असौज का सारा कारोबार समेटकर जाड़ों में जब सारे काम निबट जाते तो हमारी बुब (बुआ) कुछ समय के लिए हमारे घर यानि अपने मायके आती. कभी नानि बुब (छोटी बुआ) तो कभी ठुलि बुब (बड़ी बुआ). जब दोनों आ जाती तो मानो किस्से कहानियों का अथाह खजाना मिल जाता. पूस की उन सर्द रातों में खाना खाने के बाद रौन (अंगेठी) के पास बैठकर भूने हुए भट के साथ गुड़ की टपुक लगाते किस्से, कहानी और अहाणे सुनते-सुनते रात कितनी बीत गयी, पता ही नहीं चलता. कहानियां होती एकदम लोकजीवन से जुड़ी- हिट तुमड़ि बाटै-बाट, अजु कुठारी के च्यलों की बेवकूफी भरी कहानियों की, दोनों चिपड़े नाक (सपाट नाक) वाले वर-ब्योलियों की जो धोखे से ऐेसे दूल्हा से ब्याही जाती, जो चावल के कणिकों की नाक चिपकाकर शादी के लिए बारात लेकर जाता, कन्यापक्ष वाले ऐेसे खूबसूरत दूल्हे को पाकर इठलाते हुए गाते- ’’ हमरि चिपड़ि लै भल वर पायो ’’ उधर दूल्हे पक्ष के लोग जो छलपूर्वक चावल के कणिकों से नकली नाक बनाकर लाये होते उनका जवाब मिलता- ’’ आजि के देखछ, आब देखला, कणिकक झड़ि जाल भोव देखला’’ जैसी रोचक कहानियां होती.
(Ghughutiya Nostalgia by Bhuwan Chandra Pant)
एक बुआ जब कहते-कहते थक जाती तो दूसरे की बारी आती. कभी-कभी तो दोनों बहनें अपनी पुरानी यादों में खोकर अपनी दुनियां में ले जाकर हमें खड़ा कर देती. कहानी तभी तक चलती, जब तक हुंगुर देने वाला हौं- हौं कहता. ये हौं-हौं की आवाज तभी रूकती, जब कहते कहते हम निद्रा देवी की गोद में समा जाते.
क्या गजब का अन्दाज था बुआओं का कि घटनाओं को एकदम सजीव कर देती. कहानियों में बीच-बीच में हास्य लाने का उनका अनोखा अन्दाज था. इन किस्से कहानियों के बीच कभी उनकी जातीय जिन्दगी के सच के किस्से भी जुड़ जाते। वे किस्से कितने वास्तविक होते और कितना उन्हें रोचक बनाने के लिए कल्पनाओं का पुट रहता, यह अन्तर कर पाना हमारे बस की बात नहीं थी.
एक बार बड़ी बुआ अपनी प्रयागराज यात्रा का किस्सा सुना रही थी. पहली पहली बार गांव के परिवेश से शहर जाना हुआ. सब कुछ नया-नया. बताती की सुबह सुबह गांव में तो दिशा शौच में खेतों व जंगलों को चली जाती, लेकिन शहर, जहां वे ठहरी थी, ऐसा तो कुछ था नहीं. लोगों से पूछा तो बताया कि बाहर शौचालय बना है, उसमें चली जाओ. अब शौचालय होता कैसा है? ये तो देखा नहीं था, उन्होंने. उस समय पॉट सिस्टम का जमाना था, फ्लैश सीटें नहीं हुआ करती. बताती कि भटकती हुई, पड़ोसी के घर में घुस गयी. स्वाभाविक है कि पड़ोसी ने पूछा क्या है?
सदैव कुमाउनी बोलने वाली बुआ ने टूटी-फूटी ही सही हिन्दी में जवाब देना मुनासिब समझा और ’’क्या है’’ के प्रत्युत्तर में तपाक से हिन्दी में इतना ही बोल पायी- टट्टी है? बताती कि वो भड़कता हुआ बोला- पै मेरे यहां है टट्टी ? पै उसने अपनी ओर से जोड़ दिया था. इसी तरह कई घरों के दरवाजों पर दस्तक देती, जब शौचालय के दरवाजे पर कोई छोड़ आये तो छी-छीऽऽ कहते हुए उल्टे पांव अपने ही कमरे में लौट आयी.
खैर! बुआ तो बुआ ही ठैरी, ढेरों किस्से कहानियां जुड़ी थी उनसे. पूस की उन हाड़ कंपा देने वाली रातों में किस्से-कहानियों के अलावा इन्तजार रहता उतरैणी अथवा घुघुतिये त्योहार का. ग्रामीण जीवन में रोज के दाल-भात, रोटी-सब्जी के अलावा त्योहार ही होते, जब कुछ अलग खाने को मिलता. त्योहार के नजदीक आते ही उल्टी गिनती शुरू हो जाती. उतैरणी के एक दिन पूर्व ततवाणी होती, जिस दिन तात् (गर्म) पानी से नहाने की परम्परा थी. दरअसल तात्+वारि से ये तत्वाणी शब्द बना होगा. परिवार के आबाल-वृद्ध गर्म पानी से नहाते. तब हफ्ते में एक बार नहाने के आदी हम इसे तो झेल जाते, लेकिन उतरैणी के त्योहार के सुबह सिवाणी (शीत+वारि का अपभ्रंश रूप हो शायद यह) का स्नान ठण्डे पानी से होता, फिर भी एक शौक था कि कड़कड़ाती ठण्ड में हम खुशी-खुशी ठण्डे पानी से नहाने को एक एडवैन्चर मान लेते.
