“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली रात की स्मृति डरावनी थी तो सुबह का नजारा तो दिल दहलाने वाला ही था. खाइयों में दर्जनों लाशें पड़ीं थीं. हर जगह इंसानों के शवों के टुकड़े. अधिकांश को बेनट से मारा गया था, लेकिन कुछ के सिर गोलों से उड़ गए थे. मैंने सभी लाशों को वक्त की नजाकत के अनुसार दफनाने का आदेश दिया.
(Garhwal Aur Pratham Vishwayudh Review)
26 नवंबर की एक और भयानक रात. जहां तहां मैं एक सिपाही के पास बैठ जाता और उससे बातें करता. यह अजीब सत्य है कि कैसे कष्ट हमें एक दूसरे के करीब ले आता है. इन सीधे-साधे लोगों के दिल शुद्ध सोने के थे. कभी कोई शिकायत नहीं कि ठंड के कारण आधे जमे हुए थे. ठंड तीव्र थी और उन्हें वहां लड़ने के लिए भेजा गया था, जहां की उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. वो एक ऐसे हथियार से लैस, जो उन्होंने कभी फ्रांस में प्रवेश से पूर्व कभी प्रयोग नहीं किया था.“
यह पंक्तियां लेखक देवेश जोशी जी की हाल में प्रकाशित पुस्तक “गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध“ की हैं. आधुनिक महाभारत कहे जाने वाले प्रथम विश्व युद्ध के विषय में गढ़वाली सैनिकों के बलिदानों की अमर गाथा है यह पुस्तक जिसने दुनिया के किसी अंधियारे कोने में छिपे उत्तराखंड ’गढ़वाल’ को विश्व के मानचित्र पर भारत के शौर्य के रूप में पहचान दिलाई और हिमालय के अपराजेय प्रहरी के रूप में हिम किरीट पर अपनी कीर्ति पताका ही नहीं फहराई, भारत जननी के गौरव में भी प्रशस्त अमत्र्य वीर पुत्रों के कालजयी विरूद को भी चरितार्थ करने वाले अनेक प्रसंगों का विवरण वैदुष्य और गहन शोध के साथ प्रस्तुत किया है.
विश्व इतिहास के पृष्ठों में प्रथम विश्व युद्ध दुनिया का ही नहीं मानव इतिहास का अद्वितीय दस्तावेज है, इस महासमर में उत्तराखंड के वीर सपूतों की महती भूमिका का परिचय भी इस पुस्तक में समाहित है. लेखक देवेश जोशी ने इतिहास के प्रामाणिक स्रोतों से महत्वपूर्ण शोध परक सामग्री जुटा कर गढ़वाल हिमालय परिक्षेत्र और यहां के महानायकों की बलिदानी गाथा को जिस रूप में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक संवेदना के माध्यम से पाठकों के लिए जो महत्वपूर्ण भूमिका के साथ प्रस्तुत किया है वह नई सदी की नई पीढ़ी के लिए सर्वथा एक प्रेरक अध्याय है, इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है. महायुद्ध की विभीषिका, दूर परदेस में लाम पर भेजे जाने वाले सैनिक, युद्धकाल में विषम परिस्थितियों में युद्ध के लिए तत्पर इन सैनिकों के अनुभव का संसार जिस रूप में लेखक ने वर्णित किया है वह रोमांचकारी तो है इसके अतिरिक्त पाठकों के हृदयों को विचलित करने वाला भी है.
(Garhwal Aur Pratham Vishwayudh Review)
कथेतर गद्य की विद्वतापूर्ण यह कृति जो न तो कोरा इतिवृत्त है,न संस्मरण, न ही पूर्व लिखित घटनाओं की पुनरावृत्ति, अपितु इन सबसे ऊपर इतिहास साहित्य और मानवीय मूल्यों, परिस्थितियों और संवेदना का मिला जुला इतिह्यस है जिसे आज उत्तराखंड के शौर्य और गौरव के साथ अमूल्य निधि कहा जा सकता है. यहां इतिहास शास्त्र और साहित्य की संवेदना मिश्रित इतिहास-रस की अवधारणा के माध्यम से जिस प्रकार लेखक ने विभिन्न घटनाओं के विवरणों में गढ़वाली सैनिकों की वीरता के अतिरिक्त उनके पत्रों में द्रवित करने वाले प्रसंग प्रस्तुत किए हैं वे लेखक की गहन परिवीक्षण प्रतिभा के साथ साहित्यिक रूप में उनकी प्रस्तुति और अपनी मातृभूमि सहित अपने प्रदेश की महानता का परिचय देने वाले अंश हैं.
