए विषय थे. अब मैं लिखने से अंडे देने तक आ चुका था. यह उद्विकास का मामला लगने लगा था. मैं इस बात की तफ़्तीश में लग गया कि यहाँ लैमार्क लागू होते हैं या डार्विन.
-`कविता आगे बढ़ती है. वो किसी के लिए नहीं रुकती.’ उन्होंने पुनः एक सुन्दर वाक्य कहा. सच ही कहा होगा, फिर भी मैंने उदाहरण पूछ लिया. उन्होंने एक लम्बा उदाहरण दे डाला.
-`एक बड़े कवि का लंबा बेटा उनका डार्विनवादी विकसित प्रतिरूप हो गया है. `रोल ओवर कंटेस्टेंट’ के जैसा वो पिछले पायदान से ऊपर चढ़ता है. वो कविता नहीं करता, कवि का रोल करता है. वो एक बहुत बड़े `जी’ प्रत्यय के साथ बाप की कविता आगे बढ़ाता है.
-`दरअसल कविता बस आगे ही नहीं बढ़ती दाहिने-बाएँ भी बढ़ती है और कभी-कभी पीछे को भी लौट पड़ती है. सब ट्रैफिक के ऊपर है.’ मैंने जोड़ना चाहा.
-`जिसे तुम दाहिने-बाएँ-पीछे समझ रहे हो दरअसल वो कविता के नए प्रतिरूप हैं. भगोड़ी कविता, तड़ीपार कविता, सीरीज वाली कविता, सीक्वेल कविता, बाई प्रोडक्ट कविता, अराजक कविता, प्रलापवाहक कविता इस तरह के दाएं-बाएँ वाले नए प्रयोग हैं. कवि इस फिराक में है कि क्या पता कवितानुमा ऐसे प्रयोगों से उपयोगी कोई नई चीज़ खोज ले वो. ये जो कवि का एक्सपेरिमेंट करने वाला साइंटिफिक टेम्पर है यही कविता का लैमार्किज्म है. अगर प्रयोग नहीं करेगा तो निष्प्रयोज्य हो जाएगी कविता.’
-`पर सर ऐसे प्रयोगों का तो स्वागत होना चाहिए. लेकिन नए पत्तों को तो न तो प्रकाशक हाथो-हाँथ लेता है न समीक्षक ही कोई जिक्र करता है.’
(गगास के तट पर : उत्तराखंड की समाजार्थिकी पर केन्द्रित हिंदी का पहला उपन्यास)
-`प्रकाशक और समीक्षक वही काम कर रहे हैं जो इन्हें सौंपा गया है. बस अंतर ये है कि जो ये कर रहे हैं वही ये नहीं कर रहे हैं. विशेषज्ञता के अतिरेक में ऐसा हो जाता है. ये ऑक्यूपेशनल साइकौसिस का चरम है. गोल डिस्प्लेसमेंट हो गया है. जो काम आलोचना से हो जाता था वो काम आलोचना करने से होने लगा है. इन्सिडेंटल वैल्यू हैज़ बिकम दी टर्मिनल वैल्यू. उधर भूल प्रकाशक के नाम से भी होती है. दरअसल उसका काम प्रकाश डालना नहीं अपितु शक करना होता है. नए कवि पर उसे शक है कि बिकेगा या नहीं, पुराने पर शक है कि कहीं रॉयल्टी के चक्कर में `कितनी प्रतियां छापीं-बेचीं’ न करने लग जाए. `पुस्तकें सबसे अच्छी दोस्त होती हैं’, शायद ये बात प्रकाशकों के लिए ही कही गयी थी.
यही अक्षरों का मिसमैच समीक्षक को लेकर भी हो गया है. संयोग से तालव्य की ओर गमन है. समीक्षा से समीच्छा वाला सुख निकल रहा है. लेकिन यहाँ `सम’ अंग्रेजी वाला है. इच्छा अपनी-अपनी मठाधीशी पर निर्भर है. समीक्षक जिसे परम्परा निर्वाह के लिए आलोचक भी कह सकते हैं ब्रह्मा-विष्णु-महेश के ट्रिपल रोल में है. पोषित भी करता है, पीड़ा भी देता है. उसपर बड़ी जिम्मेदारी है. आजकल जन्म भी देने लगा है. किसी ने कहा कि `कविता मनुष्यता की मातृभाषा है.’ मेरी अपील है कि उसमे ये भी जोड़ा जाए कि आलोचक के ऊपर कविता का पितृत्व और मनुष्यता का नातृत्व भार है. वो कविता का पिता और मनुष्यता का नाना है.’
अब ये सम्बन्ध उद्विकास के हाथों से उछलकर नृविज्ञान की गोद में फुदक चुका था. समझने के लिए मैंने पुरस्कार समिति में रेफरी की भूमिका निभाने वाले एक पूर्व कवि वर्तमान पत्रिका प्रकाशक की शरण ली.
