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गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के नाम जानते हैं. मेघा आ, सिपैजी, इकुलांस, गोपी भिना, केदार, और कितनी? हाल में आई संस्कार या फिर गढ़-कुमौं? जब हम गिनी-चुनी उत्तराखण्डी फिल्मों के नाम जानते हैं या फिर हमने एक-दो उत्तराखण्डी फिल्में ही देखी है तो हम उनकी तुलना मेन स्ट्रीम की फिल्मों के साथ क्यों करते हैं? हालिया रिलीज फिल्म पुष्पा-2 की बहुत आलोचना सुनी उसके बाद भी लोग घरों से निकलकर उस फिल्म को देखने जा रहे हैं, तो अपनी उत्तराखंडी फिल्मों को देखने से पहाड़ी लोग इतना संकोच क्यों करते हैं?
(Garh kumaon Uttarakhand Film Review)

13 दिसम्बर को उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’ देहरादून के सेंट्रिओ मॉल तथा हल्द्वानी के वॉकवे मॉल में रिलीज हुई है. अगर आपने एक दो उत्तराखंडी फिल्म देखी हैं तो यह फिल्म आपको उत्तराखंडी फिल्मों में अब तक के विकास को दिखाएगी. निर्देशक-लेखक अनुज जोशी ने शानदार फिल्म लिखी है, इसके प्रोड्यूसर हरित अग्रवाल और सरिता अग्रवाल हैं. फिल्म में संजू सिलोड़ी और अंकिता परिहार मुख्य भूमिका में हैं. यह कहानी गढ़वाल-कुमाऊँ के एक युवा व एक युवती की कहानी है. जो कार्पोरेट क्षेत्र में एक साथ काम करते हैं, एक ही राज्य के निवासी होने के बाद वे दोनों इस फिल्म में अपने विवाह के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं. निर्माताओं के अनुसार यह कहानी गढ़-कुमौं के रिश्तों में 500 साल पुरानी खट्टास से, आधुनिक समाज में उपजी समस्याओं को दर्शाती है.

इस फिल्म कहानी पहाड़ी लोगों को कनेक्ट करते हुए आगे बड़ती है, इस मामले में यह एक सफल कहानी है. फिल्म की कहानी बारी-बारी से गढ़वाल और कुमाऊँ गाँवों से होकर वहाँ के लोगों के जीवन और रहन-सहन पर प्रकाश डालती है.
(Garh kumaon Uttarakhand Film Review)

शुरू में आपको फिल्म की सीनेमेटोग्राफी मेन स्ट्रीम सिनेमा की पुरानी फिल्मों जैसी लग सकती है लेकिन इसमें दृश्यों को शानदार अंदाज में दर्शाया गया है. कैमरे से गढ़-कुमौं के सुन्दर प्राकृतिक दृश्य दिखाए गए हैं. कहानी की जरूरत के अनुसार फिल्म में वस्तु विशेष को फोकस कर फिल्म समझने में सहायता की गई है. उत्तराखण्डी सिनेमा एडिटिंग की समस्या से जुझता है इस फिल्म ने एडिटिंग की समस्या पर बहुत काम किया है. फिल्म का पहला सीन इटारसी के बारिश को गढ़-कुमौं की बारिश जैसा दिखाता है, उत्तराखंडी लोग उसे स्वयं से कनेक्ट कर लेते हैं.

फिल्म में तीन-चार गीत हैं, गीतों के बोल गढ़-कुमौं की संवेदनाओं के अनुसार लिखे गये हैं. इनका संगीत उत्तराखंडी परिवेश के अनुसार बहुत शानदार है. गीतों में नृत्य के समय गढ़-कुमौं के अनुसार परिधानों का सटीक चयन किया गया है. विवाह के समय गाये जाने वाले मांगलिक गीतों की धुन, स्वर एवं संगीत उत्तराखंडी रिवाज के अनुसार एकदम सटीक बनाए गए हैं. गीतों में गायक के स्वर नायक के स्वर से थोड़ा भिन्न प्रतीत होते हैं ऐसा इसलिए हुआ होगा गायक की ध्वनि नायक से कम मिल रही है. गायिका और नायिका की आवाज बहुत बढ़िया से मिल रही है, दोनों की ध्वनियों का पिच समान है.

