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बाजूबन्द : हिमालय की घसियारियों के गीत

पहाड़ की महिला का जीवन यदि किसी से नजरभर भी देखा होगा तो इस बात ने जरुर इत्तेफाक रखेगा कि पहाड़ में महिलाओं का जीवन अत्यंत कठिन है.

आज से कुछ दशक पहले तक पहाड़ के गांव आत्मनिर्भर थे. ग्रामीण परिवार अपनी आधी से अधिक दैनिक जरुरत के लिए जंगलों पर निर्भर थे. जंगलों की सच्ची साथी थी पहाड़ की महिलाएं.

जंगल पहाड़ की महिलाओं के हमेशा साथी रहे हैं. उनके दुःख-सुख के साथी जंगल ही रहे हैं. इसे पहाड़ में रीति रिवाज, नाच गीत में देखा जा सकता है.

पहाड़ की महिलाओं द्वारा जंगल में गाये जाने वाला ही उनका गीत है बाजूबन्द. बाजूबन्द पहाड़ की घस्यारियों के गीत, पहाड़ की महिलाओं के जीवन संघर्ष के गीत हैं. उदाहरण के लिए यह बाजूबंद पढ़िए-

जावा मेरी दीदी भुल्यों तुम घर जावा,
मेरी ब्वै क बोल्या ‘सुरमा’ बाघन खयाली.
जावा मेरी दीदी भुल्यों तुम घर जावा,
मेरी ब्वै क बोल्या ‘सुरमा’ भेल पड़ीगे.
जावा मेरी दीदी भुल्यों तुम घर जावा,
मेरी ब्वै क बोल्या ‘सुरमा’ गाड़ बगीगे.

सुरमा अपनी सहेली से कहती है कि उसकी मां से कहना कि उसे बाघ ने खा लिया, फिर कहती है कि कहना चट्टान से गिरकर मर गयी और फिर कहती है कि कहना गाड़ में बह गयी.

इस गीत में सुरमा नाम की घस्यारी जो बातें अपनी सहेलियों से कर रही है उससे पता चलता है कि पहाड़ के जंगलों में महिलाओं को किस-किस प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ता है.

हरीशताल क्षेत्र में चारा काटती महिला

गढ़वाली साहित्य में ‘बाजूबंद’ गीत को बाजू, जंगू, दोहा या दुवा भी कहा जाता है. इन्हें प्रणयगीत माना जाता रहा है. हालांकि हजारों की संख्या में गाये जाने वाले ये बाजूबंद में कुछ प्रतिशत ही ऐसे होंगे जो ‘प्रणय गीत’ होंगे.

बाजूबंद मुख्य रुप से पहाड़ की महिलाओं की व्यथा के गीत हैं. जिनमें उनका अपना दुःख, दर्द ,पीड़ा, वियोग, विरह समाया है. च्यूंकि यह गीत गाने वाली महिला के मन की स्थिति पर आधारित गीत हैं इसलिए इसमें हास परिहास, समाज को सीख इत्यादि से जुड़े गीत भी हैं.

थकूली कूं कांसू, बै थकूली कूं कांसू
बणू बणू रोली गैल्या कू फोंजलू आंसू.
बै कू फोंजलू आंसू.

(वन में रोयेगी तो आंसू कौन पोछेगा.)

बाजूबंदगीत दो या तीन पंक्ति का गीत है. जिसमें सम्पूर्ण भाव एक ही पंक्ति में होता है वह भी पांच से लेकर अधिकतम आठ से दस शब्दों में. पहली पंक्ति जो तीन चार शब्दों में होती है वह छंद पूर्ति के लिए बनाई जाती है जिसमें स्थानीय परिवेश दर्शाया जाता है. यह दूसरी पंक्ति ये अर्थ में प्रायः मेल नहीं खाती है. इन्हें दोल लट वाला बाजू कहते हैं. तीसरी पंक्ति में भाव को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कई बार लोकोक्तियों का भी रयोग किया जाता है. एक घसियारी के गीत को अन्य घसारियों द्वारा पसंद किये जाने पर ‘खिखोला’ लगाया जाता है.

झंगोरा की झाल, बै झंगोरा की झाल.
पंछी होंदू उड़ी जांदू, माछी रैग ताल.
बै माछी रैगे ताल.

(अगर कोई पक्षी होती तो उड़ जाती लेकिन तालाब की मछली हूं यहीं रहने को मजबूर)

छंद को प्रभावी बनाने के लिए पहली पंक्ति के शुरुआत में कभी कभी यारा, गैल्या, बल, मैणा व बै जैसे शब्दों का प्रयोग होता है. यह गीत सुनने में बहुत अधिक प्रभावी होते हैं. 1912 में जब काका कालेकर गढ़वाल की यात्रा पर थे तब उन्होंने जंगल के पास किसी घस्यारी का यह गीत सुना और अपने संस्मरण में काका कालेकर ने कि मैं जब-जब पहाड़ी लोगों का संगीत सुनने की बात करता हूं तब-तब वर्ड्सवर्थ की ‘दी सालिटरी रोपर’ कविता याद आती है.

कतरी त प्याज, बै कतरी त प्याज
तू कखन आई गैल्या, मैं खुदैण आज.
बै मैं खुदैण आज

चैत बासी काफू, बै चैत बासी काफू.
क्य खुदौण क्वी, मैं खुद्यूं छौं आफू
बै खुद्यूं छौं आफू.

[दो घस्यारियों के बीच का संवाद है जिसमें पहली कहती है आज तू मुझे कहा से खुद लगाने (जब किसी प्रियजन की खूब याद आती है) तो दूसरी उससे कहती है वह क्या खुद लगायेगी वह स्वयं खुद में व्याकुल है]

बाजूबंद का एक ही गीत अलग-अलग क्षेत्रों में या एक ही गांव में अलग-अलग घस्यारियों द्वारा जंगल या वातावरण के अनुसार एक से अधिक स्वरूप में गाया जाता है. इसके लय, छंद व स्वर भी अलग अलग हो सकते हैं.

इन गीतों में सामजिक प्रश्न भी उठाये गये हैं. सामाजिक प्रश्न उठने वाली एक पंक्ति देखिये.

खल्याण कूं दांदू.
बाबा जी कू बेटा होंदू, बांट मांगी खांदू.
बाजूबंद लौ.

(पिताजी का बेटा होती तो हिस्सा मांग कर खाती)

महिलाओं की वेदना से जुड़े बाजूबंद गीतों में नायक-नायिका वाले गीत में होते हैं. उदहारण स्वरूप देखिये

ग्वैरु म की ग्वैन
मैं जांदू मसूरी, तू रै बेचारी चैन.
जोगी कू भेस
सौकारू कू देण, प्यारी जांदू परदेश.

(नायक मसूरी जा रहा है और अपनी नवविवाहिता को आराम से रहने की सलाह दे रहा है और अपने परदेश जाने का कारण साहूकार का कर्जा उतरना बता रहा है)

इसके जवाब में नायिका कहती है

बाखरा की खाल
नाक की नथूली द्योल, न जा सुआ माळ.

(साहूकार का कर्जा चुकाने के लिए वह अपनी नथ डे देगी वह परदेश न जाये. )

इस तरह हिमालय की महिलाओं के सम्पूर्ण जीवन को लेकर रचे बसे और गाये है बाजूबंद गीत.

-काफल ट्री डेस्क

महिपाल सिंह नेगी की किताब घसियारियों के गीत बाजूबन्द के आधार पर.

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Girish Lohani

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