-`कविता की दो-तीन बड़ी फैक्ट्रियां लग पड़ी हैं आजकल. फेसबुक वाली तो इतनी तेज़ है कि 11.40 पर नेपाल भूकंप से हिलता है और देखता हूँ कि 11.42 पर ईश्वरीय प्रकोप-मानवीय प्रदोष जैसी कविताओं से फेसबुक का पर्दा हिलने लगता है. समझ में नहीं आता कि कविता है या समाचार. जबकि कहते हैं कि कविता लिखना एक यन्त्रणा से गुजरना होता है…’ मैं कविता परिवार के अन्तर्सम्बन्धों के बाबत जानकारी चाह रहा था कि उन्होंने लपक लिया
-`और अगर नहीं हुआ ऐसा तो पाठक दुहराता है कि कविता पढ़ना…. यही काम हम लोगों का है इस यन्त्रणा का सही जगह आरोपण. दरअसल आजकल कॉम्बो पैक उपलब्ध हैं. कन्वरजेंस का ज़माना है शायद इसलिए. पहले कविता शतरंज के जैसे थी. वन टू वन. कवि-पाठक या कवि-श्रोता. आज ऐसा नहीं होता. क्रिकेट के जैसा माहौल है. कवि, कविता की गेंद फेंकता है, प्रकाशक बैट घुमाता है, पाठक कैच लेता है और इसी बीच समीक्षक आउट-नॉट आउट करार देता है. आप कहेंगे इसमें क्या ख़ास है… ख़ास बात ये है कि पहले मैच फिक्स नहीं हुआ करते थे. ऐसा ही कन्वरजेंस कवियों के मिले-जुले संस्करण में दिखने लगा है. बहुत से कवियों की कवितायेँ एक साथ एक ही पुस्तक में आने लगी हैं. सात से मामला सैकड़े तक पहुँच गया है. हमारा काम बढ़ गया है. पहले हम चावल में से कंकड़ बीनते हैं फिर कंकड़ में से चावल. फैक्ट्रियों को इतनी अकल कहाँ.’
-`पर अकेले कवि को कमज़ोर मानना ठीक नहीं. वो तो इतना इंडिपेंडेंट रहा है कि कहता है “हम चाकर रघुवीर के पढ़ो लिखौ दरबार/ अब तुलसी का होहिंगे, नर के मनसबदार”.’ मैंने प्रतिवाद करना चाहा.
-`सच है कवि पहले अपने आप में दम रखते थे. वो ये कह सकते थे. आजकल भी दम है पर दुम के साथ. दुम झाड़-पोंछ कर आसन जमाने के काम आती है. आँख तरेरी गई तो दबाने के. आँख तरेरने के लिए किसी राजा की ज़रुरत नहीं है. पहले जो प्रस्थिति राजाश्रय कहलाती थी वो सहूलियत भरा स्थान सरकार के साथ साथ मार तमाम खेमों और अकादमियों ने ले लिया है. कई प्रकार की राजमुहरें चल निकली हैं. किसी पर पुरस्कार लिखा है किसी पर प्रकाशन-समीक्षा. कुछ ऐसी हैं जिनपर उलटा छापा लगा है तो कुछ ऐसी जिसपर हत्था उल्टा लगा है. कुछ की इलैस्टिसिटी इतनी है कि दिखती आलोचना हैं, करती विवाद हैं और होती तारीफ़ हैं.’
बात सही थी लेकिन फिर भी मेरा ऐसा मानना है कि इतने घालमेल के बाद भी कवि सेल्फ कॉन्फिडेंट है. तभी तो वो अपने खेमे से सर निकालता है, इधर-उधर देखता है, फिर एक-एक कविता इधर और उधर मारकर वापस खेमे के अन्दर. `निज कबित्त केहि लाग न नीका’ अब भी है बस वाक्य के अंत में एक प्रश्नचिन्ह लगा देता है कवि और जवाब में कविता को बन्दूक में भरकर चला देता है ठांय से `जेहि लाग न नीका’ के ऊपर.
अब कविता लिखने वाले `क’ की चिंता इस बात में नहीं है कि है कि अच्छी कविता कैसे लिखी जाए बल्कि वो ये देखता है कि `ख’ `नामवाले’ समीक्षक ने `ग’ कविता लिखने वाले की कविता के एक अंश को उद्घृत करते हुए `घ’ अकादमी के समारोह में कवि-कुल-दीपक जैसा कुछ कहा. `क’ ने न तो कविता पढ़ी न ही वो अंश (वैसे तो `ख’ ने भी बस वही अंश पढ़ा था कविता का). उसने आत्मबोध से एक असाइनमेंट ले लिया. उसने मंच की ओर देखा कौन कौन बैठा है. फिर इस बात में रत हुआ कि किसके बैठने पर एक फेसबुकिया विवाद कम परिचर्चा आयोजित की जानी है और किसके बीच सभा में उठने पर सेमीनार और अंततः किसी के क्रमशः उठक-बैठक पर एक हस्ताक्षर अभियान चलाने में लिप्त हुआ.
कवि की सफलता उसके हस्ताक्षर अभियान की सफलता में है. कवि होने के लिए आपको अभियान चलाने आना चाहिए. जैसे कविता लिखने के लिए कवि होना ज़रूरी नहीं वैसे ही कवि होने के लिए कविता लिखना ज़रूरी नहीं.
(`कविता से भई क्रान्ति’ समारोह में अध्यक्षीय भाषण जो कभी न दिया जा सका, क्योंकि समारोह न हो सका, क्योंकि ऐन क्रांति के समय कवि को उदर पीड़ा हुई और उसने जो रसीली बातें उगलीं वो वाक्यं रसात्मक काव्यं के पैमाने पर आज भी कविता होने के जुगाड़ में हैं)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
पप्पन और सस्सू के न्यू ईयर रिज़ोल्यूशन
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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