फिल्म में सीमित पात्र नायक-नायिका, उनका माता-पिता, गढ़-कुमौं दोनों भाषाओं का एक जानकार व्यक्ति, इतिहास के प्रोफेसर, नायक के दादा, नायिका की नानी तथा कुछ रिश्तेदार और छह ग्रामीण हैं. सबकी अपनी अलग भूमिका है और सभी अपनी भूमिका से दर्शकों के मन में अपना स्थान बनाने में सक्षम होते हैं.

फिल्म के पात्र गढ़-कुमौं की सरल भाषा को बोल रहे हैं. ये अर्बन कुमाउँनी और अर्बन गढ़वाली भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, यहाँ अर्बन अर्थ वह भाषा है जिसमें भाषा के ठेठ शब्दों का प्रयोग न कर हिन्दी व अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाता है परन्तु भाषा का ध्वनियात्मक ठेठपन बरकरार रहता है. जिससे कुमाउँनियों को गढ़वाली तथा गढ़वालियों को कुमाउँनी आसानी से समझ में आयेगी. भाषा की दृष्टि से यह फिल्म संकेत देती है कि गढ़-कुमौं की भाषाओं में अर्बन शब्दों के प्रयोग से विकसित कर एक नई उत्तराखंडी भाषा बनाई जा सकती है जो दोनों स्थानों में बराबरी से प्रयोग में लाई जा सके. इसे शहरों में बसने वाले अर्बन पहाड़ी युवा बोला करेंगे.
(Garh kumaon Uttarakhand Film Review)

फिल्म उत्तराखंड की संस्कृति को अच्छे से दिखाती है, यहाँ के रीति-रिवाज, पिठ्याँ (टीका) लगाने का रिवाज, घर आए मेहमानों के आदर सत्कार का रिवाज आदि अच्छे से दिखाए गए हैं. नायिका द्वारा पहाड़ी रिवाज तथा परिवेश के अनुसार वस्त्रों का प्रयोग किया गया. इस फिल्म में गढ़-कुमौं में प्रयोग किये जाने वाले आम संस्कारों को विशेष रूप से दर्शाया गया है.

फिल्म गढ़-कुमौं दोनों क्षेत्रों के पलायन की समस्या को समान रूप से उजागर करती है. अन्य विषयों की भाँति गढ़-कुमौं पलायन में भी समान है, यहाँ के गाँव इतने खाली हैं कि गाँवों में तीसरे से चौथा व्यक्ति भी नहीं मिलता है. एक तरफ फिल्म दिखाती है कि गाँवों में बसने वाले लोग कैसे जीवनयापन कर रहे हैं. दूसरी तरफ फिल्म में यह दिखाया गया है कि गढ़-कुमौं से गाँव छोड़ चुके लोग अपनी संस्कृति एवं संस्कारों से कैसे जुड़े हैं. नायक-नायिका के माता-पिता ने गाँव छोड़कर जाने के बाद भी अपने बच्चों को अपनी भाषा बोलना सिखाया है.

फिल्म उत्तराखंडी सिनेमा का नया रूप है, इसे यहीं के फिल्म विकास के अनुसार देखा जाय तो यह एक बेहतरीन फिल्म है. फिल्मांकन, कहानी, संगीत आदि में अच्छा विश्लेषण करके फिल्म बनाई गई है. निर्माता टीम के उत्साहवर्धन हेतु यह फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए ताकि भविष्य में हमको उत्तराखंडी सिनेमा में ऐसी ही बेहतरीन फिल्में देखने को मिलें.
(Garh kumaon Uttarakhand Film Review)

मुकेश कोहली ‘हौंसिया

लोधियागैर, पिथौरागढ़ के रहवासी मुकेश कोहली ‘हौंसिया‘ कुमाऊं यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं. उनके शोध का विषय ‘कुमाऊनी और राजस्थानी लोककथाओं में सामजिक-सांस्कृतिक संदर्भों का तुलानात्मक अध्ययन’ है.

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