युद्ध मानव की अनिवार्य नियति है. पौराणिक मिथकीय परंपराओं में देवासुर संग्राम रहा हो अथवा रामायण महाभारत सहित परवर्ती युगों के युद्ध भारत ही नहीं पूरी दुनिया के इतिहास में युद्धों के विवरण और उनके त्रासद रूपों के साथ सैनिकों के शौर्य का भी विस्तृत फलक के साथ अन्यान्य इतिहासकारों की लेखनी द्वारा वर्णित किया गया है. युद्ध और युद्धोत्तर मानव की विसंगतियों की वेदना, राष्ट्रों और मानव समाज की अस्थिरता, मानवता की मर्माहत पुकार, युद्ध स्थल और वहां से दूर रहने वाले स्वजनों की मर्मांतक पीड़ा भी अपने चरम रूप में अपना परिचय देती है, इसीलिए इतिहास अतीत हो कर भी वर्तमान का सजग प्रहरी और भविष्य के लिए शांति के अध्याय की भी दिशा निर्दिष्ट करता है.
जहां युद्ध कल्मष कलंक को धो कर एक नए मानवीय अध्याय का उपोद्घात करता दीखता है. इसी दृष्टि के साथ विद्वान लेखक ने ऐतिह्यसिक विवरणों के साथ दो महत्वपूर्ण प्रसंग भी इस पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं, एक तो सैनिकों के लिखे गढ़वाली भाषा के पत्र जो अंग्रेजी के अनुवाद द्वारा संकलित किए गए. इन पत्रों में युद्ध की मर्मस्पर्शी वेदना भी है और वीर सैनिकों की स्वाभिमानी जागृत चेतना भी समाई है, वह इस पुस्तक की अमूल्य धरोहर है, इसके अतिरिक्त प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले वीर सैनिकों की वीरता और मन की भावनाओं को स्वर देने वाले लोक गीत जो गढ़वाली कवियों और लोक द्वारा लिखे-रचे गए उनकी खोज और चयन करते हुए पुस्तक में प्रकाशन. लेखक ने स्वयं लिखा है -“इन गीतों की जुबानी उस लाम की कथा भी पढ़ी जा सकती है, जिसे वीर गढ़वाली सैनिकों की पत्नियां और परिजन अपने ही मुल्क में अपने घर गांव में लड़ रहीं थीं और जो इतिहास ग्रंथों में कहीं उल्लिखित भी नहीं है.“
एक पत्र में अमर सिंह रावत अपने मित्र को लाम की स्थितियों की लंबी बातें गढ़वाली भाषा में लिखता है. अपने मरने से भी नहीं डरता युद्ध क्षेत्र की तमाम बातों की गाथा बताने के साथ लिखता है “बाकी बाद में बताऊंगा आपात काल में इन चारों की परीक्षा होती है ’धीरज, धर्म, मित्र और नारी’ अप्रासंगिक नहीं है कि लेखक ने ठेठ ग्रामीण अनपढ़ सैनिक के माध्यम से विश्व मानवता के लिए बहुत बड़ा संदेश दिया है. यही कारण है कि विश्वयुद्ध में गढ़वाल की उपस्थिति, इतिहास में सैन्य परंपरा का प्रत्याख्यान और देवभूमि के अमर नायकों का अवदान इस पुस्तक की महनीयता कही जाय तो अत्युक्ति न होगी.
पुस्तक के प्राक्कथन भाग में विद्वान लेखक अनिल रतूड़ी जी जो उत्तराखण्ड के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे, ने पुस्तक के विषय में जिन प्रमुख बिंदुओं का उल्लेख करते हुए पुस्तक की विशिष्टता को इंगित किया है वह अपने आप में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्टभूमि में लेखक और उसकी रचना के लिए अमूल्य शब्द हैं.
(Garhwal Aur Pratham Vishwayudh Review)
विद्वान लेखक देवेश जोशी ने ’आधुनिक महाभारत’ की परिकल्पना से ’सात समोदर पार छ जाण ब्वे’ की ओजस्वी पंक्तियों के साथ अपनी लेखनी से “गढ़वाल और प्रथम विश्व युद्ध“ जैसी उत्कृष्ट रचना द्वारा उत्तराखंड के पाठकों के लिए ही नहीं अपितु 21वीं सदी के महासमरों के उथल-पुथल भरे परिवेश में तीसरे विश्वयुद्ध की भयावह आशंकाओं से घिरी पूरी दुनिया के लिए एक जीवंत रचनात्मक अमूल्य दस्तावेज अपनी सशक्त लेखनी से शब्दों में साकार किया है, इसके लिए लेखक बहुत बहुत बधाई के पात्र हैं. लेखक के बारे में यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि वे चमोली जनपद के पोखरी विकासखण्ड में गुगली गाँव के मूल निवासी हैं और सम्प्रति रा.इ.कॉ. डाकपत्थर में अंग्रेजी साहित्य के प्रवक्ता पद पर कार्यरत हैं. पुस्तक विनसर पब्लिशिंग हाउस डिस्पेंसरी रोड देहरादून से प्रकाशित हुई है और ऑनलाइन अमेजॉन से भी मंगवायी जा सकती है.
डॉ. सुधा रानी पाण्डे
उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार की पहली महिला कुलपति और उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला सदस्य रही हैं. इससे पूर्व वे देहरादून के प्रतिष्ठित एम.के.पी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय की प्राचार्य भी रह चुकी हैं.
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