एक बार हुआ ये कि घर के सयानो में दाज्यू, ईजा को साथ लेकर हरिद्वार नहाने गये थे और हम दो छोटे भाई अपनी दीदियों के साथ घर पर अकेले थे. यह कि रात में सुबह ठण्डे पानी से नहाने के शौक में रात में जब नींद खुली तो लगा उजाला होने वाला है. सिवाणी के दिन सूर्याेदय से पूर्व नहाने की परम्परा सुनी थी, सो उठे और गधेरे के उस पार जहाॅ शाम ढले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, धारे पर नहाने चले गये. सीर (स्रोत) के गरम-गरम पानी से नहाने पर तो उतनी ठण्ड नहीं लगी लेकिन नहाने के बाद ठण्डी हवाओं के झोंको से एकदम अरड़ी गये. घर आया, घण्टों आग सेकी, लेकिन उजाला होने का नाम नहीं ले रहा था.
कई घण्टों के इन्तजार के बाद जब उजाला हुआ, तब पता चला कि हम रात के कोई 12-1 बजे नहाने चले गये होंगे. तब घड़ी तो थी नही, ज्यों ही नींद खुली, समझे उजाला होने वाला है. ग्रामीण परिवेश में भी ब्याणी तार समय का अनुमान लगाने का एक माध्यम हुआ करता, लेकिन हमें तो इसकी भी जानकारी नहीं थी. अब भी जब वो घटना याद आती है, तो डर लगने लगता है कि कैसे हम अर्द्धरात्रि में उस गधेरे के पार नहाने चले गये होंगे.
दिन में मकर संक्रान्ति यानि उतरैणी का त्योहार बनता और त्योहार के बड़े व पूरी कौअे व गार्य के हिस्से के अलग निकाल दिये जाते. जल्दी-जल्दी खाना खाकर शाम को घुघुते बनाने की तैयारी करनी होती थी. घूप छिपने से पहले ही सगड़ तैयार किया जाता, ताकि घुघुते बनाने तक सगड़ में गरम रहे. किसी पतेली में गुड़ का पाग बनाया जाता। जिसमें लगभग एक गिलास गुड़ में पाग बनाया जाता. आटा गॅूथना भी मशक्कत भरा होता. आटे में डालडा का मोइन किया जाता, क्योंकि रिफाइण्ड तेल तब हुआ नहीं करता. आटा इतना सख्त गॅूथा जाता, ताकि न तो वह घुघुते बनाने में टूटे और न इतना गीला हो कि तलने पर घुघुते कड़कड़े हो जायें अथवा तलने से पूर्व ही आपस में चिपकने लगें.
परिवार के सभी सदस्य सगड़ के चारों ओर बैठकर सामुहिक रूप से गप्पें मारते घुघुते बनाते और थालियों में सजाकर रख देते. इसमें घुघुतों के अलावा खजूरे, डमरू, तलवार, अनार आदि भी बनाये जाते. घुघुते एक पक्षी का पर्याय होने के कारण विधवा औरतें घुघुते नहीं खाती थी, उनके लिए खजूरे बनाये जाते, वो भी केवल दूध में आटा गॅूथकर.
रात के भोजन के बाद घुघुते तलने की बारी आती. इस कार्य में कभी कभी रात के बारह-एक तक बज जाते. घर के बच्चे घुघुते तलने तक जगे रहते. फिर भला बने घुघुतों पर बच्चों को खाने से कैसे रोका जाय. इसलिए कौअे व घर के मन्दिर के हिस्से के घुघुते अलग निकालकर ताजे ताजे घुघुते खाने का मौका बच्चों को मिलता. जब कि कुछ परिवार दूसरे दिन सुबह ही घुघुते तलते.
(Ghughutiya Nostalgia by Bhuwan Chandra Pant)
सुबह पड़ोस के बच्चों की आवाज – “काले कौआ काले, घुघुती माला खा ले’’ से ही हमारी नींद टूटती. ईजा रात में कब कौए के लिए तथा बच्चों के लिए अलग-अलग मालाऐं बनाकर तैयार रखती, हमें पता ही नहीं चलता. बिना मुंह धोए हम भी कौए बुलाने के लिए वही दुहराते- “काले कौआ काले, घुघुती माला खा ले’’. तब एक-दो बार पुकारने पर कौए आ भी जाते और घुघुते खाते भी थे. ऐसा भी माना जाता कि जिन लोगों की जो हकलाते हैं, कौए का जूठा खाने पर उनकी हकलाहट दूर हो जाती है. ऐसे बच्चे कौऐ का जूठा खाने से भी नहीं चूकते.
कौओं के खा लेने के बाद बच्चों के लिए भी तैयार माला उन्हें सौंप दी जाती, जिसमें घुघुतों के अलावा पूरी, बड़ा तथा एक दाना नारिंग का भी गच्छाया होता. बच्चे बड़ी शान से उसे गले में लटकाकर, उसमें घुघुते निकालकर खाते जाते. घर के जो बच्चे बाहर होते, उनके नाम की माला अलग से संभालकर रखी जाती, जो उनके आने पर अथवा उनके घर जाने पर उन्हें दी जाती. बागेश्वर में सरयू पार के क्षेत्र में घुघुते उतरैणी से एक दिन पूर्व बनाये जाते हैं. च्योंकि माघ का महीना अत्यन्त पवित्र माना जाता है. घुघुते, घुघुती पक्षी का प्रतीक मानते हुए अपवित्र मानना शायद इसका कारण रहा हो. इस महीने मांसाहार तो वर्जित रहता ही, साथ ही तामसिक भोजन प्याज व लहसुन आदि का सेवन भी तब तक वर्जित रहता, जब तक कुल पुरोहित को खिचड़ी का भोग न लगा दिया गया हो.
(Ghughutiya Nostalgia by Bhuwan Chandra Pant)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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